Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama

5.0  

Aprajita 'Ajitesh' Jaggi

Drama

वो दिन भी क्या दिन थे

वो दिन भी क्या दिन थे

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"पापा स्वीमिंग पूल का पानी बहुत ठंडा है, मुझे नहीं करनी स्वीमिंग।" पुलक मुंह फुला कर बोली। 

"ठीक है मत करो, क्या करना है हमारी राजकुमारी को।" मैंने हँस कर पूछा। 

"मुझे नहीं पता, मैं बहुत बोर हो रही हूँ, आप बताओ न।" उसने अपनी गोल गोल आँखें मुझ पर टिका दी। 

उसकी बोरियत की शिकायत सुन मुझे हँसी आने वाली थी, बस पांच साल की ही है। 

फिर सामने अपने बचपन के दिन तैर आये, ऑंखें गीली सी हो गयी। "आप रो क्यों रहे हो पापा ?" पुलक ने अचरज से पूछा। 

"अरे कुछ नहीं, एक्टिंग कर रहे हैं ताकि तुम बोर न हो।" ये कह मैं पुलक के साथ वापस अपने फ्लैट पर आ गया। 

 मैंने टीवी चलाया और पुलक को ओसवाल्ड के भरोसे छोड़ खुद बालकोनी में आ पुराने दिनों की याद में गुम हो गया। पंद्रह साल की उम्र तक मैं गाँव में ही रहा था। दादा दादी माँ और बहन के साथ। पिताजी शहर में नौकरी करते थे। महीने दो महीने में एक बार आते थे वो भी बस एक-दो दिन के लिए।  

तब तक बोर होना किसे कहते हैं ये मुझे पता ही नहीं था। गांव के बाकी लड़कों के साथ मस्ती में पूरा दिन कब गुजरता था पता ही नहीं चलता था। सुबह छह बजे दादी हमारी रजाई खींच मुझे उठा देती थी। हाथ में जबरदस्ती किताब भी पकड़ा देती थी। मेरी आँखें नींद से बोझिल, सो पूरा समय बस आँखें खुली रखने के प्रयास में ही बीतता था। 

एक घंटे पढ़ने के बाद अगला एक घंटा स्कूल के लिए तैयार होने में लगता था।  आठ बजे मैं स्कूल के लिए चल देता था। साथ में होते थे पांच छह दोस्त। स्कूल अगले गाँव में था। सो वहां तक पैदल जाने में लगभग डेढ़ -दो घंटे लग जाते थे। 

१० बजे स्कूल शुरू होता था। कभी कभी रस्ते में हमें कोई अमरुद या इमली का पेड़ ललचा देता था तो हम देर से स्कूल पहुँचते। फिर तो अगले एक घंटे जब तक पूरी प्रार्थना ख़त्म नहीं हो जाती थी मुर्गा बन कर काटना पड़ता था। उस समय सच मानिये मन में दृढ़ निश्चय कर लेता था की आज के बाद कभी स्कूल देर से नहीं आऊंगा पर कुछ दिन बाद फिर बंदरों का झुण्ड या खेत में लगे गन्ने मेरे और मेरे दोस्तों के इस दृढ़ निश्चय को मटियामेट कर देते थे। 

स्कूल में तो बोर होने का सवाल ही नहीं था। पढ़ने और शैतानी करने में वक्त झट से बीत जाता था। तीन बजे छुट्टी होती थी तो हम सब घर की तरफ निश्चिंतता से चल पड़ते थे। जो रास्ता सुबह डेढ़ -दो घंटे में तय हो जाता था, वही अब तीन चार घंटे ले लेता था। रोज ही देर से घर पहुँचने पर हम सब डांट खाते। पर घरवालों को डांटने और हमें डांट खाने की आदत हो गयी थी। हम सब जानते थे की सात बजे से पहले कभी भी पहुंचें तो घर वाले चिंतित नहीं होंगे। सात बजे से ज्यादा समय हो जाने पर ही घरवाले चिंतित मुद्रा बनाते थे। 

अब ये जो डेढ़ -दो घंटे ज्यादा लग जाते थे वो ज्यादातर रास्ते में पड़ने वाली नदी पर ही बीतते थे। ऊपर पहाड़ से ग्लेशियर से पिघला पानी नदी बन कर नीचे बहता था। ठंडा तो ऐसा की हाथ पाँव अंदर डालते ही सुन्न से हो जाते थे। शुरू शुरू में ठंडा पानी तीखी सुइयों सी चुभन देता था। पर कुछ देर बाद सब ठीक हो जाता था और फिर हम एक दूसरे पर पानी डाल डाल खूब मजे करते थे। वहीं नदी के किनारे कोई न कोई जंगली फल भी मिल जाता था। सो हम वो भी खूब खाते। ये आंवला जो शहर में खरीदना पड़ता है वहां तो इसका पूरा जंगल सा ही था। घर से अखबार में काले नमक की पुड़िया लाते और नमक लगा लगा कर एक आवलें को चाट चाट कर खाने में ही एक घंटा उड़ जाता था। 

नदी में खेलते खेलते हम अपने हाथों से ही मछली भी पकड़ने की कोशिश करते। पकड़ कर कुछ देर अपने कारनामे पर गर्वित होते और फिर मछली को वापस पानी में छोड़ देते। शायद मछलियां भी ये जानती थीं इसीलिए हमारे आस पास ही बेखौफ तैरती रहती। 

एक बार दोस्त को नदी में खेलते हुए एक सांप ने काट दिया था। हम तो घबरा गए। घरवाले हमें तब तक डांटते रहे जब तक वैद्य जी ने सांप के जहरीले न होने की पुष्टि नहीं की। उसके बाद तो हम दोस्त भी कुछ दिन नदी में उतरते हुए चौकन्ने रहे। पर जब कभी बेल तो कभी किसी टहनी को सांप समझ हम सभी अपनी खिल्ली उड़वाने लगे तो धीरे धीरे हम सबने सांप का ख्याल मन से निकाल ही लिया। 

मैं शायद अभी बचपन की यादों में ही उलझा रहता पर ओसवाल्ड ख़त्म हो गया है। पुलक फिर से मेरे पास आ गयी है। अब मुझे फिर कुछ सोचना है उसकी बोरियत मिटाने के लिए। 

क्या करें ये शहर होते ही ऐसे हैं, न नदी, न मछलियां, न अमरुद के पेड़, न गन्ने के खेत और न वो दोस्त, बस बोरियत से भरे। 


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