Shubham Srivastava

Abstract Drama Tragedy

4.9  

Shubham Srivastava

Abstract Drama Tragedy

विषाणु

विषाणु

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बस में पिछले 4 घंटो से यात्रा कर रहा हूँ। नाम जान के क्या मिलेगा चलो मेरा नाम ‘राही’ है। मुझे राह की फिकर है मेरे मन में बहुत बड़ा द्वंद्व छुपा है सोचा आपको सुनाता चलूँ। वैसे भी अकेले यात्रा कर रहा हूँ तो मन भी नहीं लग रहा खुद से बात करने में। एक सत्य ये भी है की हम अकेले ही आए थे और अकेले ही जाएँगे तो मुझे इसकी आदत डाल लेनी चाहिए फिर भी, मन है जो इस अंतर्मन में है सब कह या लिख देने का, शायद मेरे मन का भार इससे हल्का हो जाए।

लगभग हर किसी का मन मादक व नशीली वस्तु पर आता है, आए भी क्यों न गलत है या सही वो तो हम पर है आखिर पैसा भी हमारा है हमारा मन हम जहाँ भी खर्च करे पर इसका असर हमारे परिवार पर ना पड़े वरन यह हमारे तहजीब में गलत हो जाता है। मोबाइल के इतने आदि हो लिए है की मोबाइल छोड़ना भी चाहे तो भी मन नहीं करता लत लग गयी जी हमे, लत लग गयी मुझे।

ज्यादा शैक्षिक ज्ञान ज्यादा धन,ज्यादा धन तो ज्यादा रिश्ते, ज्यादा रिश्ते तो ज्यादा मन को शान्ति ये है 21वी सदी की क्रांति। व्यवसाय ने वन को जकड लिया हम इस धरती पर अकेले नहीं थे पर हमारी कामनाए धीरे-धीरे हमे अकेला करती जा रही है। इर्ष्या की चादर में लिपटे अपने ही अपनों की सीढ़ी काट रहे है ताकि उनके अपने उनसे आगे न निकल जाए। रचनात्मकता शैली को ख़त्म कर सुयोजित तरीके से एक ही तर्क दिशा में चलने को हम बाधित है। जिसने लोगो से अलग सोचा उसके करीबियों ने उसे जमकर ठोंका।सड़क पर रह रहे भिकारी को दान देकर भी सेल्फी लेना हमारी संजीदगी का प्रदर्शन है। जलता वातावरण पर मिथ्या मेरा आवरण क्योंकि आजतक में अपने पड़ोसी से मिला ही नहीं यह कैसा मेरा आचरण।

धन ही धन बनाने की वो सीढ़ी जिससे चलता पीढ़ी दर पीढ़ी है। अंध दौड़ में दौड़ रहे पैसे से क्या कभी खुश बनी यह जिंदगी है।गरीब को मैंने मुस्काते देखा, अमीर हूँ मेरा तनाव तुम क्या जानो।सही गलत की फिकर किसी को नहीं क्या फ़ायदा है क्या हमे मिलेगा उस मुद्दे से ये सब की चाहत है। हज़ार रूपये में एक वक्त का खाना और हज़ार रूपये में महीने भर का खाना अपनों के लिए इस सब इस सदी ने देखा है। केदार में मृत शमशान प्रकृति का यह संदेसा है कि अमीर कितने भी बन ले तू मगर प्रकृति के सामने बोना है। आमिर था इसलिए ही तो मुर्दे की वालेट ने सब कुछ लूटा है जैसे की जाता रहा है 100 सुनार की तो एक लुहार की।

बीमारी है पर इसका कोई ईलाज नहीं है जो बीमार हो चला है समय की मार से दबकर। रस्ते होते आसान अगर मन में फासले ना होते। मसले के मलबे में मुद्दत नहीं मौकापरस्ती छुपी है।सच जानते है सब फिर भी चुप्पी है। छोड़ दिया अकबर पढना मैंने हो गया हर खबर से बेखबर क्योकि यह जरुरी नहीं की वो सच है।

खुशमिजाज़ है खाकर कीटनाशक आहार क्या करे हर किसी को करना है व्यापार। तो सोशल मीडिया में मुझे कैसा दिखना है खुश या दुखी, गुस्से से लाल या फिर किसी से झूठा प्यार या फिर हो गया है यह इशक सच्चा या सिर्फ खींचना भर ही है किसी का ध्यान।जिसपर पैसा है उसे प्यार नहीं जिसपर प्यार है उसपर पैसे नहीं उसकी कोख सूनी है और जिसपर पैसा ही नहीं है उसे जुटानी अपनों के लिए रोटी है। हम एक बड़ी नाव में सवार है जो फँसी है बीच मझधार में फसने के दर से हमने नाव तोड़कर अपनी खुद की नाव बनाने लगे।संसाधन है पर सुयोजन का निपात सही नहीं है। खैर अब चलने का वक्त आया है ख़ुशी हुई आपको मन की बात बताकर वैसे एक ऊँगली जमाने की तरफ की है तो 3 अपनी तरफ करता हूँ मैंने खुद के दम पर आजतक किया क्या भटकता हूँ मैं, मैंने कमाया क्या खाया क्या,कहा तो काफी कुछ पर अपने सामर्थ्य से बदलाव के लिए किया क्या सच तो यही है की मैं भी एक विषाणु हूँ। 


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