मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

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मुकेश कुमार ऋषि वर्मा

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यात्रा ब्लॉग

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कैला देवी धाम दर्शन (यात्रा वृत्तांत)

22 मार्च 2024 को कैला देवी धाम यात्रा का शुभ योग बना। छोटा भाई अपने पुत्र का मुंडन जिसे गांव की भाषा में (लटुरियां लेना) भी कहा जाता है। हेतु बोलेरो गाड़ी से रात्रि करीब 9:00 बजे हम निकल पड़े। हम परिवारीजन व कुछ रिश्तेदारों से गाड़ी खचाखच भर गई। फतेहाबाद पहुंचते ही हमने हल्का नाश्तापानी किया और एक अन्य गाड़ी के साथ हमारी यह धार्मिक यात्रा पुनः प्रारंभ हो गई। हमने यात्रा का शुभारंभ अपनी ग्राम देवी व अपने पितरों के पूजन अर्चन के साथ किया। 

हमारी गाड़ी रात्रि 2:00 बजे तक लगातार चली। करौली शहर से पहले ही एक पेट्रोल पंप पर रात्रि विश्राम हेतु गाड़ियां रोक दी गईं। सभी जनों ने सुबह 5:00 बजे तक विश्राम किया। किसी को नींद आई तो किसी को नहीं। वैसे मुझे तो बहुत आई। दैनिक क्रियाओं से फ्री होकर हमारी गाड़ी ने पुनः दौड़ना शुरु कर दिया।

खेतों में फसलें पकी खड़ी थीं तो कुछ फसलें कट कटा कर किसानों के घर पहुंच चुकी थीं। देहात में राजस्थानी पहनावा देखने को मिला। राजस्थानी पहनावा बहुत सुंदर होता है। स्त्रियां बहुत सुंदर लगती हैं। एक कहावत है कि राजस्थानी स्त्रियां पुरुषों से कई गुना अधिक मेहनत करती हैं। यह सच भी है। खेतों में अधिकतर स्त्रियां ही नजर आ रहीं थीं। परंतु इसका मतलब यह नहीं की पुरुष निकम्मे होते हैं, वे भी अपनी जिम्मेदारियों को बड़े अच्छे ढंग से निभाते हैं।

 पहाड़ों के इस देश में जीवन सामान्य ही लगा मुझे तो। अब हमारी गाड़ी करौली शहर में प्रवेश कर चुकी थी। करौली शहर बाकी शहरों की तरह ही लगा, शहर न अधिक गंदा न ज्यादा साफ। करौली शहर से 24 किमी दूर पर पहाड़ों में विराजी मां कैला देवी भक्तों के दुःख- दर्द दर्शन मात्र से दूर कर देती हैं। 

कहा जाता है कि देवी मां ने केदारगिरी नाम के एक स्थानीय संत को दर्शन देकर आश्वासन दिया कि वह क्षेत्रीय लोगों के पास आएंगी। लोक कथा यह भी है कि नगरकोट से भाग रहे एक योगी इन्हें (कैला माता) को आक्रमणकारियों से बचाने के लिए अपने साथ बैलगाड़ी पर ले आए। बैल घने जंगल के बीच पहाड़ी के मध्य भाग में रुक गये और चलने से इनकार कर दिया। देवीय विधान से मूर्ति उसी स्थान पर स्थापित की गई जहां वह आज भी मौजूद है। 

कैला देवी के आशीर्वाद से करौली के यदुवंशी शासको का मंदिर से सदैव गहरा नाता रहा है। महाराजा गोपाल सिंह जी ने 1723 ई. में मंदिर की नींव रखी थी। 1886 ईस्वी में सिंहासन पर बैठने वाले महाराज भंवर पाल ने अच्छी शैली में मंदिर का पुनः निर्माण कराया। कई जलाशयों व सुंदर नक्काशीदार बड़ी धर्मशाला का निर्माण भी कराया। 1927 ईस्वी में अर्जुन पाल जी ने एक कुंड बनवाया जो आज भी मौजूद है। मंदिर का विकास लगातार चलता रहा। 2017 में मंदिर की गुंबद को शुद्ध सोने से सजाने की परियोजना पूरी हुई। जटिल गुंबद का चमकता सोना इसे देश के सबसे आकर्षक तीर्थ स्थलों में से एक बनाता है। स्नान के लिए काली शिला प्रसिद्ध है।

कैला देवी जी का विस्तृत वर्णन स्कंद पुराण के 65 वें अध्याय में दिया गया है। जिसमें कहा गया है कि देवी ने स्वयं घोषणा की थी कि कलयुग में उनका नाम कैला होगा। उनके भक्त कैलेश्वरी के रूप में उनकी पूजा अर्चना करेंगे। माना जाता है कि 11वीं शताब्दी के आसपास करौली के जंगलों में उनकी प्रतिमा आई थी। कैला देवी उन्हीं देवी महायोगिनी महामाया का एक रूप है, जिन्होंने नंद और यशोदा के घर जन्म लिया और उनकी जगह भगवान कृष्ण ने ले ली। जब कंस ने उन्हें मारने की कोशिश की तो उन्होंने अपना दिव्य रूप दिखाया और कहा कि जिसे वह मारना चाहता था, वह पहले ही कहीं और जन्म ले चुका है। उसी देवी को आज कैला देवी के रूप में सारा संसार पूज रहा है। चैत्र मास में शक्ति पूजा का विशेष महत्व रहता है पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य त्रिकूट पर्वत पर विराजमान कैला मैया का दरबार चैत्र मास में लघु कुंभ नजर आता है। मंदिर व मेले का प्रबंधन श्री कैला देवी मंदिर ट्रस्ट देखता है। यह तो रहा मंदिर का इतिहास। 

हम सभी जन एक धर्मशाला में रुके, दैनिक क्रियाओं से निवृत्त हुए। मैं अपने बड़े भाई (दिव्यांग) को माता के दर्शन कराने अपने साथ ले गया, दर्शन हम दोनों भाइयों ने मिलकर किये। जीवन धन्य- धन्य हो गया। दर्शन -पूजन करके हम बाहर निकल आये। एक दुकान पर नाश्ता किया और पहुंच गये फिर से धर्मशाला में... आराम किया कुछ देर फिर धर्मशाला का हिसाब किया। धर्मशाला छोड़ बाजार में आ गये, थोड़ी बहुत खरीदारी की। एक ढाबे पर खाना खाया। बाहर आये तो देखा ड्राइवर लोग गायब। दो घंटे परेशान करने के बाद आये देवदूत।

अब मां से विदाई लेने का समय आ गया और व्यथित हृदय से मां कैला देवी धाम को छोड़ हम घर की ओर चल पड़े। हम रात्रि करीब 10:00 बजे घर पहुंच गये। यात्रा आनंददाई व मंगलकारी रही।


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