यादें - एक अनुभव
यादें - एक अनुभव


चाय की चुस्की लेते हुए तीसरी मंजिल पर स्थित अपने मकान की खिड़की से बाहर झांक रहा था। सामने बड़ी-सी एक सड़क पर दौड़ती हुई तेज़ रफ़्तार से गाड़ियों को गुजरते हुए देख रहा था और सोच रहा था कि उन गाड़ियों की रफ्तार जैसी हमारे जीवन की वक्त भी तेज़ रफ़्तार से घटती जा रही हैं। जिंदगी के लगभग पाँच दशक बीत चुके हैं और इस बीच किन-किन लोगों को खो चुका हूँ या भूला चुका हूँ उसका हिसाब लगाना मुश्किल होगा। उनमें कुछ अपने भी हैं और कुछ गैर भी। कुछ दोस्त हैं जिनके साथ बचपन की यादें जुड़े हुए हैं। कुछ सगे-संबंधी भी हैं जो कभी सुख में साथ निभाया तो दुख में पीछा छुड़ा लिया। अपने होकर भी कुछ पराया बन गया और कुछ बेगाने-अनजाने लोग भी अपने से ज्यादा करीब आ गए। यादों की गठरी को जब खोलने लगे तब सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आने लगे। बचपन में वो दोस्तों के साथ खेल-कूद करना या किसीके घर के पेड़ से फल चुराना और बाद में पकड़े जाने पर बड़े-बुजुर्गों से पहले डांट-डपट खाना और फिर मज़े से फल खाना वो सारी बातें अब सिर्फ यादें बनकर दिल के किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं। और जब भी अकेला रहता हूँ ठीक आज ही की तरह किसी खिड़की के पास खड़े होकर हाथ में चाय की प्याली लेकर यादों की पिटारी में से एक-एक किस्सा याद करने की कोशिश करता रहता हूँ ताकि उन बीते हुए पल को फिर से कुछ क्षण के लिए ही सही जी सकूँ।
सचमुच यादों के सिवा अब हमारे पास कुछ भी तो नहीं बाँटने के लिए। फिर क्यों न हम अपनी बीती हुई ज़िन्दगी के उन तमाम और यादें आज की पीढ़ी से साँझा करें ताकि नई पीढ़ी को हमारे जीवन से कुछ सीख हासिल हो और वो भी अगली पीढ़ी से अपनी यादों को साँझा कर खुशियाँ बाँट सकें।