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Rekha Agrawal (चित्ररेखा)

Classics

4  

Rekha Agrawal (चित्ररेखा)

Classics

vishwavijeta chanakya

vishwavijeta chanakya

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4

विश्वविजेता और चाणक्य



         आज हमारे राज्य में सेनापति का चुनाव था और उस पद में मैं भी एक दावेदार था ।  यूनान में यह पद राज्य के एक बहुत महत्वपूर्ण पद के रूप में जाना जाता था ।  यूँ तो मुझे अपने ऊपर पूरा विश्वास था, किंतु फिर भी मन में एक अजीब-सी आशंका-सी बनी रहती थी ।  सोते-जागते दिल एक अनजाने से भय से धड़क उठता था । ऐसा भी नहीं कि मैं कमजोर दिल वाला सैनिक था ।  नहीं ! वीरता, बहादुरी व साहस में मैं पूरे राज्य में अपनी मिसाल कायम कर चुका था । पिछले अनेकों संकट के समय  मेरे बहादुरी व वीरता के किस्से यहाँ की जनता की जबान पर है ।  पूरा राज्य मुझे सम्मान की नजरों से देखता है ।  आज जिधर से भी मैं गुजरता हूँ लोग सम्मान से सिर झुकाकर खड़े हो जाते हैं ।  एक सैनिक के पद पर रहते हुये ऐसा सम्मान ़ मुझे हासिल हुआ है ।  इसके लिये मैं जनमानस की भावना की कद्र भी करता हूँ ।  इस राज्य ने मुझेे जो प्रतिष्ठा दी है, मैं उससे खुद को सर्वोच्च पद पर आसीन सेनापति-सा ही महसूस करता रहा हूँ ।  किसी पद कीे कोई आकांक्षा व महत्वाकांक्षा अभी तक तो नहीं जागी थी  किंतु अचानक ही सेना में सेनापति के सर्वोच्च पद के खाली हो जाने से इस रिक्त हुये पद की दावेदारी में  मैं शुमार कर बैठा था ।


         ऐसा कहना कि युद्ध कौशल रणनीति व सैन्य संचालन में इस पूरे राज्य में कोई मेरी बराबरी नहीं कर सकता ।  यह कहना स्वयं की तारीफ करने के साथ-साथ़ एक हास्यास्पद अतिशयोक्तिपूर्ण अहंकार के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता फिर भी इतना तो कहूँगा कि मुझ सरीखे दमखम रखने वाले इस राज्य में बहुत थोड़े से लोगों की भीड़ मे मैं भी शुमार होता हूँ ।

         और फिर इंतजार की घड़ियाँ समाप्त होने को आ गई थी ।  चयन का अंतिम दिन भी आ पहुँचा था ।  सुबह से चलने वाले कार्यक्रम में लगभग पूरे शहर के भीड़ भरे हुजूम में अंतिम निर्णय के रूप में सेनापति के अत्यंत महत्वपूर्ण पद को सुशोभित करने वाली इस राज्य की रक्षा के अंतिम दायित्व की जिम्मेदारी की कमान मेरे हाथों में सौंपते हुये सम्राट सिकंदर ने अपने हाथों से यह चमचमाती तलवार के साथ नगर के उत्कृष्ट घोड़े की लगाम मेरे हाथों में सौंप दी थी ।  तालियों की गड़गड़ाहट कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी ।  मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उस करतल ध्वनि व जयजयकार के शोर के बीच मैं जैसे  हवा में उड़ रहा हूँ ।  धरती पर मेरे कदम ही  नहीं पड़ रहे थे ।  यूँ मुझे खुद पर यकीन तो था, सेनापति पद के लिये मैं खुद को यथायोग्य भी समझता था, किंतु फिर भी चयन की घड़ी जैसे-जैसे करीब आती चली गई थी, मेरे हृदय की धड़कनें भी मेरे काबू से बाहर होती चली गई थी और आज उन मनचाहे व चिर-प्रतीक्षित पद को अपने हाथों से ग्रहण करते हुये मैं बस जैसे बादलों के बीच ही हवा-सा हल्का होता हुआ  उड़ता चला जा रहा था ।

        

और फिर पद भार ग्रहण करने की सारी औपचारिकताओं को पूरा करके जब अपनी उसी चमचमाती तलवार को अपनी कमर पर धारण करके घोड़े की लगाम हाथ में थामे मैं मंथर गति से अपने घर की तरफ लौट रहा था, तभी अपने साथियों के साथ उस छोटी-सी गेंद को हवा में यथासंभव ऊँचाई पर उछाल-उछालकर अपने दोनों नन्हे हाथों में थाम लेने के लिये उत्सुक होकर दौड़ लगाते बच्चों की टोली का ध्यान मेरे ऊपर पड़ा ।  उस समय मेरे पुत्र के हाथों में वह गेंद थी ।  और वह बस उसे अपने साथियों की तरफ हवा में उछालने ही वाला था, कि अचानक उसकी दृष्टि मुझ पर पड़ी और बिना कुछ सोचे क्षण भर में उसने वह गेंद बहुत तेजी से आसमान में ऊँचा उठाते हुये मेरी तरफ उछाल दिया ।  हालांकि अपने घर के पास आता हुआ मैं सावधान तो नहीं था, किंतु अंततः था तो योद्धा ही ।  और एक योद्धा की यही तो खूबी होती है कि उसे हरदम सतर्क, सजग व चैकन्ना रहना पड़ता है ।  मैंने भी हवा में खुद के शरीर को उछालते हुये अपने पुत्र के द्वारा फेंकी गयी उस नन्ही-सी गेंद को उछलकर अपने दोनों हाथों में लपक पर थाम लिया था ।

         हुर्रे कहते उछलते-कूदते बच्चों के हुजूम ने तुरंत मुझे चारों तरफ से घर लिया था ।  अपने हाथों में उस नन्हे-से गेंद को थामे आज मुझे ऐसा लग रहा था मानो संपूर्ण विश्व एक नन्हा-सा रूप धरकर मेरे हाथों में सिमट आया हो ।  तलवार अब भी मेरे कमर की मूठ से लटक रही थी, और शांत भाव से अपना सिर धीरे-धीरे हिलाते घोड़े की लगाम मैने अभी भी थाम रखी थी, मुझे ऐसा लग रहा था जैसे तलवार की इस नेंक के दम पर अपने घोड़े की पीठ पर सवार होकर अपने पुत्र की बाल टोली द्वारा उछाले गये गेंद को जितनी आसानी के साथ जिस त्वरित सहजता से आगे बढ़कर मैंने अपनी मुठ्ठी में कैद कर लिया है, क्या दुनिया को जीत लेना भी उतना ही सहज और आसान नहीं है ।  शोर मचाती बच्चों की टोली की तरफ उनके द्वारा ही उछाली गयी गेंद को वापस से उनकी ही तरफ उछालकर धीमी रफ्तार के साथ, मंथर गति से चलता हुआ मैं घर के अंदर घुसा था ।

         दरवाजे की देहलीज से टिककर मेरी पत्नी मेरे ही लौटने का इंतजार कर रही थी ।  आज का यह दिन मेरे लिये कितना खास और अहम् था, यह उसे भी पता था ।  उसकी आँखें प्रश्न के साथ मेरी तरफ उठी थी ।  वह आज के निर्णय को जान लेने की उत्सुकता से भरी हुई थी, कि कुछ भी न बोलते हुये मैंने उसके दोनों कंधों को पकड़कर झकझोर दिया था ।  और फिर अपने दोनों हाथों से उसे उठाकर हवा में अनगिनत गोल-गोल चक्कर देकर घुमा दिया था ।  घबराई हुई-सी वह एक हाथ से मेरे कंधों को पकडऋकर हवा में अपना संतुलन बनाने की कोशिश करती दूसरे हाथ से खुद का ही मुँह दबाती वह मेरे चंगुल से छूट पड़ने को आतुर हो उठी थी ।  किंतु अपने जोश व उल्लास रूपी उत्साह के आवेग में मैंने उसकी किसी भी व्यग्रता व बैचेनी पर ध्यान नहीं दिया ।  और फिर अनेकों चक्कर दिलवाकर जब मैंने उसे धीरे-से धरती पर खड़ा किया तो हम दोनों की साँसें तेज-तेज चल रही थी, और हम दोनों के माथे पर पसीने की नन्ही-नन्ही बूँदें छलछला आई थी ।  आज का परिणाम मेरे इस उल्लास को देखकर वह समझ गई थी ।  और फिर हम दोनों ही एक-दूसरे की आँखों में झाँकते हुये हँस पड़े थे ।

         मेरी पत्नी । हम दोनों ने जीवन के नये सफर की शुरूआत एक कच्ची-सी उम्र के साथ ही एकसाथ की थी ।  एक ही पड़ाव पर सुस्ताते एक की सफर पर एक साथ एक-दूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ते रहे थे ।  जीवन रूपी इस यात्रा में ऐसा नहीं था कि रोड़े न आये हों, ठोकरें न लगी हों, दर्द व पीड़ा का गरल न पीना पड़ा हो ।  किंतु उन सारे क्षणों के साक्षी के रूप में हम दोनों के साथ ही एक-दूसरे का साथ था । हमारे हाथ में दूसरे का मजबूत हाथ था ।  शायद इसीलिये उन सारे संघर्षों को हम हँसते-हँसते पार कर गये थे ।  जिंदगी के सफर में हमने मुस्कुराना नहीं छोड़ा था ।  ठोकरें खाकर भी हम रूके नहीं थे   आज के इस सेनापति के पद पर मेरे प्रतिष्ठित होने की महत्वपूर्ण भूमिका की मूल साझीदारी में मेरी पत्नी की अहम् भूमिका थी  जिसे हम दोनों ही अच्छी तरह जानते थे ।

         जीवन के हर सुख-दुःख में एक-दूसरे का हाथ मजबूती से थाम जीवन रूपी नाव के पतवार को धीरे-धीरे ही सही अपने गंतव्य की तरफ लगातार दिशा देते रहे थे  ।  लहरों का आनंद लेते हुये उन्हीं लहरों के बीच अपना रास्ता बना लेने और जिंदगी को खूबसूरती के साथ जी लेने की कला हमें आ गई थी ।


         आज सेनापति की हैसियत से दी गई अपनी तलवार, अपना कवच और सिर पर धारण किये जाने वाले शिरस्त्राण को बिस्तर पर अपने साथ रखा ।  पत्नी  धीमे से होठों की हँसी को रोकने का प्रयास भी कर रही थी, और हम दोनों के बीच इस तीसरे अजनबी आगंतुक को हैरानी के साथ देख रही थी, जिसे मैं ही बड़े पे्रम व जतन से  अपने साथ लाया था ।

         ठीक वैसे ही जैसे एक छोटा बच्चा अपने प्रिय खिलौने को अपने साथ लेकर सोता है और माँ उसे आश्वस्त करती हुई उसके तकिये के नीचे रख देती है तलवार जिसे सम्राट ने अपने हाथों से दिया था, वह शिरस्त्राण जिसे सम्राट ने खुद अपने हाथों से मेरे सिर पर पहनाया था, और जिसे पहनने के बाद जब मैंने सिर ऊपर उठाया था, तो ऐसा लगा था मानों मेरा सिर बस आसमान को छूने ही वाला है ।  उस गोल घेरे वाले वृत्ताकार सुरक्षा कवच कोे जब मैंने अपने दोनों हाथों से थामा था तो ऐसा लगा था जैसे मेरे  सुरक्षा के घेरे को कभी कोई तोड़ नहीं पायेगा । मैं सैल्यूकस अपने नाम व वजूद को भूलता हुआ हमेशा के लिये एक योद्धा के रूप में परिवर्तित होता चला गया हूँ ।

         सब चीजें अपने शयनकक्ष के भीतर अपनी शय्या के ऊपर सजा-सजाकर रख दिया था मैंने ।  हँसती हुई पत्नी वहीं उन सब के सामने आकर दोनों हाथों को गालों पर टिकाये मुस्कुराती आँखों से मुझे देख रही थी । 

         वह मुझसे आज का घटनाक्रम पूछ रही थी और मैं सारी घटनाओं का आँखों देखा हाल उसे विस्तार के साथ बता रहा था ।  बीच-बीच में उबासी को जबरन हथेलियों से थामने की कोशिकों में उसकी नींद से बोझिल आँखें झपकने लग जाती थी ।  किंतु मेरे उल्लास में उसकी झपकियों ने कोई बाधा नहीं डाली

         मैंने उसे युद्ध के दाँवपेंच बताने शुरू किये ।  कभी अपने हाथ में तलवार लेकर उसके ऊपर आक्रमण का अभिनय करते समय उसे ढ़ाल पकड़ाकर शत्रु से अपनी रक्षा कैसे करनी होती है उसे गंभीरता के साथ समझाता, तो कभी उसी के हाथ में अपनी तलवार सौंपकर खुद अपनी रक्षा के लिये अपने हाथों में ढ़ाल ले लेता ।

         पत्नी के कोमल हाथ ढं़ग से न तो तलवार को ही पकड़ पा रहे थे, ना ही ढ़ाल से ही वह अपनी खुद की रक्षा कर पा रही थी ।  पत्नी का तो पता नहीं किंतु इस खेल को खेलते हुये मुझे बहुत मजा आ रहा था ।  इतने कच्चे खिलाड़ी से साबका पड़ रहा था ।  मैं सोच रहा था कि अगर कभी युद्ध स्थल में ऐसा नौसिखिया खिलाड़ी मुझसे टकरा गया तो क्या उसे इतनी आसानी से हराने की बजाय मैं उसे भीे युद्ध के दाँवपेंच सिखाना न शुरू कर हूँ ।  और फिर हम दोनों ही जोर से खिलखिला कर हँस पड़े ।  न जाने रात का कौन-सा अनजान प्रहर था, किंतु हमने जबरन अपनी हँसी को रोकने का प्रयास किया, ताकि आस-पास सोते परिवार के अन्य सदस्य नींद में से कहीं जाग न जायें  अन्यथा वे भी आश्चर्य से हमें देखते हुये यही सोचते कि यूनान का सेनापति रात्रि के समय अपने शस्त्रों के साथ ऐसी बेवकूफी का खेल खेल रहा है ।

         धीरे-से अपनी आँखें बंद करके लेट गया ।  आज मैं वाकई बहुत प्रफुल्लित था ।  बचपन से देखा हुआ सपना जब साकार हो जाता है, तो व्यक्ति अपने कठिन मेहनत को एक ही क्षण में भुला देता है, नींद की खुमारी विश्राम के झीने-से आवरण में खुद को लपेटे हुये अपने बोझिल कदमों के साथ मेरी पलकों पर सवार होने लगी थी अब मैं खुद को विश्राम और  विराम की स्थिति में पा रहा था । यह स्थिति मुझे अत्यंत सुखद प्रतीत हो रही थी । पत्नी की हथेली को अपने दोनों हाथों में लेते हुये मैंने अपनी आँखें बंद कर ली ।


अपने सम्राट के साथ विचार-विमर्श और सलाह-मशविरे के पश्चात् अपने उत्साह और जुनून को अंजाम देने का निर्णय कर लिया था ।

         और फिर अपनी सेना को और ज्यादा सुसज्जित और पारंगत बनाने के लिये हम  मुहिम में जुट गये थे ।

         और उसी श्रम, साधना और सतत् अभ्यास का परिणाम था कि हम और भी ज्यादा सशक्त योद्धा में परिणित होते चले गये थे ।  अब तो हमें भी लगने लगा था कि विश्व-विजेता का ताज अपने राष्ट्र और सम्राट के सिर की शोभा बनने से हमें कोई भी नहीं रोक सकता ।

 


उस दिन  के बाद से हमारी सेना ने  पीछे मुड़कर नहीं देखा था ।  अपने राज्य के सबसे वीर योद्धाओं को अपनी सेना में शामिल करके हमने जबरदस्त शक्ति हासिल कर लिया था ।  धीरे-धीरे हमने रणनीति बनाकर अपने आस-पास के सभी सीमावर्ती राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित किया और फिर उन सबकी सम्मिलित टुकड़ी से धीरे-धीरे हमारी सेना इतनी बलवान और शक्तिशाली हो गई थी कि हम खुद आश्चर्यचकित हो उठते थे ।  इतनी समृद्ध और संपन्न सेना के पास अब संपूर्ण विश्व-विजेता के ताज को फतह कर लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था ।  वाकई जब हममें सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेने की शक्ति हो, सामथ्र्य हो और माद्दा भी हो तो फिर भला हम तालाब के मेंढ़क की तरह एक सीमित से दायरे में ही क्यों अपनी जिंदगी गुजार दें, जबकि हमारे सैनिकों के फड़कते हुये बाजुओं में अपार संभावनायें छिपी हुई थी, आसमान की ऊँचाई से जितने हमारे हौसले बुलंद थे और साहस तथा युद्ध की कला में दूर-दूर तक हमारा कोई सानी नहीं था ।

         हमारा देश यूनान आज की तारीख में पूरे आस-पास के राज्यों में भी सबसे समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित करवा चुका था ।  और अब भी हमारे सपनों व ख्वाबों में अपरिमित संभावनायें करवटें लें रही थी ।


         आज यूनान देश के लिये सबसे बड़े उत्सव का दिन था ।  आज जितना हर्ष, उल्लास और उमंग भरी पुलक और खुशी व दर्प से जगमगाते चेहरे आज से पहले कभी नहीं देखा ।  ऐसा लग रहा था मानो अपने दोनों हाथों में ढ़ेर से फूल थालोंमें सजाये समूचा यूनान ही हमारे विजय के उल्लास को मनाने के लिये सड़कों पर उतर आया हो ।  सम्राट के महल से लेकर गली-कूचे के एक-एक घर पर आशाओं के दीपक जगमग रोशनी बिखेर रहे थे ।  आज से पहले इस शहर को ऐसा उल्लासमग्न और आनंदविभोर मैंने कभी नहीं देखा था ।  उन सबके चेहरों पर छाये हर्ष व खुशी से छलकते भावों ने हमें भी जीत का आश्वासन रूपी दीपक अपने हृदय में सदा जगमगाये रखने के लिये मजबूत आधार व संबल दिया था । 


विश्व-विजय ! इस शब्द मैं जादुई रोमांच समाया हुआ था ।  महीनों से विश्व-विजय की पताका पूरी दुनिया में गाड़ देने के इरादों ने हम सभी के मन में ऐसे उल्लास व तरंग को प्रवाहित कर दिया था कि हम रातों को ठीक से सो भी नहीं पाते थे ।  नींद में भी युद्ध के स्वप्न ही दिखलाई पड़ते थे ।  ऐसा लग रहा था, मुझे हमारा देश यूनान हमारे हमारे महान् सम्राट सिकंदर के नेतृत्व मे विश्व-विजेता बनने के सपनों को पूरा करने के लिये ही इस धरती पर मेरा जन्म हुआ है ।  हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य यही है, कि संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में पिरो दे ।  और उनका शासक हमारा सिकंदर हो ।

          न जाने कितनी बड़ी है यह पृथ्वी ।  यूनान के इस नगर से देखने पर इसकी सीमा इतनी बड़ी नही लगती कि संपूर्ण धरती पर राज्य न किया जा सके ।  यह भी हो सकता है कि इसका विस्तार अपरिचित हो और यह भी संभव है कि इसका दायरा इतना छोटा हो जितना हमने सोचा भी नहीं

आजकल तो मेरे सपने भी विश्व-विजेता के ताज के साथ अपने सम्राट के सिर को सजते हुये और भीड़ के उल्लास और तालियों की गड़गड़ाहट अपने और साथियों के लिये स्वागत में पाता था ।  उस विजयी जुनूनी दिवास्वप्न की एक अजीब-सी दीवानगी में दिन-रात जीने लगा था ।

बिगुल और नगाड़ों के शोर से पूरा नगर गुंजायमान हो रहा था । 



मैं अपने घोड़े को ऐड़ लगाने ही वाला था, कि बगल से भीड़ को चीरते हुई किसी ने आगे बढ़कर मेरे घोड़े की लगाम को अपने नाजुक से हाथों में थाम लिया ।  एक नारी के कोमल हाथों में घोड़े की लगाम देखने का मैं आदी नहीं था, न ही मेरा घोड़ा ही आदी था, हमेशा पुरूषों के द्वारा ही दौड़ाया जाने वाला मेरा घोड़ा भी एक अजीब-सी आवाज के साथ वहीं रूक गया था ।  उन हाथों से फिसलता हुआ मेरा ध्यान चेहरे की तरफ उठा तो दंग रह गया ।  अरे ! यह तो मेरी पत्नी है ।  सुबह से इतनी भीड़ के बीच में घिरा हुआ था, मुझे तो उससे एकांत में बात करने का, उससे अलग से बिदाई लेने का भान ही नहीं रहा ।  ओह ! न जाने कब से वह मेरे कदमों का दरवाजे के पीछे खड़ी होकर इंतजार कर रही होगी, किंतु विश्व-विजय के इस अभियान में उत्साह के इन चरमोत्कर्ष के क्षणों में मैं अपनी सबसे प्रिय सहचरी को ही भुला बैठा था ।  शायद वह अपने धीरज को और न संभाल पाने के कारण ही इस अनगिनत भीड़ को अपने दोनों हाथों से चीरती हुई खुद ही आगे बढ़ आई थी ।  एक मन तो किया कि हाथ आगे बढ़ाकर उसे भी अपने साथ घोड़े पर बिठा लूँ, अब तो न जाने कब लौटूँगा मुझे खुद भी इसका पता नहीं था या शायद लौटूँगा भी या नहीं ।  मन में यह भाव तो प्रबल रूप से विद्यमान था कि विश्व-विजेता का ताज धारण तो हम करके ही लौटेंगे, इसमें तो कोई संदेह नहीं था ।  किंतु समय की कोई भी अवधि निश्चित नहीं थी और हमारी अपनी ही सेना से कितने साथी इस जीत का जश्न मनाने के लिये बचे रह जायेंगे, यह भी भविष्य के रहस्य में ही समाया हुआ था ।  अब भविष्य को मैं तो क्या कोई प्रकांड ज्योतिषी भी शायद ही पढ़ पाने में सक्षम हो ।  और वैसे भी हम रणबांकुरे अपने हाथ में पकड़ी तलवार और जांबाजी तथा युद्ध की भाषा ही जानते और समझते हैं ।  किसी और भाषा व ग्रहों की दशा व मनोदशा से हमें क्या लेना देना ।  जीत ! और सिर्फ़ जीत ।  विजय केवल विश्व-विजय ही आज हमारा लक्ष्य है ।  और उसी को प्राप्त करना ही हमारा अंतिम उद्देश्य है बस !  और कुछ नहीं ।

          

पत्नी की नाजुक कलाई में थमी हुई घोड़े की लगाम वाकई बड़ा ही अजीब-सा लग रहा था ।  यदि रणक्षेत्र में हमारे अभियान का मोर्चा व घोड़े की लगाम हम अपनी पत्नियों के हाथों में सौंप दें, तो वे नगर के बाहर काएक चक्कर लगाकर घूम-फिरकर सांझ ढ़लते ही चिड़िया के नीड़ की तरफ वापस लौटती उड़ान के साथ-साथ ही अपने घोड़ों को वापस सरपट दौड़ाते हुई नगर की तरफ अपने-अपने घरों की दिशा में ही वापस लौट आयेंगी ।  लौटकर एक विश्व-विजेता के भाव की तरह परिवार को देखते हुये कहेगी कि हमारा विश्व-विजय तो घर-परिवार से ही शुरू होकर यहीं पर ही खत्म होता है ।  हम तो वैसे ही विश्व-विजेता है, ऐसा अभियान जिसमें न जाने कितनी जिंदगियाँ दाँव पर लगी हों खुद हमारी भी वह जीत का एक विश्व-विजेता की ही जीत होगी ।

         ऐसी ही बातें मेरी पत्नी टुकड़ों-टुकड़ों में गहन रात्रि के अँधकार में बहुत ही दबे हुये स्वरों में धीरे-से मेरे कान के पास रूक-रूककर बोलती आ रही थी, किंतु साथ ही साथ उसे यह अच्छी तरह से पता था, कि उसकी किसी भी बात से हमारी दीवानगी और जुनून भरा आलम जरा भी कम नहीं हो सकता, इसीलिये वह अपने आप को वर्तमान के उन क्षणों के साथ शायद सिर्फ़ चंद ही दिनों के लिये उसके साथ था उसे नहीं खोना चाहती थी, इसीलिये फिर मैंने हँसकर उसके सिर पर धीरे-से सांत्वना का हाथ फिराते ही वह मेरे हाथों के तकिये पर सिर टिकाये अपनी सुध-बुध खोकर चैन के साथ नींद के आगोश में चली जाती थी और मैं सोते, जागते बस एक ही तरह के दिवास्वप्न देखता खुद ही समय नहीं पाता था, कि कब सो रहा हूँ, और कब जागते हुये ही सपने देख रहा हूँ ।

         ओह ! मेरी भोली और नादान सहचरी !  सचमुच मैं तो तुमसे अंतिम बिदाई लेना भूल ही गया ।  नहीं अंतिम नहीं यह हमारी अंतिम बिदाई नहीं है, मैं लौटकर जरूर आऊँगा ।  हाँ इसे एक लंबी बहुत लंबी बिदाई जरूर कह सकते हैं ।  मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा ।  दिल के सारे भाव चेहरे पर आ जाने को मचल रहे थे, जिसे उसने बहुत देर से शायद बाँधकर रखा था ।  इतनी भीड़ में भी वह अपनी रूलाई को आँखों के कोरों के पास ही रूक जाने पर बाध्य किये हुये थी ।  यह सिर्फ़ मेरी ही पत्नी हो सकती है ।  सिकंदर की सेना के वीर सेनापति की पत्नी ही सिर्फ़ ऐसी हो सकती है ।

         घोड़े को थपथपाकर रूकने का आदेश देता हुआ मैं नीचे उतर आया ।  और पत्नी का हाथ थामकर घर के अंदर प्रवेश किया ।  वहाँ जाकर वह रूक गई ।  मैंने उसके झुके हुये सिर पर अपना माथा टिकाने की कोशिश ही की थी, कि तभी ध्यान आया कि मैं तो अपना लोहे का सुरक्षा कवच पहने बैठा हूँ ।  इस इतने भारी-भरकम कवच को मैं अपने भीतर इतना आत्मसात् कर चुका था, कि अब न तो यह वजनी लगता था, न ही शुरूआती दौर की तरह बेहद बँधा-बँधाया व कसावयुक्त ।  बल्कि अब तो यह मुझे अपने ही शरीर का एक अनिवार्य व अपरिहार्य हिस्सा लगता था ।

         अच्छा हुआ कि उसके माथे से टकराते-टकराते ही बस थोड़ी-सी दूरी पर था, कि तभी मेरा छोटा पुत्र अपने हाथ में गेंद घुमाता हुआ अंदर आया ।  उसे पिता के विश्व-विजय के अभियान पथ से  ज्यादा रूचि अपने आप के खेल में था ।  अभी भी उसका सारा ध्यान गेंद पर ही था ।  हालांकि कई दिनों से चल रहे विचार-विमर्श व परिचर्चाओं से उसे यह तो पता ही था कि मैं एक लंबी यात्रा पर निकलने वाला हूँ, किंतु वह अपने आज के वर्तमान में खेले जा रहे खेल के आनंद व उत्साह से खुद को वंचित नहीं करना चाहता था ।  कितना अबोध और खूबसूरत है मेरा बच्चा ।  शायद हम बड़ों व बच्चों में यही सबसे बड़ा अंतर होता है, कि हम आने वाले किसी अनदेखे से भविष्य के लिये आज को दाँव पर लगाते जाते हैं, और वह सिर्फ़ अपने आज को उसी रूप में जीते हैं, जैसा आज उनके सामने होता है ।

         मैंने अपने सिर से वह भारी-भरकम कवच उतारकर पुत्र के हाथों में थमा दिया और पत्नी के माथे पर अपना सिर टिका दिया ।  ओह ! ऐसा लगा, जैसे पत्नी से ज्यादा मुझे  उसके इस संबल देते सुखद व  कोमल स्पर्श की जरूरत थी ।  महीनों हो गये थे, मैं अपनी कल्पना में ही जाने कितने अजनबी चेहरों के साथ युद्ध करता आ रहा था, कई बार तो मृत्यु को अपने बहुत करीब देखकर भयाक्रांत हो उठता था ।  वास्तविक युद्ध के अभियान पर तो मैं आज जा रहा था, किंतु महीनों से अपने ही मानसिक धरातल पर कल्पनाओं में ही युद्ध करते हुये मुझे आज वाकई उस कोमल से स्पर्श की जरूरत थी, जिसमें मेरी साथी बनी मेरी पत्नी खुद को बमुश्किल थामे हुये अपना सिर झुकाये मुझे बिदाई देने के लिये खड़ी थी ।

         कुछ कहोगी नहीं ?  मैंने अत्यंत नरमी से उसकी आँखों में आँखें डालते हुये उसके दोनों हाथों से पकड़ते हुये पूछा ।

         क्या कहूँ ?  वह मुझसे ही प्रश्न कर रही थी ।  मुझे लगा था, वह मुझसे बहुत सारी बातें करना चाहती है ।  गिले-शिकवे करना चाहती है, मेरी अनुपस्थिति में आने वाली समस्याओं की  शिकायत करना चाहती है ।  किंतु नहीं ।  मेरी सोच के विपरीत वह तो एक क्षणिक से एकांत में सिर्फ़ अंतिम बिदाई की कामना के साथ इतनी भीड़ के सम्मुख साहस के साथ आ खड़ी हुई थी ।  आज उसके सम्मुख मैंने ही अपना सिर झुका दिया । पत्नी से बिदाई लेकर मैं बाहर आया ।  वहाँ मेरी छोटी-सी बिटिया अपनी ही हमउम्र सहेलियों से घिरी हुई दरवाजे की देहलीज के एक किनारे बैठकर अपनी ही किसी नन्ही-सी काल्पनिक दुनिया के खेलों में व्यस्त थी ।

         कितनी अलग और  सतरंगी दुनिया होती है इन बच्चों की । हमारी यथार्थपर दुनिया से अलग हार व जीत के दायरों से परे ।  विजय-पराजय की अभिलाषाओं से हटकर ।  जिंदगी व मृत्यु के भय से परे ।  सतरंगी संसार में खोई मेरी नन्ही-सी बिटिया अपनी सहेलियों से घिरी शायद अपने गुड्डे-गुड़िया के ब्याह की तैयारियों में व्यस्त थी ।  उसकी फ्राॅक की पोटली के दायरे में गुड़िया के विवाह से संबंधित छोटी-छोटी चीजें थी, जिसे उसने अपनी सहेलियों के साथ इकट्ठा किया था ।  उसके खेल में बिना किसी तरह का व्यवधान डाले मैं सोच रहा था कि किसी दिन मैं उसकी छोटी-सी झोली को भी ऐसी ही खुशियों की सौगातों से भर दूँगा ।

बेटे के हाथ में  पहली बार मैंने खुद ही कवच पकड़ाया था ।  वह इतने भारी कवच को बमुश्किल अपने नन्हे से हाथों में संभाले हुये था ।  उनमें लटकती झालरों को वह अपनी ऊँगली से हिला-हिलाकर कौतुक भरी नज़रों से देख रहा था ।  सिर के ऊपर बने नुकीले-से भालेनुमा आकृति को भी वह माथे पर बल दिये आश्चर्यचकित नज़रों से देख रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे किसी जानवर के मुखौटे को देख रहा हो ।  मुझे अपना बचपन याद आया, जब मैं भी दीवार पर टँगे शेर, चीते और हिरण के चेहरे को उनकी झाँकती व घूरती आँखों को विस्मय और डर के साथ देखता था ।  शुरू-शुरू में उनके पास जाते हुये भी डर लगता था ।  फिर किसी ने जबरन हाथ पकड़कर पास ले जाकर उसका स्पर्श करवाया ।  और उसके बाद तो फिर मुझमें जैसे साहस का संचार ही होता चला गया ।  धीरे-धीरे जितना भी डर मेरे अंदर समाया हुआ था वह सारा डर निकलता चला गया था ।  अब मैं किसी भी चीज से नहीं डरता था, जंगली जानवरों से लेकर दुश्मनों द्वारा चलाये जाने वाले सभी पैतरों का जवाब देने मैं दक्ष होता चला गया था । 

मैंने खुद को तलवारबाजी, भाले व निशाने में इतना माहिर और पारंगत कर लिया था, कि मेरे जोड़ का दूसरा योद्धा इस राज्य तो क्या आस-पास के सभी राज्यों तक में मिलना मुश्किल था ।  मेरी इन्हीं खूबियों व रण-कौशल में पारंगतता के चलते हुये सम्राट ने अपनी सेना के लिये चुन लिया था ।  धीरे-धीरे सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ता हुआ अपनी वफादारी व ईमानदारी तथा राष्ट्रभक्ति की अटूट श्रद्धा को देखते हुये सिकंदर ने मुझे अपना प्रमुख सेनापति नियुक्त कर लिया था ।



         रास्ते पर आगे बढ़ते हुये पत्तियों पर ठहरी हुई ओस की बूँदों को ऊँगलियों से छूटे हुये आगे बढ़ जाता ।  सुबह-सुबह पेड़ की टहनी से झड़कर गिरे हुये फूल मेरे मन में भी सतरंगी इंद्रधनुषी सपनों को साकार करते चले जाते हैं ।  तब मुझे ऐसा लगता है, जैसे सृष्टि का सबसे खूबसूरत पल मेरे छूटे हुये कदमों के साथ ताल-मेल बिठाता मेरे घर की देहलीज के आस-पास चल रहा है ।

विश्व-विजय के इस अभियान पर दिल में उल्लास व उत्साह तो है किंतु मन का एक कोना कहीं अटक-सा गया है ।  पुत्र के हाथों में पकड़ी हुई गेंद के पास मुनिया की फ्रॉक की पोटली के पास और भीगी-सी कोरों के साथ पत्नी के हल्के हिलते हुये हाथ के साथ । 

रास्ते के किनारे की हलचल और सुबह के बदलते परिवेश को देखता हूँ, एक काली-भूरी बिल्ली दबे पाँव चौकन्नी निगाहों से आगे बढ़ते हुये देख रहा हूँ । हमें भी उस काली-भूरी बिल्ली की तरह ही चौकन्ना रहते हुये अपने अभियान पर आगे बढ़ना होगा ।  तभी एक रोयेंदार पूँछ वाली गिलहरी हमारे एकदम करीब से पेड़ से उतरते और फिर हलचल से डरकर वापस पेड़ की शाखा पर चढ़ गई ।  हमें भी दुश्मनों के हमले को ध्यान में रखते हुये कुछ ऐसी कार्यवाही करनी पड़े ।  आसपास के प्राणियों को देखते भावी योजना  के ताने-बाने बुनते हुये हम अपने गंतव्य की दिशा में बढ़ते चले जा रहे थे ।  आज ऐसा लग रहा था मानो हमारे साथ-साथ पूरी कायनात सफर तय कर रही है ।


उस दिन  के बाद से हमारी सेना ने  पीछे मुड़कर नहीं देखा था ।  अपने राज्य के सबसे वीर योद्धाओं को अपनी सेना में शामिल करके हमने जबरदस्त शक्ति हासिल कर लिया था ।  धीरे-धीरे हमने रणनीति बनाकर अपने आस-पास के सभी सीमावर्ती राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित किया और फिर उन सबकी सम्मिलित टुकड़ी से धीरे-धीरे हमारी सेना इतनी बलवान और शक्तिशाली हो गई थी कि हम खुद आश्चर्यचकित हो उठते थे ।  इतनी समृद्ध और संपन्न सेना के पास अब संपूर्ण विश्व-विजेता के ताज को फतह कर लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था ।  वाकई जब हममें सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेने की शक्ति हो, सामथ्र्य हो और माद्दा भी हो तो फिर भला हम तालाब के मेंढ़क की तरह एक सीमित से दायरे में ही क्यों अपनी जिंदगी गुजार दें, जबकि हमारे सैनिकों के फड़कते हुये बाजुओं में अपार संभावनायें छिपी हुई थी, आसमान की ऊँचाई से जितने हमारे हौसले बुलंद थे और साहस तथा युद्ध की कला में दूर-दूर तक हमारा कोई सानी नहीं था ।

         हमारा देश यूनान आज की तारीख में पूरे आस-पास के राज्यों में भी सबसे समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में स्वर्णाक्षरों में अपना नाम अंकित करवा चुका था ।  और अब भी हमारे सपनों व ख्वाबों में अपरिमित संभावनायें करवट ले रही थी ।

 

विश्व-विजय का स्वप्न देखते हुये हम अपनी विजय पताका फहराते हुये भारत के समीप आ पहुँचे थे ।  हमें जानकारी मिली थी कि संपूर्ण आर्यावर्त छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित है और अब इतना शक्तिशाली नहीं रहा है जितना था ।  हमें लग रहा था कि साधारण सूझ-बूझ से ही इस सोने की चिड़िया को बड़ी आसानी से प्राप्त किया जा सकता है ।



         और धीरे-से हमने भारत की भूमि पर पैर रख ही दिया ।  यहाँ आकर हमने सर्वप्रथम अपनी गुप्तचर व्यवस्था का जाल फैलाया ।  स्थानीय नागरिकों को धन का लोभ देकर उनसे उनके राज्य की तथा आस-पास के राज्यों की जानकारी प्राप्त की ।

         हमने अपना सर्वप्रथम लक्ष्य बनाया भारत के गांधार प्राप्त में उत्तर-पश्चिम सीमा पर बसे तक्षशिला नरेश आम्भी को ।  सिंधु नदी पार करके हम तक्षशिला पर अपने आक्रमण की योजना को हम मूर्तरूप देते इससे पूर्व ही आम्भी ने बिना किसी युद्ध के  अनेकों बहुमूल्य उपहारों के साथ हमारी  अधीनता स्वीकार कर ली ।

         बरसों से युद्ध कर रही हमारी सेना भी थोड़ा विश्राम चाहती थी ।  हमने इस राज्य में पड़ाव डालते हुये कुछ दिन विश्राम का मन बनाया ।  यहाँ स्थित तक्षशिला विश्वविद्यालय का बहुत नाम सुना था ।  यहाँ के राजा द्वारा हमारी अधीनता स्वीकार करने के पश्चात् मौका मिलते ही सबसे पहले इसी विश्वविद्यालय को देखने के लिये प्रस्थान किया ।  गंतव्य तक पहुँचने से कुछ पहले ही मार्ग से ही तक्षशिला विश्वविद्यालय की ज्योति-पताका दूर से ही दिखलाई पड़ रही थी ।  मैंने दूर से ही श्रद्धा से उसे प्रणाम किया जहाँ राजनीति, अर्थ, दर्शन, इतिहास, ज्ञान-विज्ञान रूपी सारे विषय इस विद्यालय के कोष में समाहित है ।


         मन में बहुत पहले से ही इस विद्यालय को देखने की कामना थी, जहाँ देश-विदेश से विद्वान शिक्षा पाने के साथ-साथ विभिन्न खोजों एवं अनुसंधानों के लिये यहाँ आते रहे हैं जिसका कोष शिक्षा रूपी रत्नों से भरा पड़ा था ।

जहाँ विद्या रूपी अथाह ज्ञान का सागर सारे राज्यों व देशों की सीमाओं का अतिक्रमण कर देश-विदेश में चारों तरफ हिलारे लेकर अपनी प्रसिद्धी का गुणगान कर रहा हो, वहाँ अस्त्र-शस्त्र व खून-खराबा यथोचित भी नहीं था ।  दूरदर्शी राजा ने अपने भावी हार को पढ़कर दोनों ही सेना के सैनिकों के युद्ध में हताहत होने से बचा लिया था ।

         भारतवर्ष के भूगोल व परिवेश को जानने, समझने व ठहरकर उसका अवलोकन करने के उद्देश्य से हमने इसी राज्य में कुछ दिनों का पड़ाव लेना उचित समझा ।

         यहाँ से हमने आर्यावर्त के समूचे हिस्से का जायजा लिया ।  हमारा अगला लक्ष्य झेलम और चिनाब नदी के मध्य स्थित कैकेय प्रदेश था ।

         इस पड़ोसी राज्य पर पुरू का शासन था, जो झेलम नदी के उस पार था ।  हमारी यूनानी सत्ता स्वीकार किये जाने की पेशकश को थोड़ी कठोरता के साथ वहाँ के राजा पोरस ने ठुकरा दिया था । 

         हमारी सेना झेलम नदी को पार न कर सके इस बात की इस कैकेय राज्य ने पूरी तैयारी भी कर ली थी ।  वहाँ की इस सुदृढ़ सैन्य व्यवस्था को देखकर हम आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे ।  ऐसे ही इंतजार में कुछ दिन बीत गये ।

         हम आक्रमण की गूढ़ व कूटनीतिक योजना बना ही रहे थे कि तभी झेलम नदी में बारिश की निरंतरता ने उफान ला दिया ।  अपने प्रचण्ड वेग से नदी का प्रवाह उफनता हुआ बढ़ रहा था ।  बारिश की घनघोर घटाएँ भी थमने का नाम नहीं ले रही थी ।  ऐसे में दुश्मन देश के सैनिक हमारे द्वारा किये जाने वाले आक्रमण की जब स्वप्न में भी कामना नहीं कर सकते थे ठीक उसी समय हमने कुशल नेतृत्व व संगठन का सहारा लेते हुये कुछ लकड़ी के मोटे-मोटे लट्ठों से पुल बनाकर हमने अपने घोड़ों को नदी पार कराया ।


 


         पहले तो घोड़ों को उस पार पहुँचाया ।  और खुद भी अपनी सेना के साथ पूरे लाव-लश्कर के साथ झेलम की तेज धार में कूद पड़े ।  हालाँकि नदी के तीव्र प्रवाह में हमने अपने कई साथियों को खो दिया था, फिर भी हमारा अनुमान बिल्कुल सही निकला था ।  घनघोर घटाटोप बारिश में पुरू की चैकन्नी सेना हमारे आक्रमण से निश्चिंत होकर तट से थोड़े दूर बने अपने शिविर में निश्चिंतता के साथ विश्राम के लिये लौट चुकी थी और हमने यही समय आक्रमण का चुना ।

         अचानक हुये इस आक्रमण से पोरस की सेना में खलबली मच गई ।  पोरस इस आक्रमण से थोड़ा विचलित जरूर हुये होंगे, किंतु युद्ध का संचालन अपने पुत्रों के हाथों सौंपकर पोरस ने हमसे भरपूर टक्कर ली थी ।  अपनी शेष बची सेना से उसने हमारी सेना से सामना किया ।  किंतु हमारे धनुर्धारियों की बाणवर्षा से पोरस के अग्रिम पंक्ति गज-सेना घबराकर उल्टी तरफ अपनी ही सेना की ओर दौड़ पड़ी ।  और अंततः पोरस को बंदी बना लिया गया ।

         अगली सुबह राजा पुरू जंजीरों से बाँधकर पोरस सैन्य शिविर में सम्राट के सम्मुख प्रस्तुत किया गया ।  राजा के चेहरे पर हल्की-सी विषाद की रेखाऐं तो थी किंतु सम्मान व स्वाभिमान बंदी बनाये गये राजा के चेहरे और आँखों में अब भी झलक रहा था ।

 

         विजयी सेना के अधिपति सिकंदर ने राजा पुरू की तरफ सीधे-सीधे देखते हुये उससे पहला प्रश्न किया -

‘आपके साथ कैसा व्यवहार किया जाये ?’

‘वही जो एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है ।’ पुरू का जवाब था ।

         सम्राट एकटक अवाक् से उस जंजीरों व बेड़ियों में बँधे पराजित राजा की तरफ देखते हुए एक राजा की आँखों को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे । 

         स्वाभाविक तौर पर ऐसे मौके पर जीता हुआ राजा पराजित दुश्मन को मृत्युदंड का आदेश ही देता है ताकि दुश्मन भविष्य में सिर उठाने की जुर्रत न कर पाये ।

         किंतु नहीं !  सम्राट ने ऐसा नहीं किया ।  हमारी दृष्टि दूर तक थी हमारा लक्ष्य पराजित दुश्मन को बदले की भावना के तहत अंजाम तक पहुँचाना नहीं था  । जब व्यक्ति एक महान् लक्ष्य को अंजाम देने के लिये निकला हो और पूरे विश्व को जीतना चाहता हो तब छोटी-मोटी दुश्मनी और बदले की भावना से मुक्त होकर एक गहन दूरदर्शी सोच के साथ कदम आगे बढ़ाना पड़ता है ।

         किंचित मुस्कुराते हुये सम्राट ने कहा – ‘आप वास्तव में महाराजा कहलाने योग्य हैं ।  सिकंदर आपसे मित्रता का हाथ बढ़ाता है ।‘

  आश्चर्यजनक ढंग से सम्राट ने न केवल क्षमादान दिया बल्कि उसे उसका राज्य भी लौटा दिया साथ ही आस-पास के जीते हुये छोटे-छोटे राज्यों के साथ उसके राज्य को संगठित कर सुदृढ़ता भी प्रदान की ।  यह नीति हमारे दूरदर्शी सम्राट सिकंदर की थी जिसने भविष्य में इस कदम की श्रेष्ठता को प्रमाणित भी किया ।

        

इसके पश्चात् अपनी सेना के साथ हमने चिनाब के पश्चिम में स्थित जनजाति प्रदेश में प्रवेश किया ।  इन लोगों ने हमारे समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया ।  इस प्रदेश को भी हमने पोरस के शासन में मिला दिया ।  चिनाब नदी को पार करने में हमें पर्याप्त क्षति उठानी पड़ी थी ।  इसके बाद हमने रावी नदी को पार किया ।  इस क्षेत्र में कठों का राज्य था ।  कठ बिना युद्ध के अपनी स्वतंत्रता समर्पित करने वाले नहीं थे ।  कठों के ऊपर विजय प्राप्त करना हमारी सेना के लिये बहुत महँगा पड़ा ।  इस युद्ध में हमारे बहुत से सिपाही मारे गये तथा युद्ध की भयानकता ने हमारे बचे हुये सिपाहियों के उत्साह  को भी भंग कर दिया   किंतु अंततः विश्व-विजेता का सपना अपनी आँखों में संजोये विजय पताका फहराते हुये हमने सौमुति राज्य में प्रवेश किया ।  यहाँ की सेना ने भी हमारे समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया ।



व्यास नदी के किनारे पहुँचने पर हमें यह पता चला कि उस पार की उर्वरा भूमि पर बड़े ही वीर खेतिहरों  का राज्य है ।  उनकी शासन व्यवस्था सशक्त है ।  यही नहीं इस गणराज्य के उस पार विशाल नंद साम्राज्य है जिसकी विशाल सेना में हाथियों की बहुलता है ।  इन सूचनाओं से हमारे सैनिक हतोत्साहित होने लगे ।  हमारे लाख समझाने-बुझाने के बावजूद हमारे सैनिकों ने व्यास नदी से आगे बढ़ने से इंकार कर दिया ।  विवश होकर हमने झेलम नदी के मार्ग से अपने देश वापस लौट जाने की योजना बनाई ही थी कि अचानक आश्चर्यजनक ढंग से सम्राट अस्वस्थ हो गये ।  उनकी बीमारी लगातार बढ़ती ही जा रही थी

 

        

नियति को शायद यही मंजूर था ।  आने वाले जमाने के सामने विश्व-विजेता महान् सम्राट सिकंदर अपने जीवन के आखिरी साँस में सिर्फ़ एक दिन की मोहलत के लिये अपना सारा धन सारा ऐश्वर्य और सारी ख्याति लुटा देने पर आमादा था । सारे सैनिक सिर झुकाये अपने महान् सम्राट के पार्थिव शरीर को घेरे हुये खड़े थे । 

          सम्राट द्वारा देखा गया सपना अकेले उन्हीं का सपना बन कर नहीं रह गया था ।  जागती आँखों से देखे गये उस सपने को मूर्त रूप देने के लिये यह जरूरी था कि सम्राट द्वारा देखा गया सपना  सेना के हर योद्धा की आँखों में उतर जाये ।  विश्व-विजेता का स्वप्न हर योद्धा द्वारा देखे जाने पर ही साकार हो सकता था  किंतु आज इन आँखों के बंद होने के साथ-साथ ऐसा लग रहा था जैसे जीवन की अर्थहीन सच्चाई के सिवा हमने कुछ भी हासिल नहीं किया ।

बरगद की शाखायें अपने हिस्से का आसमान छू लेने के पश्चात् झूलती हुई लटों के साथ अपनी ही नींव के पास लौट आने को आतुर हो उठती है । श्रेष्ठता की अनुभूति से सराबोर जिंदगी अपने श्रेष्ठतम ऊँचाई पर बहुत छोटी लगने लगती है ।


आज लग रहा था कि ऊँचाई आकृष्ट तो करती है किंतु बर्फ़ से ढँकी पर्वत श्रृंखला की सर्वोच्च चोटी पर पहुँचकर सिवाय शून्य के और कुछ बचा नही रह जाता ।   

आसमान में कल के अँधियारे की चादर अपना रंग बदलने के प्रथम पायदान पर खड़े होकर क्षितिज के साथ धरती को भी सुप्तावस्था की एक लंबी निद्रा से जगाने के लिये मेरी खिड़की से उत्सुक दिखाई दे रही थी । 

         सम्राट के उस अनपेक्षित अवसान के पश्चात् कल की रात लगभग आँखों में जागते हुये ही बीत गई थी ।  मूक भाषा में ही सेना के सभी लोगों ने यहाँ से अपने लाव-लश्कर को समेटकर वापस अपने देश  जाने का निर्णय ले लिया था ।  रात में काफी देर तक सैनिकों द्वारा लश्कर को समेटे जाने की आवाजें रात के सन्नाटे को चीरकर बीच-बीच में मेरे कानों से टकरा रही थी ।  सम्राट के न रहने के दुःख व भारीपन के साथ भी वे अपने देश में वापस लौटने की उत्कंठा व उत्साह से भरे हुये निद्रा के बोझिल भार को अपनी पलकों पर समेटे हुये ही स्वदेश लौट जाने की तैयारी करते रहे थे ।

         सुबह जल्दी उठने की ऐसी आदत-सी पड़ गई थी कि रात कितनी ही देर से सोया होऊँ अल्लसुबह आसमान के रंग बदलने से पूर्व ही मेरी नींद खुल जाती थी ।  नींद खुल तो गई थी किंतु हमेशा बदन में रहने वाली सतर्कता, सजगता व पहले वाली चुस्ती व फुर्ती का अहसास न तो मन में था न ही तन में ।  एक अजीब-सा थका देने वाला आलस्य तन-मन में छाया हुआ था ।  कठिन से कठिन युद्ध व अनेकों लड़ाईयों को अंजाम देने के बाद भी ऐसी थकान कभी महसूस नहीं की थी ।  अपना नेतृत्व खो देने के पश्चात् एक दिशाहीन गंतव्य शायद ऐसी ही थकान से ग्रस्त कर देता है ।

         मन को संयम रूपी अदृश्य कोड़े से  अनुशासित करता खुद पर काबू रखता मैं

बाहर आया ।

सामने घने छायादार पीपल के वृक्ष पर बैठी चिड़ियों का झुण्ड धरती पर सूरज की प्रथम किरण के दस्तक देने से पूर्व ही रंग बदलते आसमान में पंख फड़फड़ाकर अनंत आसमान में स्वयं को विस्तार देने के लिये आतुर-सी लग रही थी ।

 


सूर्योदय का समय प्रकृति का खूबसूरत व अनमोल दृश्य होता है । 

स्वर्णिम अनमोल छटा बिखेरते बेताज़ बादशाह की ठसक के साथ सूरज के आगमन को रोज देखने के बाद भी प्रकृति के दृश्य को अपनी आँखों में कैद करने के लिए एक छोटे-से बालक की तरह ही उतावला-सा हो उठता हूँ । 

ऐसा लगता है जैसे उगता हुआ सूरज अपनी अपरिमित व अनंत ऊर्जा से एक छोटा-सा अंश हर सुबह मेरे भीतर संप्रेषित कर रहा हो । उस अपार ऊर्जा को अपने भीतर महसूस करता हुआ मैं रोज एक नये जोश उत्साह व ऊर्जा से भर उठता हूँ । 

एक कुशल योद्धा व साहसी सैनिक के रूप में मेरी ताकत का स्रोत प्रारंभ से ही दूर क्षितिज में अपने नियम को कभी न तोड़ने वाला प्रखर किरणों का भंडार यह सूरज ही रहा है ।  मैं आज तक इसके आकर्षण से खुद को मुक्त नहीं कर पाया ।

         आज सूरज की तरफ देखते हुये बरसों पूर्व की वह घटना याद आ गई ।

दार्शनिक व प्रमुख विचारक डायोजिनीस  एक टब में सोने तथा रहने के लिये विख्यात था क्योंकि वह इससे अधिक जगह रहने के लिये आवश्यक नहीं समझता था ।

दिन के समय लालटेन जलाकर एक संपूर्ण आदमी की तलाश में घूमने के लिये भी संपूर्ण राज्य में प्रसिद्ध था ।  पता नहीं उसे कभी कोई संपूर्ण आदमी मिला या नहीं  किंतु उसकी प्रसिद्धी देखकर एक बार सम्राट सिकंदर भी उनकी कदमबोसी के लिये पहुँचे ।  मैं उनके साथ ही था।

  मुझे थोड़ी दूरी पर ही रूकने का इशारा करके सम्राट धीरे-धीरे उसके करीब पहुँचे थे ।  मुझे आज भी वह दृश्य अच्छी तरह याद है, डायोजिनीस उस समय भी अपने टब में लेटा हुआ था ।  थोड़ी देर की चुप्पी के पश्चात् सम्राट ने वहाँ पसरी हुई खामोशी और मौन को तोड़ते हुये अपना परिचय देते हुये पूछा ‘‘क्या मैं तुम्हारे लिये कुछ कर सकता हूँ ?’’ उस अजीबोगरीब-सी वेशभूषा में लेटे उस शख्स ने निस्पृह भाव से जवाब दिया था, ‘हाँ बस मुझ तक वह थोड़ी-सी धूप आने दो जो तुमने रोक रखी है ।‘


 

मुझे अच्छी तरह याद है इस बेतकल्लुफ उत्तर को सुनकर मुझे उस समय बहुत क्रोध आया था  किंतु बादशाह यह कहते हुये उसके सामने से हट गये थे  

‘यदि मैं सिकंदर न होता तो अवश्य डायोजिनीस बनना पसंद करता ।‘  जीवन में एक टुकड़ा धूप कितना बेशकीमती व अनमोल होता है, यह मैं उस दिन तो नहीं जान पाया था किंतु आज उस की अहमियत अच्छी तरह समझ गया हूँ । 


हमारे दल के साथ सबसे आगे-आगे महान सम्राट सिकंदर का प्रिय घोड़ा चल रहा है  किंतु उसकी चाल में वह तेजी व ठसक नहीं है ।  ।  पदचाप की आवाज से वह ठिठक जाता है । ढूँढ़ती निगाहों से पीछे की तरफ देखता है  फिर सुस्त चाल से आगे की ओर बढ़ जाता है ।

         हम समझ रहे थे किंतु हम योद्धा थे । जीवन व मृत्यु के वरण का पाठ हम तलवार की मूठ़ को हाथ में पकड़कर ही आत्मसात कर लेते हैं ।

 

         विश्वास ही नहीं हो रहा था, कि यह हमारे सम्राट का वही घोड़ा है जो रणक्षेत्र में एक शूरवीर योद्धा की तरह दूर से ही सबसे अलग और फुर्तीला दिखता था ।  वही आज अकेला निस्तेज सुस्त चाल के साथ हमारे कारवाँ के साथ आगे बढ़ रहा है।  सम्राट की गैरमौजूदगी में सूनापन व खालीपन का अहसास किसी भी तरह कम नहीं हो रहा था ।  सदियाँ भी इस रिक्तता के अहसास को शायद ही कभी भर पाये ।  विश्व-विजेता का ताज व खिताब सब कुछ साथ में था किंतु तब भी न जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे हमारे ही सेना की टुकड़ी के पीछे घोड़ों की टापों के साथ उड़ने वाली धूल जब थमेगी तब अपने साथ-साथ न जाने कितना कुछ अपने पीछे इतिहास के गर्त में दफन कर चुकी होगी । 

कभी कोई इतिहास को जानने की चेष्टा करता हुआ समय पर जमी धूल को झाड़कर उन पन्नों को पलटने की चेष्टा करेगा तब  शायद हमारे कदमों की आहट महसूस कर सके ।           

अपने घोड़े से उतरकर मैंने सम्राट की निशानी सम्राट के घोड़े की पीठ पर बाँध दिया ताकि वह स्वयं को अकेला-सा महसूस न करे

रास्ते में हम विश्राम के लिये रूके थे ।  शायद यहाँ अभी थोड़ी देर पहले ही बारिश की रिमझिम बूंदें पड़ी थी क्योंकि यहाँ की धरती गीली व नम थी । कहीं-कहीं बारिश का पानी भी छोटी-सी तलैया का आकार लेता हुआ इकट्ठा हो गया था । अचानक मेरा घोड़ा रास्ते के करीब ही एक छोटे-से गड्ढ़े में भरे हुये पानी के पास आकर रूक गया ।  शायद उसे प्यास लगी थी ।  उसने अपने सिर को हल्का-सा हिलाकर अपनी मूक भाषा में संकेत किया ।  उसके मन की भाषा भाँपते हुये उसकी लगाम को अपनी पकड़ से स्वतंत्र करते हुये मैं नीचे उतर आया ।  उस छोटे-से तलैयानुमा आकृति में नीला आसमान दिखाई दे रहा था ।  ऐसा लग रहा था जैसे एक मुट्ठी आसमान यहीं इसी धरती पर उतर आया हो ।


        

छोटे-से तलैया में एक मुट्ठी आसमान को अपने ठीक सामने धरती पर उतरा हुआ देखकर ऐसा लग रहा था कि जब सृजनकार ने अपने रंगों से आसमान का सारा संसार धरती पर हमारे कदमों के ठीक नीचे  सजा दिया है तो धरती के विस्तार को नाप लेने की उस पर विजय पताका फहरा लेने की कामना को हमारी भूल नहीं कहेंगे !

         जो सपना खूबसूरत विशाल और श्रेष्ठतम लगता था आज ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे सब कुछ हमारी ही मुट्ठी में होते हुये भी एक मृग की तरह हम कस्तूरी पाने के लालच में जीवन भर इतने बड़े और विशाल दल-बल के साथ भटकते ही रहे ।

         सम्राट सिकंदर के पश्चात् सैन्य शिविर में साथियों से विचार-विमर्श करके अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि रावी नदी पार कर अपने सैन्य अभियान को आगे बढ़ाने की बजाय हम वापस लौट जायेंगे ।

 सूरज के आगमन के पश्चात् अपने शिविर में मैं अकेला विचारों में खोया हुआ था । सैन्य शक्ति व सामर्थ्य होते हुये भी क्या हममें इतना साहस नहीं है कि सम्राट सिकंदर का नाम आने वाले समय में स्वर्णाक्षरों में लिखकर हमेशा-हमेशा के लिये अमर कर दें ।

         विश्व-विजेता के सपने को पूरा करने का बाहुबल अब भी सैनिकों में मौजूद है । कल से लगातार छाई हुई उदासी को अपने मानस से एक झटकते हुये मैं उठ खड़ा हुआ ।  मुझे अपने सैनिकों से विचार-विमर्श कर मंत्रणा करनी थी । उनके हतोत्साहित मन में उल्लास व साहस का संचार करना था । सम्राट सिकंदर के द्वारा देखे सपने को उनके न रहने के बाद भी सच करके संपूर्ण धरती के मानचित्र पर हमेशा के लिये अमर कर देना था ।

         तेजी के साथ कदम आगे की तरफ बढ़ाता मैं अपने सिपाहियों के शिविर की तरफ बढ़ा चला जा रहा था ।  मैंने निर्णय ले लिया था अब उसे कार्यरूप में परिणित करने के लिये अपने सैनिकों के परामर्श सहयोग तथा साथ की जरूरत थी ।

         अपने सैन्य संगठन में नया जोश व उत्साह भरते हुये सम्राट सिकंदर द्वारा देखे सपने को अपने बाहुबल से पूर्ण करने का बीड़ा उठाते हुये हमने सिन्धु नदी के किनारे एक विशाल सेना के साथ अपना पड़ाव डाला ।

अब हमारा लक्ष्य आर्यावर्त के सबसे शक्तिशाली राज्य मगध पर अपनी विजय-पताका फहराना था ।  मगध शासनकाल अभी उलट-पुलट के दौर से गुजर रहा था ।  वहाँ के बागडोर की कमान नये राजा चन्द्रगुप्त ने ली थी ।  अभी-अभी तख्ता पलट हुये इस विशाल राज्य पर विजय का सेहरा बाँधना हमें बहुत ही आसान लग रहा था । यह तय सी बात थी कि मगध पर विजय हासिल करते ही लगभग समूचे आर्यावर्त पर हमारा दबदबा व शासन कायम हो जाता  ।

         अभी हम अपनी योजनाओं पर अमल करने के विचार से मंत्रणायें कर ही रहे थे कि खबर मिली कि अपनी विशाल अश्वारोही सेना के साथ चन्द्रगुप्त खुद हमारी ओर ही बढ़ता चला आ रहा है । 

आश्चर्य ! हमें तो लगा था कि हमारे आक्रमण से भयभीत होकर वे हमारी तरफ सन्धि का प्रस्ताव रखेंगे या हमारी अधीनता स्वीकार कर लेंगे किंतु इन सारी धारणाओं को गलत ठहराते हुये खुद हमारी  तरफ चले आ रहे हैं!

  अभी राजा बने कुछ ही अरसा बीता होगा और ऐसा निःशंक आत्मविश्वास!  खैर ! समय ज्यादा सोच-विचार का नहीं था ।  एक योद्धा की तरह हमने कमान व मोर्चा दोनों संभाल लिये ।

          

 


गगनभेदी गर्जना के साथ घमासान युद्ध का आरंभ हो चुका था ।  युद्ध से पहले जिस जीत के लिये हम पूर्णतः आश्वस्त थे वास्तव में यह जीत इतनी आसान नहीं थी  जितना हम समझ रहे थे । मगध के इस सम्राट की शक्ति व  सामर्थ्य का हमारा आकलन व अनुमान गलत सिद्ध हो चुका था ।  पहली बार युद्ध के दरम्यान मेरे अंदर शंका पैदा हुई थी कि न जाने इस युद्ध में किसका पलड़ा भारी बैठे !


विश्व-विजय पर निकले हमारे इस अभियान को विश्राम देते हुये मगध की सेना ने युद्ध का पासा पलट दिया ।  जिस चन्द्रगुप्त की पराजय निश्चित लग रही थी उसने अचानक तूफान का रूप धारण कर लिया  और बात की बात में हमारी सेना को पराजित करते हुये मुझे बंदी बना लिया गया ।


पाटलीपुत्र का राजदरबार ! सभी राजदरबारी यथास्थान अनुशासित बैठे हैं ।  बिगुल ध्वनि के साथ ही उद्घोषक की उद्घोषणा सुनाई पड़ी – ‘मगधपति सम्राट चन्द्रगुप्त प्रधार रहे हैं ।‘

         साथ ही दूसरी उद्घोषणा हुई – ‘महानीतिज्ञ मगध के भाग्यविधाता चाणक्य राजदरबार में पधार रहे हैं ।‘

         चन्द्रगुप्त का सामना मैंने युद्धभूमि में किया था ।  बिजली से चपल व जबरदस्त ऊर्जा व फुर्ती से भरे इस युवक के युद्ध कौशल पर दूर से ही मेरी नजर पड़ चुकी थी ।  यही है वह युवक जिसने सत्ता की बाजी पलटकर साम्राज्य अपने अधीन कर लिया था ! आश्चर्य !

         मुझे उत्सुकता थी इस उद्घोषणा के दूसरे नाम ‘चाणक्य’ पर ।  मेरा ध्यान इस नाम पर केन्द्रित था ।  चन्द्रगुप्त के साथ ही चाणक्य का नाम बार-बार मंत्रणा में उछलता रहा था । चन्द्रगुप्त को राजसिंहासन पर बिठाने में सुना था कि इस ब्राह्मण पंडित का बड़ा योगदान है ।  इस शख्सियत से मिलने की मेरी शुरू से  इच्छा थी ।  जब तक्षशिला नरेश आम्भी हमारे अधीन थे तब सुना था कि चाणक्य विष्णुगुप्त के नाम से आचार्य के पद पर अध्यापन कार्य कर रहे थे ।

चंद बरसों में ही यह आचार्य सत्ता के खेल का इतना कुशल बाजीगर बन बैठा था कि बंदी  रूप में आज हम पाटलीपुत्र के राजदरबार में उपस्थित हैं ।

         उत्सुकता से मेरी निगाह उधर उठ गई थी ।  एक जीते हुये वीर सेनापति की सी चाल   से चन्द्रगुप्त आकर अपने सिंहासन पर बैठ गया । 


तभी एक ब्राह्मण वेशभूषाधारी व्यक्ति वहाँ आया ।  शक्ल तो यह पूजा-पाठ कराने वाला मंदिर का पुजारी प्रतीत होता था ।

         मुझे भाँपने में देर नहीं लगी कि चंद्रगुप्त मौर्य के साथ इस साम्राज्य मे जिस सबसे शक्तिशाली व्यक्ति का नाम बहुप्रचारित है यह वही चाणक्य है । उसका चेहरा चाल ढ़ाल उसके देखने का अंदाज ऐसा लग रहा था कि यह शख्स और इसका जादू़ केवल मगध प्रान्त तक सीमित नहीं है ।

         इस चुटियाधरी ब्राह्मण की वेशभूषा व पहनावा जरा विचित्र किस्म का है जो अजीब-सा लग सकता है किंतु उसकी आँखें ऐसी थी जैसी आज तक मैंने किसी की नहीं देखी । ऐसा लग रहा था मानो एक पूरा युद्ध उसकी आँखों में चल रहा हो ।

मैंने तो अपना जीवन ही युद्ध क्षेत्र में गुजार दिया था किंतु बिना कोई अस्त्र शस्त्र धारण किये जीवन से जुड़ा युद्ध अपने भीतर जी रहा  था यह देखने की बात थी ।

 उस शख्स को प्रणाम करने के लिये मेरे दोनों हाथ स्वमेव  जुड़ गये थे ।  जवाब में उस शख्स ने मेरे दोनों हाथों को अपनी मजबूत हथेली में थाम लिया था ।  उन हाथों के घेरे के भीतर मुझे लगा था जैसे मैं एक अदृश्य से सुरक्षा कवच के भीतर खड़ा हूँ जहाँ मुझे कोई छू नहीं सकता ।

         जिस साम्राज्य से युद्ध की रूपरेखा मेरे मस्तिष्क में कई दिनों से चल रहा था ऐसा लग रहा था वह लड़ाई मैं हार कर भी जीत गया हूँ ।

कई बार हम युद्ध के लिये खुद ही परिस्थितियाँ तैयार कर लेते हैं जबकि सामने खड़ा प्रतिद्वन्द्वी आपसे युद्ध के बारे में सोच भी नहीं रहा होता ।  हम अपने मानस में ही युद्ध खेलने के इतने आदी हो चुके होते हैं  कि युद्ध के चक्रव्यूह से निकलने की कोशिश भी नहीं करते । 

         बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से चाणक्य ने खड़े हो कर मेरा स्वागत करते हुये कहा - ‘‘आर्यावर्त के मगध साम्राज्य में यूनान के सम्राट का स्वागत है ।’’

        

 


मैं उस ब्राह्मण के व्यंग्य को नहीं समझ पाया ।  मुझे ‘यूनान के सम्राट’ के रूप में संबोधित करने से भला उनका क्या तात्पर्य हो सकता है ।  सभी को यह बात अच्छी तरह पता थी कि यूनान के सम्राट सिकंदर अब इस दुनिया में नहीं रहे ।  उनके बाद मैं ही यूनान की बची-खुची सेना को संग्रहित कर उनका संचालन करता हुआ सम्राट द्वारा देखे गये विश्व-विजेता के अभियान रूपी स्वप्न को साकार करने का अभियान जारी रखे हुये हूँ ।  क्या सिर्फ इसी कारण से इस पंडित ने मुझे ‘यूनान सम्राट’ से संबोधित कर दिया!

         मैंने शांत व संयत लहजे में कहा – ‘क्या अतिथि को इसी तरह लज्जित करते हैं !  आप जानते हैं कि मैं एक बंदी हूँ सम्राट नहीं ।‘  

मेरे प्रत्युत्तर पर चाणक्य ने मधुर वाणी के साथ अपनत्व दिखाते हुये कहा - ‘भारतवासी अतिथि को भगवान समझता है यूनानाधिपति ।  और फिर कौन कहता है कि आप सम्राट नहीं ।  यूनान और भारत एक हो सकें इसीलिये हमने आपको मैत्री-भाव से अतिथि स्वरूप बुलाया है ।  इसमें कोई संदेह नहीं है ।’

         दूर कहीं अनंत में देखते हुये ब्राह्मण ने गंभीरता के साथ कहा - ‘मैं चाहता हूँ कि यूनान और भारत के संबंध ऐसे हों जो किसी भी तलवार से नहीं कट सके ।’

अपनी स्थिति का भान करके मैंने संभलते हुये कहा  ‘पराजित होकर दया-स्वरूप मित्रता कर लेना और प्राणों की भीख माँगने में कोई अंतर नहीं है । आप जानते हैं कि एक वीर पुरूष प्राणों की भीख कभी नहीं माँगता ।’  अंततः मेरी वाणी में क्षुब्धता के भाव परिलक्षित होने लगे थे ।

         मेरे मन के भाव ताड़ते हुये ब्राह्मण ने कहा - ‘जीवन में जय-पराजय तो चलती ही रहती है ।  किसी अच्छे काम के लिये हारने वाला भी यश का भागी होता है किंतु कुत्सित विचारों से हुई जय भी अपयश ही दिलाती है ।  एक राजा के लिये राज्य विस्तार अच्छी बात है परंतु निरीह लोगों की हत्या कर उनके रक्त से बना राज्य क्या सुखकारी होगा!

         गहराई से उतरकर सीधे-सीधे मेरी आँखों में झाँकते हुये चाणक्य ने गुरू-गंभीर वाणी  में पूछा - ‘तुम्हीं बताओ क्या  प्राप्त हुआ  तुम्हें नरसंहार करके!   क्या आत्मशांति मिल पाई! आओ गले मिलकर मित्रता का अमृत पियो जो परम-शांति देता है ।‘  शांत भाव से वह आगे बढ़कर मित्रता के लिये मुझे आमंत्रित कर रहा था!

         ‘आपकी सभी बातें उचित हैं परंतु एक पराजित व्यक्ति से आप किस मित्रता की अपेक्षा रखते हैं मैं समझ नहीं पाया ।‘

प्रश्नसूचक आँखों से देखते हुये मैंने पूछा ।

         इस बार उस ब्राह्मण के होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर गई । 

‘तुम क्या चाणक्य को कोई भी नहीं समझ पाया है ।  तुम्हें सोचने का अवसर है भली प्रकार सोचकर उत्तर देना ।‘

  मुझे आश्वस्त करते हुये सभा-भवन से अलग एक कक्ष में ले गये ।  वहाँ अर्थपूर्ण ढंग से कहा - ‘यूनान सम्राट हम पर्याप्त विचार-विमर्श और सोच-समझकर यह प्रस्ताव आपके समक्ष रख रहे हैं ।  सम्राट चन्द्रगुप्त और तुम्हारी पुत्री हेलन अगर इस संबंध को परिणय में परिणित कर दें तो यूनान और भारत एक ऐसी भावना और संबंध में बँध जायेंगे जिसे तोड़ना किसी के लिये भी संभव नहीं होगा । इतिहास इस घटना को सदैव याद रखेगा ।‘ 

‘मैंने अपनी बात तुम्हें कह दी है अब निर्णय तुम्हारा है उसके बाद तुम्हारा स्वागत है ।‘

         मैं इस महापुरूष के दूरदर्शी प्रस्ताव के रहस्यों में डूबता-उतराता हुआ अतिथिगृह की ओर चल दिया जहाँ राजकीय सम्मान के साथ मु्झे ठहराया गया था ।

         ‘इतना रक्तपात हुआ क्या मिला हमें! अपने जीवनकाल में आज पहली बार न जाने कैसे मैं अपनी जगह उस ब्रह्म पंडित की भाषा में सोच रहा हूँ ।  ‘धन्य है यह देश जो दुश्मन के साथ भी अतिथि जैसा व्यवहार कर रहा है ।’

         चाणक्य इस युग के बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ हैं ।  यह उनकी दूरदर्शी कूटनीति का हिस्सा तो नहीं!

         क्या धर्म इस संबंध में बाधक नहीं होगा!

  ‘मैं समझता हूँ कि चाणक्य के समक्ष इस बहस में पड़ने का साहस कोई नहीं कर पायेगा ।  उनकी आँखों में उनकी वाणी में ऐसा ओज है कि विपक्षी टिक नहीं पाता ।’

         चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को हेलन से विवाह के लिए आशान्वित कर दिया था ।  इस तरह इतिहास की इस अद्वितीय घटना की स्वीकृति दोनों ओर से हो गई ।

         इस घटना की स्वीकृति दोनों पक्षों की तरफ से हो गई थी किंतु मगध की प्रजा में जब यह चर्चा धीरे-धीरे फैलनी प्रारंभ हुई तो जैसी कि आशंका थी, लोगों की विचारधारा बिल्कुल अलग थी ।  एक विजातीय कन्या से विवाह ?  वह भी मगध सम्राट का!  धर्म के कट्टरपंथी विद्रोह कर उठे ।  प्रजा में वैसे ही कानाफूसी हो रही थी ।

         चाणक्य को जैसे इस सबका अनुमान पहले से ही था ।  चन्द्रगुप्त इस परिस्थिति से चिन्तित हो गए थे किंतु चाणक्य हमेशा की भाँति एक रहस्यमय शांति लिये हुथे थे ।

         चाणक्य ने राज्य भर में यह घोषणा कर दी कि ‘जो भी इस विवाह के विरूद्ध हो वह तीन दिन पश्चात् अपने तर्क लेकर राजदरबार में उपस्थित हो ।  हम खुली सभा में उनकी आपत्ति पर न्यायपूर्वक निर्णय करेंगे ।‘

         जो विरोध प्रत्यक्ष रूप से सामने आने लगा था इस घोषणा से शांत होने लगा ।

         तीन दिन पश्चात् एक विशाल प्रांगण में भीड़ एकत्र हो गई ।

         प्रांगण में एक विचित्र-सा शोर था । कुछ पंडित लोगों को अपने तर्क से समझाने का प्रयास कर रहे थे । चाणक्य के आते ही एक चुप्पी-सी छा गई थी ।  चाणक्य ने एक तीक्ष्ण दृष्टि उपस्थित अभ्यागतों पर डाली ।  फिर उनको आदरपूर्वक आसन ग्रहण करने के लिये कहा और स्वयं भी अपने आसन पर बैठ गये ।

         आगंतुकों को संबोधित करते हुये उन्होंने कहा - ‘आज इस सभा में अपनी आपत्ति निर्भय होकर कहें ।‘

         यह चाणक्य की ओजस्वी वाणी का ही चमत्कार था उस समूह में से कोई भी व्यक्ति प्रतिरोध के लिये खड़ा होने में झिझक रहा था ।  बहुत ही अंतद्वंद के पश्चात् एक ब्राह्मण साहस करते हुये थोड़े क्रोध से बोले - ‘मैं मगध के नागरिकों की ओर से कहना चाहता हूँ कि यूनान की राजकुमारी विजातीय कन्या से मगध सम्राट चन्द्रगुप्त का विवाह अधर्म है, इससे वर्ण-संकर संतान होगी ।  धर्म इसकी स्वीकृति नहीं देता ।‘

         इस बात से जैसे सबको बल मिला हो सबने साहस करके एक स्वर में कहा - ‘हाँ हाँ यह विवाह नहीं हो सकता ।  हम धर्म के विरूद्ध कुछ नहीं होने देंगे ।‘

         पंडितों के इस तरह अनुशासनहीन विरोध से चाणक्य की भृकुटि पर बल आने लगे थे किंतु खुद को रोकते हुये उन्होंने थोड़े गंभीर स्वर में कहा - ‘चाणक्य के होते मगध में धर्म और नीति विरूद्ध कुछ भी नहीं हो सकता, ऐसा विश्वास कीजिये ।‘

 

         ‘यूनान की राजकुमारी भारतीय संस्कृति से पूर्णतया परिचित है और आप सोचिये इस विवाह से मानवता का कितना उपकार होगा ।  भारत यूनान के आक्रमण से हमेशा के लिये मुक्त हो जायेगा ।  यूनान के रूप में एक शक्तिशाली मित्र पाकर मगध और भी शक्तिशाली हो जायेगा ।  भारत की संस्कृति का विस्तार होगा ।‘

         चाणक्य और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे किंतु वह पंडित अपनी धर्मान्धता में कुछ भी समझ नहीं पा रहा था ।  क्रोधित होता हुआ वह बोला - ‘शत्रु की पुत्री वह भी विजातीय ।  यह विवाह नहीं होगा ।’

         चाणक्य का मुखमंडल क्रोध से आरक्त हो गया ।  उन्होंने गंभीर स्वर में कहा - ‘हाँ, तो मान्यवर ! आपको यह विवाह स्वीकार नहीं है ?  आप सभी सुन लें, आँख मूँदकर शासन नहीं चलता ।  आप वहाँ तक नहीं सोच सकते जहाँ तक मैं सोच पा रहा हूँ ।  इस विवाह से जो शुभ परिणाम निकलेंगे उनसे मैं आप लोगों को परिचित करा चुका हूँ ।  व्यर्थ की रूढ़िवादिता राष्ट्र के भविष्य को अंधकार की ओर ले जाये, चाणक्य के होते यह नहीं हो सकता ।  धर्म अपनी जगह है  किंतु राष्ट्र उससे भी बड़ा है ।  जब सभी ओर से युद्ध का भय होगा तब क्या धर्म राष्ट्र को बचा पायेगा ?  राष्ट्र को केवल शांति और प्रेम ही आगे बढ़ा सकते हैं । यही प्रत्येक धर्म का मूल है ।‘

 

        

अपनी नजर सभी पर डालते हुये वे आगे बोले - ‘और हाँ जो भी धर्माधिकारी यहाँ उपस्थित हैं, वे कितने धर्मनिष्ठ हैं यह मैं भली प्रकार जानता हूँ ।  प्रत्येक की जन्मपत्री मेरे पास है । अगर कहें तो राज्यसभा में पढ़ दूँ ।’

         चाणक्य के इस गर्जन ने उन पंडितों की क्रोधाग्नि को एकदम शांत कर दिया ।  कोई भी चाणक्य से तर्क करने के लिये तत्पर दिखाई नहीं दे रहा था ।  एक विचित्र-सा सन्नाटा राज्यसभा में छा गया था ।

         काफी देर तक चुप्पी देखने के बाद चाणक्य ने एक बार फिर कहा - ‘क्या और कुछ पूछना है किसी को ।‘

         सभी पंडितों ने एक-दूसरे की ओर देखते हुये कहा – ‘हमने सोचा है कि मगध की सुख-समृद्धि के लिये यूनान और भारत को एक हो ही जाना चाहिये ।‘

         चाणक्य मन ही मन मुस्कुरा उठे ।  वे जानते थे कि यही होगा ।

         जो इस विवाह का विरोध कर रहे थे उन्होंने मंत्रोच्चार द्वारा विधिवत् चन्द्रगुप्त और हेलन का विवाह संपन्न कराया ।


    


मुझे लग रहा था मानो मेरी छोटी-सी बिटिया की पोटली में सिमटी तमाम छोटी-मोटी चीजों के बीच इस धरती के सबसे खूबसूरत नगीने  से मैंने उसकी झोली भर दी हो ।  इससे खूबसूरत तोहफा भला उसके लिये और क्या हो सकता था ।

         मुझे अहसास हुआ कि चाणक्य की दूरदर्शिता ने भयानक युद्ध की विभीषिका को समूल नष्ट करके ऐसे शांति-सूत्र का प्रतिपादन किया, कि दो ऐसे राष्ट्र जो शत्रु थे वेअटूट प्रेम बंधन में बँध गये ।

          

         जिस तरह उसने धर्म नीति और भविष्य की दूरगामी सोच को विस्तारित अंजाम देते हुये सभा में ब्राह्मों को वाक्कला में पराजित किया था मुझे लग रहा था कि हमने  केवल युद्ध रूपी विभीषिका को अंजाम दिया है । आक्रमण के पश्चात् हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ।  आँधी तूफान की तरह हमारे प्रस्थान के पश्चात् युद्ध हमारे पीछे क्या मंजर छोड़ता है, न तो हमने पलटकर देखने की कोशिश की न ही कभी उस बिखराव व विनाश को समेटने की चेष्ट की ।

किसी राज्य को जीत लेना ही विजय नहीं होता । जनता को अपने पक्ष में करते हुये अत्यंत सावधानी के साथ सतर्कता बरतते हुये देश का कुशल संचालन ही असली विजय होती है ।

वास्तव में विश्व-विजेता का दर्जा भी इन्हीं धीर-गंभीर व सशक्त कंधों को जाता है । 

         पहली बार ऐसा लग रहा था जैसे इतने राज्यों की सीमाऐं लाँघने व इतने राष्ट्रों पर विजय पताका फहरा लेने के बाद आज इस ब्राह्मण ने हमें हरा दिया है ।

अपने देश लौट जाने का इस बार अंतिम निर्णय ले लिया था ।



लगभग आधा रास्ता हमरे पार कर लिया था तभी हमारे सम्राट सिकंदर महान् का समाचार लेकर जो दूत घोड़े पर सवार होकर यूनान गया था वही हमें रास्ते में हमारी तरफ आता हुआ मिला ।  चंद सशस्त्र सैनिक उसके साथ मौजूद थे । 

तेज टापों की आवाज और दूर से धूल भरे गर्द और गुबार को उड़ता हुआ देखकर हमें लगा कि वे किसी और राज्य के सैनिक हैं ।  उनके नजदीक आने से पहले ही हम सावधान सतर्क हो गये थे ।

         पास आने पर मालूम पड़ा कि वे हमारे ही राज्य के सैनिक और दूत थे । 

अपने तने हुये शरीर और आक्रमण-युक्त भाव को हमने घोड़े पर बैठे-बैठे ही विश्राम की स्थिति प्रदान की ।  कितना अच्छा लगता है जब कोई बेवजह का युद्ध टल जाता है ।  आज ऐसा लग रहा था कि इतने बरसों से युद्ध करते-करते हम काफी थक चुके हैं ।

लंबी और गहन निद्रा के साथ भरपूर विश्राम की हम सभी को जरूरत थी ।

         पास आकर दूत ने झुकते हुये सलाम किया और अपने साथ रखे शाही मुहर वाले पत्र को पकड़ा दिया जिसमें लिखा था ‘सम्राट की असमय मृत्यु की खबर ने समस्त यूनान को स्तब्ध और शोकविह्नल कर दिया है ।‘

         कुछ दरबारी कार्यवाहियों व निर्देशों के साथ अंत में एक छोटी-सी खबर भी लिखी थी ।  वैसे वह छोटी-सी खबर कोई खास मायने नहीं रखती थी किंतु उस पूरे पत्र पर सरसरी नजर फेरने के बाद मेरी दृष्टि न जाने क्यों पत्र की अंतिम चंद पंक्तियों पर जाकर स्थिर हो गई जिसमें लिखा था ‘दार्शनिक डायोजिनीस की मृत्यु भी संयोशवश उसी दिन हुई जिस दिन यूनान के महान् सम्राट सिंकदर ने अपनी अंतिम साँसें ली ।‘

          ‘डायोजिनीस’ नाम मेरे दिमाग में कौंधा था ।  यह वही प्रसिद्ध दार्शनिक था जिससे मिलने सम्राट बरसों पहले कभी गये थे । उनका प्रधान सेनापति होने के नाते उनकी सुरक्षा घेरे की व्यवस्था के कारण मुझे भी उस अजीबोगरीब-सी वेशभूषा धारण किये सनकी-से दिखते शख्स को देखने का अवसर मिला था ।  जिसे देखते हुये मैं लगातार यही सोच रहा था कि आखिर इस अजीबोगरीब-से शख्स में ऐसी क्या बात है जो हमारे सम्राट सिंकदर स्वयं उसके व्यक्तित्व से चमत्कृत व प्रभावित उसके पास खिंचे चले आये हैं और यह निःस्पृह से भाव से सम्राट को धूप के टुकड़े के लिये अपने सामने से हट जाने को कह रहा था ।

 

         उस दिन का दृश्य मेरे मानस-पटल पर एक चित्र की भाँति साफ-साफ अंकित था ।  इस दुनिया में कुछ व्यक्ति अजीबोगरीब होते हुये भी हमारे मानस पर हमेशा के लिये अपनी छाप छोड़ जाते हैं डायोजिनीस भी उन्हीं में से एक था  किंतु इन सब बातों में जो सबसे अजीब बात थी वह था हमारे महान् सम्राट सिकंदर व उस निःस्पृह से भाव को अख्तियार किये हुये डायोजिनीस नामक शख्स की मृत्यु का एक ही दिन । दोनों की मृत्यु की तिथि का एक होना मात्र संयोग था या फिर काल चक्र जो एक-साथ चलने की बजाय परिस्थितवश अलग-अलग दिशाओं की तरफ मुड़ गये थे ।

         क्या उस दिन सम्राट के मुँह से निकले ये शब्द कि ‘यदि वो सिकंदर न होते तो अवश्य ही डायोजिनीस बनना पसंद करते ।‘  दोनों में किसी अनोखे से अद्भुत समानता की तरफ इंगित कर रहा था ।  किंतु यह कैसे संभव था ।  दोनों में कहीं-से-कहीं कोई समानता थी ही कहाँ ।  एक यूनान का सम्राट दूसरा अजीबोगरीब वेशभूषा में घूमता घुमक्कड़ ।  एक ने दुनिया को अपने कदमों पर झुकने  के लिये बाध्य कर दिया था और दूसरा धूप के टुकड़े को अपने बदन पर सेंकता अनिर्वचनीय सुख व संतोष के साथ आनंदमग्न अवस्था में लेटा मानव  जिसे संसार में किसी और चीज की कामना नहीं थी । कैसा तो विरोधाभास था दोनों के चरित्र व्यवहार और स्वभाव  में ।  फिर भला काल का अनदेखा-सा सेतु किस प्रकार उन्हें एक-साथ जोड़े रखने के लिये एक ही डोर में बाँधे रखने के लिये उतावला था ।

         एक के नाम के साथ ‘विश्व-विजेता’ का विशेषण जुड़ा था तो दूसरा स्वयं को जीत कर ही ‘विश्व-विजेता’ की अग्रणी सूची में शुमार हो गया था ।

         एक के लिये आक्रमण सेना व युद्ध के द्वारा विश्व को जीत लेना ही अंतिम लक्ष्य था तो दूसरे के लिए वर्तमान में जीवन का आनंद मनाना ही विश्व विजेता के तमगे के बराबर था । 

उस शख्स के प्रति उस दिन मन में जिन नकारात्मक से भावों का जन्म हुआ था वह आज सम्मान के भाव से भरता चला गया था ।  आसमान में सूरज बस ढ़लने को ही था ।  अपने घोड़े उतर कर मैं दो कदम सूरज की दिशा में बढ़ गया । 

अपने सम्राट को झुककर जिस तरह मैं अभिवादन करता था उसी तरह सूरज को देखते हुये मैंने अपने सम्राट के साथ-साथ डायोजिनीस की आत्मा के लिये भी प्रार्थना की ।  धूप का टुकड़ा चिरंतनकाल के लिये इस जगत् का सबसे बड़ा आनंद है । इस संसार में सुख इससे इतर भला और क्या हो सकता है ।


         सैनिक चलने के लिये मेरा इंतजार कर रहे थे ।  रात घिरने से पहले हमें अगले पड़ाव पर पहुंचना था ।  लगाम थामता अपने घोड़े पर बैठते हुए मैंने घोड़े को सरपट दौड़ा दिया । 



        



        

        



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