वो आखिरी शाम
वो आखिरी शाम
मई की गर्मियों के वो दिन और उन्हीं दिनों के आखिर में होने वाली वो शाम, जब मैं तुम्हारे पास तो था पर उस शाम की तरह वो मुलाक़ात भी आखिरी थी तुमसे।
तुम समाज के कुछ रिवाजों को निभा कर जाने की तैयारी में थे और मैं खुद को तुमसे करीब रखकर भी दूर होने की तयारी में।
उस वक्त कोई मेरा हाल पूँछता तो शायद ही मैं ये कहता की- मैं ठीक हूँ।
हालाँकि, वक्त अपने हिसाब से चल रहा था, तुम्हारे सारे करीबी तुम्हें सजने-सँवरने में मदद कर रहे थे, पर तुम्हारे आँसू अब भी बेफिक्र बहे जा रहे थे।
किसी से जुदा होने वाला वो वक्त, तब भी जब आप दोनों अंतिम दिन भी साथ थे, बस जमाने की वजह से एक दूजे को दूर होता देख कर बर्दाश्त भी कर रहे थे।
कम्बख्त, उस वक्त आपके भीतर जो सैलाब आता है न, उसके लिए ये आँसू भी कम पड़ जाते हैं।
तब आपको इन आँसुओं की एहमियत का पता चलता है। जब आपके पास बहाने के लिए आँसू तक खत्म हो जाते हैं, पर दुःख ख़तम नही होते।
हम बहुत दिनों तक साथ रहे, दुःख सुख हँसी- ख़ुशी सब बर्दाश्त किये। लेकिन जीवन के सबसे गम वाले पलों में हम एक दूजे के आँसू तक न पोंछ सके।
वो शख्स भी रोता हुआ चला गया, अपने सारे कर्त्तव्य निभाते हुए-मेरे भी आँसू अपनी रफ़्तार खो चुके थे।
उसे जाते हुए देखने की हिम्मत नहीं थी इसीलिए उसे देखकर पीछे घूम गया था-
कुछ दूर निकल जाने के बाद मैं हिम्मत करके करीब गया और उसके वो अंतिम शब्द जो मुझे आज भी बेचैन कर देते हैं, मेरे कानों में गूंजते रहते हैं- रोना मत अपना ख्याल रखना।