Manish Kumar Singh

Abstract

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Manish Kumar Singh

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वृद्धा

वृद्धा

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महानगर काफी बड़ा और प्रगतिशील विचार वाले लोगों से भरा था। सड़कें चौड़ी थीं। उन पर शानदार गाडि़यॉ चौबीसों घंटे दौड़ती। दोनों ओर गगनचुम्‍बी इमारतों को देखकर लगता कि लोग धरती के नजदीक कम और चॉद के पास ज्‍यादा हैं। सुबह का वक्‍त था लेकिन अभी से जीवन रफ्तार पकड़ चुका था। रात में शॉपिंग कॉम्‍प्‍लेक्‍स, ऊॅची इमारतों व सड़कों पर जगमगाती लाइटों की शोभा निराली थी। संक्षेप में नागर सभ्‍यता अपनी पराकाष्‍ठा पर थी।

राजपती ने अधलेटी अवस्‍था में ही हाथ बढ़ाकर पानी का गिलास पकड़ने का प्रयास किया। इस उपक्रम में वह सफल नहीं हुई। गिलास फिसलकर भूलुंठित हो गया। जल की धारा कई भागों में विभक्‍त होकर बिस्‍तर के गद्दे,तकिए और फर्श पर बिखर गयी। प्‍यास बुझाने की चिन्‍ता से अधिक कुछ कड़वा-कसैला श्रवण करने की आशंका उसके ह्दय में भर गयी। संयोग से उधर गुजर रही बहू ने अन्‍दर झॉका। ''लोग कहेंगे कि घर में बुजुर्गो को कोई पूछता नहीं है।'' वह बड़बड़ाती हुई लौट गयी। कुछ देर बाद पानी का जग रखने आए नौकर को कमरे में किसी तीखी अप्रिय गंध का अहसास हुआ। कल शाम में कमरे की सफाई उसी ने की थी। तब ऐसी गंध नहीं थी। शायद बुढि़या ने बिस्‍तर पर पेशाब कर दिया होगा। वह बुरा सा मॅुह बनाता हुआ चला गया।

पृथ्‍वी पर जीवन के आधार सूर्य की रश्मियॉ उस कमरे में प्रवेश नहीं करती थीं1 कमरे से सटे शैफ्ट में जरुर दोपहर बारह बजे थोड़ा धॅुधला उजाला होता था। बिना कृत्रिम प्रकाश के रामरती के लिए कुछ भी करना संभव नहीं था। कई साल पहले वह बहुत सी अन्‍य स्त्रियों की तरह सूर्य को अर्ध्‍य देकर दिन की शुरुआत करती थी। एक बार उसने अपने सुपुत्र से पूछा था कि इस घर का मुख पूरब की तरफ है या नहीं। इस पर वह हॅस पड़ा। सैकड़ों फ्लैट हैं इस सोसाइटी में। क्‍या पूरब और क्‍या पश्चिम। रोशनी किसी न किसी ओर से पहुचेगी ही। अरबों वर्ष पूर्व समुद्र में जीवन की उत्‍पत्ति का कारण सूर्य इस कमरे में प्रवेश नहीं करता था। ट्यबू लाइट की रोशनी चौबीसों घंटे इसे प्रकाशमान रखती। संसार के जीवन चक्र को संचालित करने वाला सूर्य उसके कमरे से कुछ दूर बरामदे में झलक दिखलाता था।

काले केशुओं वाला उसका तरुण पोता मोहित मोबाइल को कर्ण से चिपकाए मधुर हॅसी बिखेरता घर में घूमता रहता। लेकिन घर के सदस्‍यों से बात करते वक्‍त बेहद गंभीर तथा सतर्क रहता। कई बार राजपती ने उसे अपनी बहन से तेज स्‍वर में बहस करते सुना। दोनों लगभग हमउम्र थे। इस तरह के संवाद को वे अरगुमेंट कहते थे। वैसे उनके मध्‍य कोई खास बातचीत अथवा भाईचारा नहीं था। राजपती को अच्‍छी तरह याद है कि जब वह बचपन में अपने साल भर छोटे भाई से खिलौने को लेकर लड़ती थी तो मॉ किस तरह मीठी झिड़की को देकर उनके पारस्‍परिक सम्‍बन्‍ध के बारे में बताया करती थी। एक दिन तेरी बहन अपने घर चली जाएगी फिर उससे न जाने कब मुलाकात होगी। भाई कुछ भी समझ नहीं पाता। क्‍या यह घर उसकी बहन का नहीं है? उससे मॉ कहती थी कि इतना तेवर दिखाएगी तो ससुराल में दिक्‍कत होगी। अभी ससुराल की नौबत दूर थी इसलिए उसे इसकी परवाह नहीं थी। वह किसी के यहॉ से मिलने वाली मिठाई को भाई के लिए बचाकर लाती।

आज उसका अपना खून कई दिनों तक उससे बात नहीं करता था। वैसे संवादहीनता की स्थिति उसी की समस्‍या नहीं थी। यह औरों के साथ भी था। यह अलग बात थी कि उनके लिए यह कोई बड़ी समस्‍या नहीं थी। उनके पास करने एवं व्‍यस्‍त रहने के लिए कई महत्‍वपूर्ण बातें थी। वह चॅूकि बेकार थी इसलिए उसे दिन और रात भूत की तरह भयावह लगते। पति जब जीवित थे तो एक बार मंसूबे बॉध कर तीर्थयात्रा को निकली। बेटा-बहू बड़े उदार थे। पैसों का रोना नहीं रोया। इंतजाम करवा दिया। परंतु गए वे अकेले ही। बेटे को साथ चलने को कहा तो वह बोला-मुझे साथ ले जाना है तो आप लोगों को पता नहीं कब तक इंतजार करना पड़ेगा। इस कूटनीतिक उत्‍तर के समक्ष निरुपाय उसके पिता ने कहा,''बेटा तब तक शायद हम न रहे। फिक्र न करो। हम खुद चले जाएगें।'' यह राजपती के जीवन के कुछ आखिरी सुखद पल थे। पति के देहावसान के बाद वह अकेली होती गयी। बहुमूत्र रोग से पीडि़त थी। जिस नन्‍हे पोते का अबोध मुख चूमते वह बलाऍ लेती थी वह अपने अलग सुरुचिपूर्ण कमरे में रहता और दादी की सुध तक न लेता। चर्चाओं में पुराना वक्‍त अच्‍छा लगता है। अकेले उन्‍हें याद करना यातनामय होता है।

पोती अपने जीवन का रुचिकर भाष्‍य कॉलेज-जीवन,मित्रगण इत्‍यादि में तैयार कर ही थी। उसे बोर लोगों से सख्‍त अरुचि थी। घर के सदस्‍यों को दिन में कई द्दश्‍य और हालात से गुजरना था। उन्‍हें इसमें अपनी भूमिका,संवाद,शरीर-भाषा और भाव-भंगिमाऍ बखूबी मालूम थीं। निरंतर मौन होती राजपती ने कतिपय अवसरों पर घर में यह प्रश्‍न किया था कि उसे अपने कस्‍बे भेज दिया जाए जहॉ वह ब्‍याह कर आयी थी तथा शुरु के डेढ़ दशक बिताए। ''आपको यहॉ क्‍या तकलीफ है?''‍ बेटे का चेहरा उसे नितांत अपरिचित दिख रहा था। ''किस चीज की कमी है?'' यह बात वाईक सही थी। तथ्‍यात्‍मक द्दष्टि से बेटा शत प्रतिशत सही था। इस इलाके में इतना बड़ा फ्लैट किसके पास होगा। घर में ऊॅचा फ्रिज,एल.सी.डी.टी.वी.,शानदार फर्नीचर,आरामदायक पलंग,सब कुछ तो थे। प्‍यास लगने पर पीने के लिए ठंड़ा पानी से लेकर सुपाच्‍य भोजन नौकर समय पर बना देता था। आमतौर पर ससुराल को सास विहीन देखने की इच्‍छुक बहू भी उसकी बात से प्रसन्‍न नहीं हुई। सब सोचेंगे कि हम बूढ़ी औरत को सताते थे इसलिए वह भाग गयी। अपनी ही बदनामी होगी। 

एकाध बार बेटे के बुद्धिजीवी सहयोगियों की मण्‍डली जमती। परिष्‍कृत अभिरुचि के धनी एवं अपने उच्‍च स्‍तर के प्रति नितांत जागरुक गण बुद्धि विलास करते। ''माई फ्रेडस् गर्वनमेंट इन अरबन इंटेलैक्‍चुअलस् को टैकल करना जाती है जो बड़े एडवांस अरगुमेटस् रखते हैं बट टेक नो पॉलिटिकल स्‍टेप।'' बेटा ड्रिंक के साथ सिगरेट का सेवन कर रहा था। बात राजनीति के साथ संगीत तक पहॅुची। एक बेहद जानकार सहयोगी ने कहा कि सूफियाना संगीत के सिवा इस देश में किसी भी चीज को सुनना बेकार है। बात का रुख एक सुधी जन ने सामाजिक सरोकार की ओर कर दिया। ''मैं पिछले दिनों सोशल इकोनोमिक्‍स पढ़ रहा था। हमारे देश में ही ऐसा कमाल हो सकता है। यू नो यहॉ पूअर कितने हैं यह किसी को पक्‍का नहीं पता। न ही पूअर फैमिली की डिफिनिशन ही तय है। हमारा मुल्‍क क्‍या खाक तरक्‍की करेगा।'' फिर बेटे ने कुछ वर्ष पूर्व सपत्निक सम्‍पन्‍न की गयी अपनी जोशीमठ यात्रा का उल्‍लेख किया। कैसे वह रफ एण्‍ड टफ ट्रैवेरा में घूमा। यहॉ एक रिश्‍तेदार के यहॉ गया था। मित्रों ने बात का सिरा थामकर ट्रैकिंक के बारे में बताना शुरु किया। राजपती भी वार्तालाप में हिस्‍सा लेना चाहती थी। वह बताना चाहती थी कि वह भी बरसों पहले अपने पति के साथ वहॉ-वहॉ भी गयी थी जहॉ गाड़ी का पहिया नहीं जा सकता। ऐसी ट्रैकिंक आज भी कौन करता होगा। 

बिल्‍कुल शुरु में राजपती की कद्र थी। यह तब की बात है जब पोते-पोती छोटे थे एवं उनको सॅभालने के लिए नौकरी पेशा अभिभावक को उसकी जरुरत थी। अपना हिन्‍दुस्‍तान इस मामले में औरों से अच्‍छा है। घर में कोई बुजुर्ग खाली मिल जाता है जो इन सब कामों को बोझ समझकर नहीं बल्कि खुशी से करता है। साथ ही बच्‍चे अपने कल्‍चर में पल जाते हैं। फिर इस घर में न जाने क्‍या हुआ। सब एक दूसरे से दूर होते गए। दिन भर राजपती अकेली रहती। नौकर दो वक्‍त आकर अपना काम निपटा कर चला जाता। कभी कोई कुरियर वाला आता तो वह घंटी सुनकर अपने कमरे से निकल पड़ती। पर जब तक मुख्‍य द्धार तक पहुचती, नौकर पैकेट लेकर दरवाजा अच्‍छी तरह बन्‍द कर चुका होता। कुछ दफा तो पोस्‍टमैन दरवाजे के नीचे से लिफाफा सरका देता। दरवाजा खोलने की जरुरत नहीं पड़ती। फ्लैट इतने शानदार स्‍थान पर था कि यहॉ कोई बाहर निकल कर दरवाजा,बारजा या सड़क के किनारे रुककर किसी से बात नहीं करता था। पुराने जमाने के चबूतरे,पेड़ का साया आदि गपबाजी के केन्‍द्र स्‍वप्‍न में भी नहीं थे। सड़क पर और सुरुचिपूर्ण तरीके से बने पार्क में लोग बढि़या नस्‍ल के कुत्‍ते की जंजीर थामे तेज कदमों से स्‍वास्‍थ्‍य के लिए चहलकदमी करते। कोई किसी से बात नहीं करता लेकिन कभी-कभार किसी चेहरे से दूसरा चेहरा गुड मार्निग अथवा गुड इवनिंग या हाय कहकर बिना रुके आगे बढ़ जाता। शायद वे उनके दफ्तर के सहयोगी या उनके क्‍लब के मित्र होंगे। सड़क के दोनों किनारों पर नयी से नयी मॉडल की गाडि़यॉ खड़ी रहतीं। घरों और बिल्डिंग में इतनी जगह नहीं थी कि उनके बांशिंदो के वाहन खड़े हो सके। इन सम्‍पन्‍न जनों के पास समय का सर्वथा अभाव था।

एक दिन जब राजपती के अलावा परिवार का कोई सदस्‍य नहीं था तो वह अकेले घर से बाहर निकली। लिफ्ट से होकर नीचे उतरी और समीप के पार्क में चली गयी। वहॉ ढ़ेर सारे बच्‍चे,स्‍त्री-पुरुष,हर वय के लोग पक्षियों की भॉति कलरव कर रहे थे। वह संकोचग्रस्‍त कुछ पल अपनी जगह खड़ी रही। फिर अनायास आगे बढ़ी। एक जगह कुछ लोग योगाभ्‍यास कर रहे थे। एक स्‍त्री ने उसे देखकर हाथ से संकेत करके आत्‍मीय स्‍वर में पुकारा। ''आओ बहन हमारे साथ शामिल हो जाओ।'' वह कदम आगे बढ़ाने लगी। सिखाने वाली एक महिला थी। एक दिन में राजपती भला क्‍या सीख पाती लेकिन जीवन में उसे एक भिन्‍न अनुभव मिला। उस रोज जब उसने अपने पलंग और कुर्सी को देखा तो लगा कि वहॉ वह लेटी और बैठी कूड़े के ढ़ेर जैसी दिखती होगी।

वह योग प्रशिक्षण में रोजाना भाग लेने लगी। श्‍वासों के नियंत्रण से उसे कितना लाभ मिला इसका आकलन उसने नहीं किया। परंतु वहॉ लोगों से बातचीत करके वह स्‍वयं को जीवित मानने लगी। ''बहनजी आप मेरे घर आइए।'' एक अधेड़ उम्र की महिला ने उसे आमंत्रित किया। ''मैं इधर पास में ही रहती हॅू।'' दूसरे दिन एक औरत सभी के लिए मिठाई लेकर आयी। ''मेरा पोता हुआ है।'' अनजान लोग एक दूसरे से बात करते और सुख-दुख बॉटने के स्‍तर तक चले आते। ओस से आर्द्र गुणकारी तृण अपने ऊपर नंगे पॉव चलने वालों और देखने वालों को समान रुप से शीतलता प्रदान करते थे।

उस दिन न जाने क्‍या हुआ कि राजपती अकेली होने के बावजूद घर का दरवाजा खोलने चली गयी। इस हिदायत को दरकिनार करती हुई कि शहर में बुजुर्ग सुरक्षित नहीं है। उसे शायद लगा होगा कि योग क्‍लास की कोई महिला मिलने आयी है। बैठकर बातें करेंगे। अपराधियों ने बिना प्रतिरोध के अन्‍दर प्रवेश किया। वे भी बुढि़या के मुख पर दशहत के चिन्‍हृ की बजाए मैत्रीपूर्ण मुस्‍कान देखकर हैरान थे। ऑखें ऐसे बोल रही थीं मानों उन्‍हें बैठने और चाय-पानी लेने को कहा जा रहा हो। आखिर घर में किसी मनुष्‍य को आए काफी समय बीत चुका था।

वारदात के बाद जब नौकर ने पुलिस को सूचना दी तो उन्‍हें मुख्‍य द्वार पर प्रतिरोध का कोई चिन्‍हृ नहीं मिला। पड़ोसियों ने भी बताया कि उन्‍होंने माताजी के चिल्‍लाने की आवाज नहीं सुनी थी। पेशोपेश में पड़े पुलिसकर्मी अपराधियों का छोड़ा कोई प्रमाण ढॅूढ़ने में लगे थे। मीडिया से रुबरु वरिष्‍ठ अधिकारी ने सांख्यिकीय आधार पर यह बताया कि मृत्‍यु से पूर्व प्रतिरोध करने वाले बुजुर्गो के यहॉ सबूत मिलने की संभावना अधिक होती है। अनुभवी अधिकारी को ज्ञात था कि जनसंकुल समाज मानव एकाकीपन के आदिम भय से ग्रस्‍त है।

पूरा फ्लैट अस्‍त-व्‍यस्‍त था। शीघ्र धनी बनने के आकांक्षी लोगों ने न जाने कौन सा कुबेर का खजाना तलाशने का प्रयास किया था। यह कहना गलत होगा कि परिजनों को राजपती की मौत का दुख नहीं हुआ। पास-पड़ोस के कभी न मिलने-जुलने वाले लोगों के संवेदन तंतुओं को भी इस घटना ने प्रकंपित कर दिया था। बहू तो सुबक रही थी। घर की ऐसी अवस्‍था देखकर बेटा बेहद घबराया। अब यदि वह भी रोने-धोने लगता तो हालात कौन सॅभालता। राजपती को दाह-संस्‍कार विवेकी संतान ने पर्यायवरण-हितैषी पद्धति से करने का निश्‍चय किया। अपनी आय का निवेश एवं पुर्ननिवेश उसने बुद्धिमत्‍तापूर्वक किया था। इसलिए अपराधियों के हाथ कुछ खास नकदी-गहने नहीं लगे। संगिनी भी उसी की भॉति दूरदर्शी थी। आभूषण बैंक के लॉकर में सुरक्षित रखे थे। शवदाह के पश्‍चात् उत्‍तरकार्य में भी बेटे-बहू ने नितांत आधुनिक द्दष्टिकोण का परिचय दिया। तेरह दिन के कार्यक्रम को तीन दिवस में सम्‍पन्‍न कर दिया। उन्‍हें पता था कि मृत्‍युपरांत इंसान अपने परिजनों की पुकार को नहीं सुन सकता है और न ही उसके नाम पर दिया कोई दान स्‍वीकार करने की स्थिति में होता है। गैर मामलों में सामान्‍यत: कौतुहलप्रिय और जिज्ञासु जनमानस धीरे-धीरे अपने काम में व्‍यस्‍त हो गया।

सु‍रुचिपूर्ण बेटे ने सपत्निक यह निर्णय लिया कि मॉ का फ्रेम जडि़त ड्राइंगरुम में लगाया जाएगा। आखिरकार अब राजपती अपने अंधेरे कमरे से बाहर आ गयी थी।   


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