यारी-दोस्ती: एवरग्रीन टॉपिक-2
यारी-दोस्ती: एवरग्रीन टॉपिक-2




अगले साल में फिर गांव लौटी।अपने दोस्तों के लिए अपनी समझ के ,छोटे छोटे तोहफों के साथ। मैं उसी मासूम दोस्ती की दुनिया मे ,उसी साल में ठहरी हुई थी।लेकिन वे सब उस समय में 'मेरी तरह ठहरे हुए' नहीं थे। सुबह मुझे उम्मीद थी की आंख खोलूंगी तो फिर से मेरे साथी मुझे दिखेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।वह मेरा पहला अहसास था "खालीपन " का ,हालांकि उस वक्त वह समझ नहीं आया था बस कुछ उदासी सी घर कर गयी थी।
इस आघात (उस उम्र में यह वैसा ही था ) के मन में सिंक होने में वक्त लगा। शाम को दादी जी ने मेरा मन जाने कैसे पढ़ लिया। मुझे उनका गले लगाना आज भी महसूस होता है। उनके गले लगाते ही मैं बुरी तरह बिलख बिलख कर रो गयी थी। दादी जी पुचकारते हुए मुझे अपने साथ उन सब के घर ले गईं थीं। वो भी एक अजीब सा मगर मन पर दो विपरीत अहसासों की छाप छोड़ने वाला दिन था।
पहली बार महसूस हुआ कि खालीपन गले लगाने भर से झट से भर जाता है ।महसूस हुआ कि बिन कुछ कहे प्यार से भर देने का तरीका होता है ,अपनेपन से गले लगा लेना। उन्ही दो महीनों की छुट्टियों के दौरान में अपनी दादी जी के करीब आई।वो घर मे मुझे एहसास कराती रहती थीं कि मैं उनकी सबसे प्यारी पोती हूँ। मगर मेरे लिए वह मेरी सबसे पहली पक्की सहेली थीं।जिनसे मैं इस कदर प्यार करती थी कि मेरे पास शब्द नहीं उसे बयान करने के लिए।
प्राइमरी स्कूल(सरस्वती शिशु मंदिर,निरालानगर) में किरण , रचना ,वंदना ये मेरी उन दोस्तों में थीं जिनके साथ मुझे कुछ सहजता थी। किरण, उसे मुझसे जाने कैसा मोह रहता था कि वो मुझे अपने अर्दली की साइकिल पर पीछे बिठवाती एयर मेरे घर ड्राप करवाती फिर उल्टा आधा किलोमीटर पलट कर अपने घर जाती।रचना जो कुछ कुछ मेरी तरह थोड़ी अंतर्मुखी थी। उसके साथ अकेले बैठ कर सपने शेयर करना याद है।वंदना, उसके साथ से तो गिल्ट का प्रथम परिचय हुआ था।
हुआ यूं कि मेरा सेक्शन चेंज किया गया था।कुछ बेहद शरारती बच्चों के साथ मुझे बैठने को कहा गया।स्कूल के बगल के मकान में एक मोटी आंटी जी रहती थी।अक्सर वो इंटरवल शुरू होने के आस पास छत पर आया करती थीं। और ये सब क्लास से उनको छत पर आता देख "मोटी आ गयी " चिल्लाते थे। मैं इस शरारत में शामिल नहीं थी लेकिन खिड़की की तरफ में ही बैठती थी।जिस दिन वंदना ने एडमिशन लिया था उस दिन वे सब उद्दंड हो गए थे।कहते हैं न खरबूजे को देख कर खरबूजा रंग पकड़ता है। वंदना का रंग मुझसे भी सांवला था।सबने कहा चलो दोस्ती करते है। वे उसे परेशान करना चाहते थे।सब उसे चाक का पावडर ले कर लगाने लगे । मूर्ख में समझी ही नहीं, जैसे ही मैंने वंदना के गाल पर चाक लगाई उसकी निर्मल आंखों में आंसू आ गए। वे आंखें आज भी मुझे दुखती हैं।
उस क्षण पहली बार मुझे अपराधबोध हुआ था कि मैंने कुछ बहुत गलत कर दिया है। उसे बिना कुछ कहे, वैसे के वैसे ग्लानि से भरी मैं अपनी सीट पर चुपचाप आ कर बैठ गयी। तभी वे आंटी जी छत पर आई होंगी और मेरे साथ के बच्चे चिल्लाने लगे।उस दिन वास्तव में मुझसे पराठे का एक निवाला बमुश्किल निगला गया, उबकाई सी आने लगी थी।वंदना ने एक दो बार मुझे पलट कर देखा था।अब लगता है कि वंदना में गंभीरता के साथ साथ समानुभूति भी थी।
ख़ैर,इंटरवल खत्म हुआ।आंटी जी गणित के आचार्य जी के साथ कक्षा में आ गयीं और हमारी तरफ इशारा करके बोली,"ये है वे बच्चे "। गनिताचार्य जी ने सबको एक एक कर उठाना शुरू किया। मेरा क्या हाल रहा होगा इसे ऐसे समझिये की एक ऐसी बच्ची जो अपराधबोध से भरी हुई हो और उसे फिर एक ऐसे अपराध के लिए उठाया जाने वाला हो जिसमें उसका कोई दोष न हो वो भी एक ऐसे व्यक्ति द्वारा जो कुख्यात हो पीटने के लिए।मेरा नाम लिया गया। मेंरा रोने जैसा मुंह हो चला था।तभी वंदना ने कहा "आचार्य जी ये अच्छी लड़की है, ये नहीं करती ऐसा।" आंटी जी ने मुझे याद है कहा था" अच्छे बच्चों के साथ रहते हैं बेटा।" ।मेरी रुलाई फुट पड़ी थी।उन आंटी जी ने आकर मुझे फिर गले लगा लिया था और दुलार किया था। मैं अगले दिन से वंदना के साथ बैठने लगी थी।मन जुड़ने लगा था लेकिन फिर मेंरा सेक्शन चेंज हो गया और में वापस किरण और रचना के पास। फिर वंदना कभी कभी मिलती थी,हम।एक दूसरे को देख कर मुस्कराते थे।
5वी में उस सेक्शन में कुछ लड़कों से भी दोस्ती हुई ,सतीश और देवेंद्र।सतीश मेरे घर के रास्ते मे policeline में रहता था और रिक्शे में साथ जाया करता था। और देवेंद्र वो पहला लड़का था जो मुझसे राखी बंधवाने के लिए आगे आया था। शिशु मंदिर मे बच्चे सब रक्षा बंधन पर एक दूसरे को राखी बांधते थे ।लेकिन हमारे परिवार में एक दुर्घटना के कारण इसे नहीं मनाया जाता था। पापा ने मना कराया हुआ था।सो हर साल बस मुंह ताकती रहती थी।वो देवेंद्र था जिसने जिद की थी,उसकी कोई बहन नहीं थी "तुम बस मेरी बहन बन जाओ भावना।" इतना प्रेम था उसके कहने में की पापा का भय जाने कहाँ गया और मैने उसकी लायी राखी उसकी कलाई पर बढ़ा दी थी बदले में उसने भी मुुुझे राखी बांधी। राखी का पर्व क्या होता है कैसे भाव भरते हैं मन मे पहली बार उस दिन यह महसूस हुआ।
आप सब हंसेंगे पर सालों तक किसी और को भाई नहीं माना न कहा,लगा जैसे देवेंद्र के साथ छल होगा।बचकानी बात लगेगी पर तब यह मेरा बाल स्वभाव था। बहरहाल उसकी गुलाबी फुग्गे वाला रक्षा सूत्र मैंने कई दिन तक अपने बस्ते में छुपा कर रखा था। फिर उसके पापा का ट्रांसफर हो गया और वो प्यारा सा भैया भी छूट गया।
पांचवी के बाद जब सब अलग अलग स्कूल में चले गए तो मन फिर अकेला हो गया। तब पहली बार सवाल आया मन में कि सब छूटते क्यों जाते हैं। दो स्कूल में एंट्रेंस हुआ,एक औसत दर्जे के स्कूल का परिणाम जल्दी आ गया।उसमे दाखिला मिला ।वहां का माहौल ही अलग था।सब तरफ लड़कियां, वो भी उम्र में बड़ी लेकिन मेरी ही कक्षा में।
वे घूरती रहती थीं,फुसफुसा के हंसती रहती थीं।उन सबका पहले से ग्रुप था क्योंकि वे सब उसी स्कूल के प्राथमिक से थीं। बहुत अजीब सा था वो सब। पापा जी मे यहां भी मैडमों से मेरा विशेष ख्याल रखने को कहा था। सो मेरी सीट मैडम की डेस्क के सामने ही सेट कर दी गयी थी।
लेकिन वहां इंटरवल में फ़िल्म और फिल्मस्टार की बातें होती थीं, अजीबोगरीब मैगजीन लड़कियां बैग में भर के लाती थी। जिसे छुपा छुवा के पढ़ती।मन मे आता कि कुछ पता चले कि ऐसा क्या है जो छिपा कर पढ़ा जाता है। पर कोई मुझसे बात ही न करता। तोपता क्या चलता।
मां से अच्छे बच्चे कुछ नहीं छिपाते ,यह घुटा दिया गया था सो जब ज्यादा उत्सुकता ,निराशा में बदलने लगी तक घर आकर सब बता दिया।नतीजा की मेरा स्कूल महीने भर में ही फिर बदल दिया गया।। पापा जी के प्रयास से मेरा एक क्रिस्टियन स्कूल में ऐडमिशन हो गया।वहां जबरदस्त अनुशासन था।वहां भी लड़किया ही थीं लेकिन वे सब उन लड़कियों से बहुत अलग थीं।यहां फिल्मस की बात नहीं होती थी।यहां कंपीटिशन रहता। स्कर्ट में प्लेट्स पर क्रीज कितनी जबरदस्त कड़क है की चलने पर भी वापस अपनी जगह आ जाये ये बड़ी बात होती। फिर , शर्ट की काज़ पट्टी(जिसमे बटन लगे होते हैं) और बेल्ट की बक्कल का जॉइंट.. एक सीध में रहना, क्लास में टॉप 5 में आने का कंपीटिशन,कल्चरल एक्टिविटी में भाग लेना ,क्राफ्ट में एक्सीलेंट और कलीन काम ,गेम्स में पार्टिसिपेट करना, प्रीफेक्ट बनन्ना, किसी हाउस कि कोइ पोजिशन पाना वगैरह यह सब था। यहां धीरे-धीरे मेरी दोस्ती हुई क़ुदसियाह सुल्ताना, कौसर सिद्दीकी , रश्मि बिष्ट और पूनम घिल्डियाल से ।
आठवीं के बाद फिर वो फिल्मी गपशप का माहौल धीरे धीरे इस क्लास में भी शुरू होने लगा जो शुरुआत के एक महीने पहले देख कर आई थी । मन में कूट कूट कर भरा गया था कि ये सब अच्छी लड़कियां न सुनती हैं न इनमे इंटरेस्ट लेती हैं। किस्मत से क़ुदसियाह,कौसर,रश्मि और पूनम के घर का माहौल भी कुछ कुछ ऐसा ही था।सो हमारा एक अलग ही ग्रुप हो गया।जिसे इनसब बातों से कोई मतलब नहीं।बस अच्छे नम्बर लाना और ज्यादा से ज्यादा कल्चरल या गेम्स में पार्टिसिपेट करना।
लेकिन इन सब गतिविधियों में खेल के लिए जहां गए वहां मैं और क़ुदसियाह ही गए। कौसर पढ़ाई में ज्यादा रही। रश्मि ,पूनम तो 10th के बाद जाने कहाँ खो गयीं। वहीं 11वीं में मैंने अपने ही स्कूल में एक नया हिस्सा देखा।जब विज्ञान विषय चुना।ऐसा लगा जैसे ये अब तक कहाँ छुपा था ? साथ मे वहां होस्टल भी था। हम अक्सर उस रास्ते से जिम्नेजियम जाते लेकिन कभी आदत ही नही थी कि इधर उधर ताक झांक ही कर लें।
हां, यहां वंदना फिर मिली, एक दम आत्मविश्वास से भरी । अच्छा सा लगा था उसे देख कर।उसने आर्ट साइड ली थी।उसमें कहा था कि वो आई ए एस बनेगी जब उसने मुझसे पूछा तो मझे कोई आईडिया ही नहीं था की क्या बनना है।तब तक बस अच्छे नम्बर से क्लास पास करनी है, ओबीडीएन्ट स्टूडेंट और पापा की गुड गर्ल बने रहना है यही था।अब वह उच्च अधिकारी है।पर वैसे ही सहज है जैसे थी।
यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन में भूपेश 'भुप्पी' , गोविंद सिंह बिष्ट ये दो मेरे बेस्टी थे।भुप्पी को मेरे घर पर सब बहुत अच्छा लड़का मानते थे।वह था और है भी।पर बाद में भुप्पी और बिष्ट, दोनो से लड़ाइयां/गलतफहमियां इस कदर बढ़ीं की सालों तक हमारी बात क्या मुलाकात तक नहीं हुई। सालों बाद Fb ने फिर मिलाया। गलतफहमियां दूर हुईं। बेमतलब की पोसेसिवनेस ने आपसी व्यवहार को खराब किया था। बहरहाल फिर से सब सहज हो गया।
पर अब वे सब पुरानी सहेलियां-दोस्त और मैं अपने अपने खुशहाल जीवन मे व्यस्त हैं। हाँ , चाहूं तो जब मन करे बात कर लूं।पर ,अब जैसे मन उतना भावुक नहीं रहा। शायद बचपन का खालीपन अब उतना सताता नहीं है। अब उनमे से कोई पुरानी सहेली या दोस्त बात कर ले तो ठीक सा लगता है ,न करे तो... ऐसी भी कोई बड़ी बात नहीं लगती।क्योंकि अब समझती हूँ कि सबकी अपनी व्यस्तता और वरीयताएं भी तो हैं जैसे मेरी हैं। और जीवन भी तो कितना फैल गया है।अब बचपन और किशोर अवस्था तो नहीं कि गिने चुने लोग ही आस पास हैं। अब पारिवारिक और सामाजिक ताने बाने इतने ज्यादा हैं कि खुद के लिए भी ईमानदारी से ..कहाँ समय निकाल पाता है। कभी मिले भी तो लगता है जैसे इस समय पर मेरा नहीं मेरे अपनो का अधिकार है।
बहरहाल उसके बाद पोस्ट ग्रेजुएशन में पल्लवी, निदा, मनीषा, नवीन, अनुराग, निमिष ये सब भी मिले,जिनके नाम याद हैं और जो अब भी सोशलमीडिया से जुड़े हैं।नवीन जी तो अब हिस्सा है मेरे इस जीवन का (ये भी ईश्वर की अनोखी ही लीला थी।)
बहरहाल, सच अब यही है कि उम्र के साथ -साथ जीवन में अब वरीयताएं भी तो बदल जाती है। मित्रता के साथ कई प्यारे से, जरूरी रिश्ते जुड़ जाते हैं जीवन में। जो कभी कभी मित्र की कमी महसूस होती देख तुरंत ही घनिष्ठ मित्र की भूमिका में आ जाते हैं जैसे आपके ...जीवनसाथी। लेकिन फिर भी दोस्ती अब भी यादों में , लिखने में, जीने में बहुत अच्छी लगती है।
खैर, जीवन मे बचपन की दोस्ती से लेकर रिश्तों तक कितना कुछ महसूस करता है मन। किस्मत अच्छी हो तो इन सब छोटी-बड़ी, दोस्ती के अनुभवों की वजह से ही एक दोस्ती ऐसी भी हो जाती है जो कागज पर हूबहू अपनी गहराई के साथ कभी उतर ही नहीं सकती। वो मित्रता की भूली कहानी नहीं बनती। वे साथ-साथ जीवन भर चलती है। क्योंकि वे पनपती हैं उन सभी पिछली दोस्ती से मिली सीखों पर। एक तरह से वे सार/निचोड़ सी होती हैं जीवन मे मिली हर मित्रता का। इसलिए बेहद जरूरी भी लगती है, अपनो की तरह।आपको उम्र के किसी पड़ाव पर ऐसी सुलझी मित्रता कभी मिले तो सहेज लीजियेगा। इसी में ही बच्चों की तरह आपस मे खूब लड़ियेगा, रूठियेगा लेकिन फिर समझदारों की तरह साथ हो लीजियेगा।
आखिर में यह जरूर लिखना चाहती हूं कि शायद या यकीनन , बचपन से अब तक कि दोस्ती की ये कुछ एक दास्तानें ही है जो जीवन में, लोगों से जुड़ने के प्रति... हमारा व्यवहार /नजरिया बनाती है। इसे हमेशा उम्मीद से हरा भरा रखिये, खूबसूरत यादों से सजाते रहिये।