अहिंसा परमो धर्म:
अहिंसा परमो धर्म:
बचपन से हम हर जगह, हर किताब पर एक बात जरूर पढ़ते आ रहे हैं-- "अहिंसा परमो धर्म:"
न जाने कितने महान व्यक्तित्व ने हमें इस विषय में बहुत कुछ बताया और सिखाया भी।
पर जमाना अब थोड़ा सा बदल गया है या यूँ कहें कि बहुत ही बदल गया है।
जिस तरह से हमारे समाज में लोग बढ़ते जा रहे हैं, उसी प्रकार निर्दयता और पाप भी बढ़ता चला जा रहा है। लोग जानबूझकर या बेरोजगारी की खुन्नस में एक दूजे को ही मार-काट और लूट रहे हैं।
शायद ये आधुनिकता मानवता को अपना आहार बना रही है।
रोजाना सुबह से शाम तक हम कई हिंसात्मक कार्य होते देखते हैं। पर मजाल है कि कोई गलत होते देखकर भी गलत को गलत कहे।
हिंसा का जन्म तब होता है जब हम किसी पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि हमें लगने लगता है की इसके बिना तो हमारा कोई काम हो ही नहीं सकता।
थिएटर में टिकट लेते हुए, सड़क पर चलते हुए एक गरीब का किसी रईसजादे को धक्का लग जाना, भिखारी का मंदिर की दान पेटी से चंद पैसे निकाल लेना, चाहे वो किसी को दिया हुआ उधार हो या जमीन-जायदाद का मुद्दा।
हिंसा के ऐसे हजारों कारण हैं।
वास्तविकता ये है की हम स्वार्थपरता में इतने अंधे हो जाते हैं की हमारी आँखों में सिर्फ स्वार्थता वाली फिल्म चलती है, जिसके आगे न रिश्ते दिखाई देते है, न कुछ और।
हिंसा हमेशा शुरू किसी एक से होकर, किसी ऐसे व्यक्ति पर होती है जिसका कोई दोष नहीं होता।
अब के जमाने में बात तब और बढ़ जाती है जब 18 साल का बेटा अपने 50 साल के पिता से प्रश्न करता है कि आपने जीवन में किया क्या है??
उस वक्त शायद पिता हिंसात्मक न हो लेकिन जब वही बेटा 18 से 28 की उम्र में पहुँचता है तब बात बिगड़ जाती है।
दरअसल अब के लोग बहुत व्यस्त हो चुके हैं, उन्हें अब किसी और काम की फुर्सत ही नहीं।
दिन भर की रोजमर्रा से थका हुआ आदमी घर आया तो वहाँ सास-बहु के झगडे को बर्दाश्त करे।
अब ये आदमी घर पर तो कुछ कर नहीं सकता, इसीलिए वो गली के कुत्ते पर भी गुस्सा निकलता है।
तो ऐसी बहुत सी बातें और चीजें है जो हिंसा को जनम देती है।
मुझे तो डर है की आने वाली पीढ़ी इस शीर्षक को बदल कर "हिंसा परमो धर्म:" न कर दे।
तब तक के लिए सही यही होगा की हम थोड़ा सा नजरअंदाज करना सीख ले।
वो बातें जिनसे हमें बुरा लगता है। शायद नजरअंदाज करने से बहुत सी चीजें भी सुधर सकती है।
