वजूद

वजूद

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यूँ तो आपने देखा होगा कि दुनिया कितनी बड़ी है, ठीक उस समन्दर की तरह जिसे आकना नामुमकिन सा है। जिस किसी ने भी उस गहराई को मापना चाहा, उस गहराई में उतरता चला गया। भूख की तड़प भूखा व्यक्ति और प्यासा, तृप्ति की अग्नि को समझता है, अन्यथा ज़िन्दगी इतनी आसान भी नहीं है जितना व्यक्ति उसे समझता है। सागर की बहुत सी लेहरें हिलोरे बन कर उसके मन को उद्वेलित करती हैं, फिर खुद दिमाग उसके उड़ते हुए मन के पंख को काट देता है। 

उड़ने के लिये खुला आसमान है मगर साथी कोई नहीं। सफर के लिये पूरी दुनिया है लेकिन हमसफर कोई नहीं। सुबह से शाम होती है और रात से सुबह। दिन तो फिर भी कट जाता है और अकेली सूनी बचती है वो रात, जहां अंधेरा ही अंधेरा होता है। रात का आखिरी पहर ऐसे ढलता जा रहा है, जैसे हाथ से रेत। आँखों से नींद कोसों दूर हो चुकी है जो अब बुलाने से भी नहीं आती। दिन का उजाला हो या रात का अंधेरा , हर पल मैं तन्हा हूँ। अब तो तन्हाई ही शायद मेरी साथी बन गई है। कभी महसूस करना कि दुनिया इतनी बड़ी है, तुम भीड़ में बैठो और फिर भी तन्हाई आपसे बात करती हो। लोग तुमसे बातें करें लेकिन तुम्हारा अकेलापन खाये जा रहा हो। बैठे-बैठे अचानक खो जाना, जहां महफ़िल में बैठो, वहां न रह पाना, यादों के काफिले में घिर जाना, तन्हाई से बातें करना ही अब हिस्सा है उसके जीवन का।

बचपन में जब सहेलियां मुझे खेल-खेल में चिढ़ाती थी कि "एक कुँवारी लड़की फंस गई बेचारी, आया ब्याहने सालोंना राजकुमार जाऊँ मैं बलिहारी" तो मैं दौड़ते हुए घर आती और अम्मा से गले लग कर बोलती, तब अम्मा मुझे पुचकारती और कहती मेरी बेटी है ही सादगी से पूर्ण खूबसूरत बाला जिसके लिये राजकुमार जैसा जीवन साथी ढूँढूंगी। बुआ भी कह पड़ती कि मेरी गुड़िया के लिये सूरज सा दुल्हा आयेगा और ले जायेगा चाँद जैसी राजकुमारी को अपने सपनों के महल में, तब ये सब कलमुहईयां जल कर राख हो जायेंगी। इतना कहते ही उसके आँखों की जो गंगा धारा बह रही थी वो बंद हो जाती और वह फिर से अपनी उन्हीं सहेलियों के बीच जाकर पट्टा पारने लगती

सुनो सहेली 

अपना साथी ढूंढ़ लो .........

ददिहाल हो या ननिहाल या फिर आंगन का वही पुराना अमरूद की डाल पर पड़ा हुआ झूला, जहां बैठ कर सुबह से शाम कब होती थी, पता भी नहीं चलता था। कैसे थे वह दिन, जहां गम पल भर में छू : मंतर हो जाते थे, आज ज़िन्दगी की गाड़ी किस स्टेशन पर रुकेगी पता ही नहीं है। वह तो अपने सपनों में राजकुमारी की तरह सोयी थी और जब आँख खुली तो हकीकत कुछ और थी। परिवारिक रिश्तों में उलझी निशा गम के बादलों के छटने का इंतेजार करते हुए आईने के सामने खड़ी होकर अपने वजूद की तलाश करती।

कभी-कभी वक़्त इतना बेरंग हो जाता है कि समझ नहीं आता कि आखिर मेरा गुनाह क्या है ? यह दिल भी कितना जालिम है, कैसा-कैसा हर वक़्त उकसाता है कि निशा तू खुश न हो, अपने को खुशकिस्मत न समझ। दिमाग चार कदम आगे निकलकर कहता है, निशा ! एक बार सिर्फ अपने तजुर्बे की खातिर, प्रत्येक रिश्ते की बागडोर छोड़ आगे बढों क्योंकि हर पीली चीज सोना नहीं होती और कसौटी पर खरा उतरना ज़िन्दगी की रीत है, तो फिर अपने खोखले रिश्तों से आगे बढ़ खुद को परखो। शायद मंजिल करीब हो। 

निशा ने निर्णय लिया कि सिर्फ और सिर्फ अपने लिये जीकर देखूँ -बिना किसी नाम, बिना किसी सहारे, बिना किसी लगाव, बिना किसी इकरार के - ये सब सम्भव कहाँ था। निशा के लिये - दीन, धर्म, दया, दान, बलिदान की हद निशा के घर की चार दिवारी तक रखके देखूँ - अपने वजूद के लिये खुली हवा में सांस लेकर देखूँ ! देखूँ आखिर ये तजुर्बा कैसा है, ज़रा इसका भी एहसास करके देखूँ और फिर उस हकिकत से सामना हुआ जिसका नाम ही था - राज

"निशा ...!" जोर से आवाज आयी। राज की  आवाज सुनकर वह चौक पड़ी, गुस्से वाली लाल आँखों और बिखरे बालों के रूप में राज खड़ा था। जालीदार कुर्ता और रंगीन छींटदार पैंट में जैकेट के साथ अपनी चार पहिया गाड़ी में राज बैठा था। बगल की सीट पर निशा लाल और काले छींटदार कपड़े में सर पर धूप का चश्मा रखे लम्बी सैर पर निकले थे। निशा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था क्योंकि दोनों पेहली बार लांग ड्राइव पर जा रहे थे। अचानक से राज निशा पर चीख पड़ा और उसकी गर्दन को अपने हाथ से दबाया| खुले आसमान और ज़मीन के बीच कार में सवार निशा हदस गई और खुश होने के बावजूद दुख के बादल उमड़ने लगे, उसकी एक बार भी हिम्मत ना हुई कि वो राज को गले लगा ले। खुशियों के फूल उसके रिश्ते के रास्ते से गायब हो चुके थे। फूल उसके ख्याल से वो खुशनुमा खिला एहसास है, जिसकी महक दो जवां धड़कते दिलों की कहानी बयां करते हैं।

फिर राज ने कहा - " क्या बात है ? हम शहर से इतनी दूर निकल आयें हैं।" तुमने अपनी पसंदीदा जगह यानि मेरे कन्धे पर एक बार भी अपना सर नहीं रखा आज ? निशा के सर पर हाथ फेरते हुए वह बोला !

निशा ने कहा - "बस यूँ ही .....! कुछ याद आ गया। आपके साथ बिताया हुआ पुराना वक़्त आज भी उसी तरह ताजा है। मधुर संगीत सुनते हुए निशा ने गर्दन थोड़ी सी पीछे करके राज के चेहरे को अपनेपन के एहसास से ताका लेकिन राज ड्राईविंग सीट पर बैठा था इसलिए शायाद न समझ पाया हो, उस अपनेपन को या फिर ये भी हो सकता है कि उसका पूरा ध्यान कार चलाने पर हो 

"सर रख लो मेरे कन्धे पर" राज ने मुस्कराते हुए कहा ! मानो निशा के मन की बात राज ने कह दी हो। चेहरे पर ख़ुशी और प्रेम के भाव की धारा निशा के मुख पर बह रही थी।निशा हाथों में हाथ डालकर अपने चेहरे से बालों को संवारती हुई राज के साथ संगीत का आनन्द लेते हुए बोली। 

"सुनिए...आपको कौन सा गाना पसंद है।"

राज ने कहा ......मैं तो कुछ भी सुन लेता हूँ। हाँ ! लेकिन कितनी हसरत है हमें तुमसे दिल लगाने की ...ये गाना ज़रूर सुना दो। फिर जो तुम्हें अच्छा लगे बजाअो। अब नरम संगीत, खुशनुमा सर्द मौसम और राज का साथ निशा की ज़िन्दगी बदल रहे थे।

निशा बोल पड़ी - "मेरी तो सुबह भी फिल्मी गानों से होती है और रात का पहला पहर भी गानों के बीच ही बीतता है। आखिर ज़िन्दगी के सफर में अकेली जो ठहरी।" खैर छोड़िये.....आप बताईये आपको कैसा लग रहा है।

  राज ने कहा - मत पूछो ! तुम्हें बुरा लगेगा। क्यों ....निशा ने पूछा, ऐसा क्या कहने जा रहे हैं जो मुझे बुरा लगेगा। अरे ! तुम्हें नहीं मालूम, मुझे हंसी आती है कि तुम जो कहती हो वो कभी नहीं करती हो। तुम्हारे कहने और करने में ज़मीन और आसमान जितना अंतर होता है। 

बुरा मान गई क्या .....इसलिये मैं नहीं बता रहा था। निशा ने कहा ....नहीं बुरा किस बात का मानु ! मेरी वास्तविकता से ही तो मेरा मिलान कर रहे हैं। गाने बजते गए, गाड़ी चलती गई ...आनन्द ही आनन्द अचानक से एक ट्रक और एक गाड़ी हमारी दायें और बायें आ गए, ट्रक पास नहीं दे रहा था और पीछे की दूसरी गाड़ी ने होर्न बजाकर दिमाग खराब कर रखा था। बस किसी तरह मौका मिले और वो आगे हो जाये। ज़िन्दगी की रेस हो गाड़ी की, कोई आगे तो कोई पीछे होगा ही। मौका मिल गया और उसको पास दिया गया लेकिन ट्रक अभी भी आगे चल रही थी और अचानक से निशा और राज का दिल बैठ गया। ऊपरवाले को धन्यवाद देते हुए राज ने कहा .....बच गए क्योंकि जानती हो निशा आगे डिवाइडर था और अट्रेंडम ब्रेक से दोनों की जान बच गई। नहीं तो हम और हमारा प्यार इस घटना से हमेशा के लिये खत्म हो जाते। कहते है जान है तो जहान है। शाम के 6 बज रहे थे और सर्द मौसम की वजह से काफी अंधेरा था हाइवे पर, कहीं पर भी रोड लाइट की रोशनी भी नहीं थी। सिर्फ कार हेड लाइट का सहारा था, आजकल की ड्राईविंग का क्या कहना ! लोग डीप्पर देखकर निश्चित हो जाते हैं लेकिन थोड़ा आराम से गाड़ी नहीं चलाएँगे। अब ज़माना कहाँ रह गया कि किसी की जान जाये तो जाये, उन्हें क्या। इस घटना से दोनों सहम गए थे।

निशा और राज ऊपरवाले का शुक्रिया अदा करके आगे बढ़े। थोड़ा परेशान होने के बाद, अब दोनों शाम की चाय का लुफ्त लेना चाहते थे। महिला के साथ चौराहे पर चाय पीना मुमकिन नहीं था तो कोई अच्छे ढ़ाबा की तालाश में था - राज। चलते- चलते एक ढाबा मिला जिसका नाम था - सरकार ढाबा, जहां दोनों ने थोड़ा आरामनुमा हसीन पल बिताया और कॉफी का ऑर्डर दिया।

वेटर कॉफी लेकर आया। थकान के बाद कॉफी की चुश्कियों का क्या कहना और वो भी तब, जब आपका हमसफर साथ में सामने की सीट पर बैठा हो। आँखों से आँखें चार हो रही हो, बिन कुछ कहे इशारों में बात हो रही हो। बस निशा को लगा ज़िन्दगी वहीं ठहर जाये। कोई उसके इस प्यार भरे लम्हें में बाधा न उत्पन्न कर दे, लेकिन समय का पहिया बड़ा प्रबल होता है न कभी ठहरा है और न ठहरेगा। वो तो बस आगे ही बढ़ते जाना है। हुआ भी कुछ ऐसा ही- राज ने कहा निशा मुझे किसी जरूरी काम से 6 बजे वापस शहर पहुँचना है, इसलिये अब ज्यादा देर हम नहीं ठहर सकते। जल्दी कॉफी पियो और चलो, दोनों ने कॉफी पिया। राज ने वेटर को बुलाया और कॉफी के पैसे के साथ टिप भी दिया और फिर दोनों चल दिये। 

फिर मधुर रोमांटिक संगीत निशा ने बजाना शुरू किया और दोनों प्रेम सफर पर चल दिये। जैसे - जैसे रास्ता कट रहा था और निशा की धड़कन बढ़ रही थी क्योंकि सफर के साथ निशा का साथ जो राज से अलग होने वाला था। आखिर वो कर भी, क्या सकती है।रास्ता और समय आज लम्बा क्यों नहीं हो रहा है। निशा का दिल बैठता जा रहा है। निशा को 17 साल पेहले के दिन याद आ गए, वो अपनापन, शर्माना, टीन ऐज में एक दूसरे का हो जाना ही तो प्यार की पेहली पाठशाला थी। आजकल तो प्रेम की परिभाषा ही बदल गई है। प्रेमी-युगल प्रेम का आकलन शारीरिक सम्बंध से करने लगे हैं। उन्हें क्या मालूम किसी को अपनी अन्तर्रात्मा से प्रेम करना कितना सुखदायक और कठिन भी है। जिसने प्यार की वास्तविकता को नहीं जाना वो भला उसके रस में कैसे ड़ूब सकता है और जो डूबा नहीं वो मेहसूस तो कदापि कर ही नहीं सकता कि आखिर "सच्चा प्रेम क्या है।"

आखिर समय आ ही गया ! हाइवे का रास्ता खत्म और शहर करीब। बस एक पुल पार करना और शहर में प्रवेश किया राज ने। निशा गुमसुम बैठी थी, मखाती हुई शांत चित्त से राज के चेहरे को निहार रही थी। शाम के सात बज रहे थे। निशा को घर भी जाना था, लेकिन उससे ज़्यादा राज का साथ छोड़ना उसे कत्तई गवांरा न था। मगर ये मजबूरी की राज को काम पर जाना है और निशा को घर , उन्हें अलग कर देती है। मन के हारे ही हार होती है और मन के जीते जीत। बस अब क्या मन गवाही नहीं दे रहा कि जाना है, लेकिन जाना तो है। दोनों ने एक दूसरे को गुड बाय किस किया और राज ने घर घर पहुँच कर निशा को फोन करने को कहा। निशा ने राज को हैप्पी जर्नी कहा और कार से उतर कर दोनों अपने-अपने रास्ते पर चल पड़े। यहां तक दोनों का सफर एक था, मंजिल एक थी, पर अब रास्ते जुदा हैं। समय का फेर शायद इसे ही कहते है।

निशा ने घर पहुँचकर शांत होकर पानी पिया। घरवालों को कहीं शादी में जाना था, बस वो लोग निकल रहे थे। अब क्या वही पुराना सुनापन और अकेली अंधेरी रात। रात का अंधेरा और खालीपन ही निशा को घड़ी के हरे रंग में रंगते जा रहे थे। पैन्डूलम के रेडियम की चमक पर टिकी निशा की निगाह, उससे मानो ज़िन्दगी का हिसाब मांग रही थी और कह रही थी कि निशा - "तेरे और राज के प्रेम को 19 साल बीत चुके हैं। कब वो एक चुटकी सिन्दूर तेरी मांग की शोभा बढायेगा। कब तेरा वजूद अस्तित्व में आयेगा।" इस तरह निशा अपने वजूद की तलाश में हर रात, उसी सोच में अपने बिस्तर के खालीपन को पूरा करती और एक नयी सुबह के इंतजार में उस अदृश्य सत्ता से जिसे हम अपना ईश्वर कहते हैं, इंसाफ करने की गुजारिश करती। 


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