विवेक दीप।
विवेक दीप।


जिनका ईश्वर पर अटूट विश्वास होता है वह कल की चिंता नहीं करते ।एक कथा ऐसे ही एक स्वामी रामतीर्थ की है, जो प्रभु का वियोग असहनीय सा महसूस कर रहे थे ,गृहस्थी का जीवन कारावास की बेड़ियां बन गई थी ,तो उनको छोड़कर भागने की उनकी अधिक इच्छा हुई।
इस प्रकार एक दिन उन्होंने किसी से भी सलाह नहीं ली और किसी से कहा तक नहीं ,जैसा कि भगवान गौतम बुद्ध ने किया था ,उन्होंने बस अपने कपड़े उतार कर सारा सामान ज्यों का त्यों छोड़ दिया और बाहर जाने की तैयारी करने लगे।
इतने में उनकी धर्मपत्नी को कुछ उन पर शक हुआ, कि आज बात कुछ विशेष है ।कुछ दिनों से यह बोलते नहीं, रातो रात जागते रहते हैं, मालूम होता है भागने की फिक्र में है। पूछा स्वामी आज क्या इरादा है? कहा- मैं इस गृहस्थ जीवन से अब ऊब गया हूं ।अब मैं सन्यास लेना चाहता हूं । इतने में उनकी पत्नी उनसे बोली कि क्या तुम यह भूल गए हो, जो तुमने शादी से पहले हमें ना त्यागने का वचन दिया था। स्वामी जी ने कहा ,कि हां मुझे वह वचन याद हैं, फिर भी यदि तुम चलना चाहती हो तो चलो, इतने में उनकी धर्मपत्नी ने कहा कि आप जो कहेंगे मैं वह करने को तैयार हूं।
स्वामी जी ने अपनी धर्मपत्नी से कहा ,"इस धन, जेवर और बच्चों का क्या करोगी?" तब उनकी धर्मपत्नी ने यह जवाब दिया, कि "यह सारा सामान और बच्चे अपने पिता के पास भेज देती हूं।"
इतने में स्वामी जी बोले ,"नहीं, तो मैं साथ नहीं तुम्हें ले चलूंगा।" तो उनकी धर्मपत्नी ने उनसे पूछा ",तो फिर आप ही बताइए कि क्या किया जाए।"
स्वामी जी ने बोला ,"यह सारे जेवर रुपयों को बांट दो ,बच्चों को बाजार में छोड़ दो।" स्त्री ने सारा जेवर, गहना बांट दिया, रुपए जिसने मांगे उसे दे दिए ।दो बड़े बच्चों को बाजार भेज दिया, छोटे बच्चे को गोद में ले लिया ।और फिर स्वामी जी से कहा- "अब चलिये।"इतने में स्वामी जी ने कहा ,"अभी नहीं इस बच्चे को भी चौराहे पर छोड़ आओ, नहीं तो तुम घर रहो। मेरे साथ नहीं चल सकतीं।"
स्त्री का हृदय भर आया, वह उसको भी लेकर गई और बज्र की छाती कर बच्चे को छोड़ कर आ गई ।और स्वामी जी से कहा, "चलिए अब मैं तैयार हूं।" स्वामी जी बोले "एक बात और है, उसे भी पूरा करो। वह यह है कि अपने मुख से तीन बार कहो कि- रामतीर्थ मर गया ,रामतीर्थ मर गया, रामतीर्थ मर गया।"
धर्म पत्नी ने कहा "महाराज आपने जो कहा वह मैंने पूरा किया। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि जो सर्वस्व है, जिसके पीछे सभी त्यागा है ,उससे ऐसा कहा जाए ।क्षमा कीजिएगा ,यह न कहलावाहये।" राम तीर्थ ने कहा- "ऐसा नहीं हो सकता तब तो घर पर ही रहना होगा।" पत्नी लाचार हुई और अपने पति के प्रति ऐसा शब्द तीन बार कहना पड़ा, ऐसा कर देने पर उसने अपनी धर्मपत्नी को अपने साथ ले दिया।
सारी कथा का सारांश यह है कि हम चाहे गृहस्थी में रहे ,चाहे विरक्ति में ,हर दशा में भगवान पर विश्वास करें ,ममता और संग्रह का मन से त्याग करें ।ईश्वर को ही सब कुछ समझ कर उनकी आज्ञा का पालन करें। तब मन का दमन हो सकता है ।मन जैसे जैसे ईश्वर की आज्ञा से भिंचता है ,दुखी होता है ,उसी प्रकार उसका बल कम होता जाता है। फिर धीरे-धीरे वह ईश्वर की आज्ञा भी समझने लगता है जिस पर चलने से ही उसका कल्याण है।