vidur
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Vidur
विदुर
नियत समय पर हमेशा की तरह तैयार होकर मैं दर्पण के सम्मुख खड़ा था। सिर पर व्यवस्थित ढंग से रखी पगड़ी को आदतन पुनः व्यवस्थित करने का हल्का सा उपक्रम किया। मेरी हर चीज़ पहले की तरह व्यवस्थित ही थी। इन कुछ दिनों में कितना कुछ बदल गया था !
परिस्थितियों पर रोष होता है, क्रोध भी आता है। सही चीजे नहीं हो पाती तो पीड़ा भी होती है। गलत चीजे होती देख कर भविष्य में अनहोनी की आशंका से कुछ धड़कता भी है किंतु समय के साथ धीरे धीरे स्वयं के मन को अपनी बुद्धि को विवेक को थामना सीख गया हूँ।
आज दर्पण के सामने सब कुछ पहले की तरह यथावत लग रहा है।
हालांकि मेरी भूमिका बदल चुकी थी। भूमिका! नहीं तो!
नहीं। भूमिका तो नहीं बदली थी मेरी। मेरे अधिकार मेरे कर्तव्य सब कुछ तो यथावत था। फिर अपनी भूमिका को लेकर मेरे मन में संदेह के बादल क्यों है! वैसे देखा जाए, तो बहुत कुछ बदल कर भी कुछ नहीं बदला था।
राजमहल, राजप्रासाद, हस्तिनापुर, राजसिंहासन, प्रतिदिन की गतिविधियों घर, बाजार, गलियाँ यहाँ की व्यस्ततम सड़कें, जनमानस, लोगों की आवाजाही हलचल सब कुछ तो पूर्ववत है किंतु फिर मेरा मन ही ऊहापोह का शिकार क्यों है!
हाँ एक चीज़ बदली है। राजसिंहासन पर विराजमान होने वाले नरेश का चेहरा आज बदल जाएगा।
इन कुछ बरसों में हस्तिनापुर साम्राज्य इतनी बार उलटफेर देख चुका है कि उसे भी इस की आदत सी हो चुकी होगी।
मेरी भूमिका वही थी ।
मेरा पद मेरे दायित्व यथावत थे । मेरा कार्य भी वही था जो मैं आज तक करता आ रहा हूँ बस वह चेहरा बदल जाएगा जो राजसी पोशाक में राज़ सिंहासन पर मेरे सामने बैठकर मनोयोग व तन्मयता से मुझे सुनता था।
नहीं! ऐसा भी नहीं कि मैं चेहरों से प्रभावित होने वाला इंसान हूँ। मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है नीति। नीति जिसकी ऊंगली पकड़कर मेरी माँ ने मेरे लड़खड़ाते कदमों को सीधी तरह चलना सिखाया है। जिसके लिये मैं प्रतिबद्ध हूँ।
मैं नीति का वाहक हूँ। सारी नीतियां मुझे मुंहजबानी याद है। सही और गलत का भान मुझे तत्क्षण हो जाता है।
कहने का साहस भी है किंतु परिस्थितियां व घटनाएँ न तो मेरे वश में रही न मेरे नियंत्रण मे। कभी कभी मुझे अपनी भूमिका मार्ग में खड़े राह दिखानेवाले पत्थर की तरह प्रतीत होता है जो पथिक को सही मंजिल तक पहुंचने की राह दिखाने के लिए हमेशा तत्पर व तैयार रहता है किंतु यह तो पथिक का निर्णय है कि उसने स्वयं कौन सी मंजिल निर्धारित की है और उसका गंतव्य क्या है
धृतराष्ट्र के साथ लंबी लंबी चर्चाओं के दौरान अक्सर लगता जैसे वह गंभीर चर्चा छेड़ते तो हैं किन्तु उनका ध्यान इस ओर रहता नहीं। मन न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहता तब लगता था जैसे मेरा संवाद राजा की बजाय स्वयं से हो रहा हो।
ऐसा लगता जैसे वहाँ हम दोनों के बीच तीसरा भी कोई है जो हम दोनों के बीच उपस्थित है। न जाने कौन था वह! किसकी दिव्यदृष्टि थी जो हमारे ऊपर गड़ी रहती थी! किसके कान थे जो हमारे संवाद को बहुत ध्यान से सुनते रहते थे! खैर! वही एक समय होता था, जहाँ मैं अपना समस्त ज्ञान समस्त निति वैसा का वैसा उडेल देता था।
धृतराष्ट्र सुनें न सुनें । ऐसा लगता मानो राजमहल की दीवारें कक्ष मंथर गति से बहता पवन सब मुझे संयत भाव से सुन रहा है ।
कौन सुन रहा है। मेरी बातों को आत्मसात कर रहा है या नहीं अपने जीवन में कार्यान्वित करेगा या नहीं इन सब बातों को दरकिनार करता हुआ मैं केवल अपने कर्तव्य से सरोकार रखता हूँ।
धृतराष्ट्र की आँखों में रोश नी भले ही न हो जब मैं उन्हीं सही निर्णय लेने के लिए नीतिसम्मत ढंग से समझाकर प्रेरित करता तो वो अजीब सी लाचारगी से घिरते चले जाते।
उनकी आंखो की आवश लाचारगी से मैं स्वयं कभी कभी मन ही मन झुंझला जाता तब ऐसा लगता जैसे सत्ता पद व राजसिंहासन भी कभी कभी व्यक्ति को कितना पंगु व असहाय बना देता है! पुत्रमोह व्यक्ति को सही व गलत के बीच स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने से रोक देती है।
एक आम नागरिक अपनी जिंदगी का निर्णय लेने में राज़ सिंहासन पर विराजमान व्यक्ति से ज्यादा साहसी व सक्षम होता है । में सोच में पड़ जाता हूँ । उस समय मुझे अपने दासीपुत्र होने पर गर्व महसूस होता है ।
हस्तिनापुर राज्य में राजसिंहासन के इर्दगिर्द घूमते अनेकानेक घटना चक्र के बावजूद मेरी माँ ने मेरी परवरिश इतने स्वतंत्र रूप से की है कि राजमहल में रहकर भी मैं अपने स्वतंत्र विवेक को जाग्रत रख पाने में सक्षम हो पाया।
समस्त हस्तिनापुर राज्य के साथ साथ आने वाला कल भले ही मुझे दासी पुत्र के रूप में याद करे । अपने नाम के संबोधन से पूर्व दासी पुत्र विशेषण का मुझे कोई मलाल नहीं।
बड़े होते हुए मैंने हस्तिनापुर राजसिंहासन के उत्तराधिकारियों को देखा है और हमेशा इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि व्यक्ति का विवेक किसी भी पद प्रतिष्ठा व धन संपदा से सदा सर्वदा श्रेष्ठ स्थान पर विराजित रहता है।
कई बार मन में आता है, राजा को झकझोरकर अर्द्धचेतन अवस्था से चैतन्य अवस्था में ले आऊ किंतु नहीं । मैं जानता हूँ कि ऐसा नहीं कर सकता। धर्म और नीति का वास्ता देकर मैं उन्हें केवल भविष्य में लिए जाने वाले किसी निर्णय के लिए प्रेरित भर कर सकता हूँ
मेरे व्याख्यान व विवेचना कभी कभी मुझे व्यर्थ प्रतीत होती हैं जब कुछ सुनकर समझकर भी राजन कह देते हैं कि ‘तुम्हारी बातें सुनने में बड़ी प्रिय लगती है’ जैसे कि मैं उनके दिल बहलाव के लिए नियुक्त किया गया कथावाचक हूँ। कभी कभी लगता है कि इस हस्तिनापुर राज्य मैं क्या बस इतनी सी ही है मेरी भूमिका!
व्यक्ति अपने जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय स्वतंत्र बुद्धि और विवेक की बजाय अतीत में घटे घटनाक्रम के प्रतिशोध व अपने संवेगों व भावनाओं के दबाव में लेता है
अंत तक मैं हार नहीं मानूंगा। हस्तिनापुर के राजा को सही दिशा में निर्णय लेने के लिए प्रेरित करना मेरा धर्म भी है और नियति द्वारा निर्धारित मेरा कर्म भी है।
मैं विदुर हूँ। नीती में निपुण व्यवहार कुशल आचरण में परिष्कृत मैं अपने पिता का पुत्र हूँ।
पिताश्री! आपके सानिध्य में मैं बहुत कम रहा हूँ। या यूं कहूं कि रहने का अवसर बहुत कम प्राप्त हुआ ।
हाँ बातें अक्सर सुनता रहता हूँ। कभी फुसफुसाहटों में कभी सुगबुगाहटों में कभी कथा कहानी की तरह साथियों से कभी माँ की कहीं खोई खोई सी आंखो मे।
सत्य के अन्वेषण में मैं नहीं पड़ना चाहता। मैंने तो उसी को सत्य मान लिया था जो शब्दों शब्दों की सादगी के साथ मुझ तक पहुंची थी । बाद में मैंने स्वयं कुछ ज्यादा जानने व समझने की कोशिश नहीं की।
धृतराष्ट्र व पांडु के साथ बड़ा होता गया। वैसे हम बालसखा ही थे किंतु बचपन की अल्हड़ खेलकूद में भी विभाजन की एक अदृश्य किंतु ठोस सीमा रेखा हमारे बीच खींच दी गई थी।
माँ को मैंने हमेशा शांत संयमित और गंभीर देखा है मेरी माँ में न जाने कौन सा तेज व साहस था मैं नहीं जानता। प्रेम की अजस्र धारा करुणा के रूप में उनके व्यक्तित्व में विद्यमान थी ।
हाँ मैं दासी पुत्र हूँ किंतु इस संबोधन ने मुझे कभी भी क्षण भर के लिए भी विचलित नहीं किया। कुछ कमजोर लोग अपनी कमजोरी को ढकने के लिए इस तरह के संबोधन से संबोधित करते हैं यह बात मेरी माँ ने मुझे बड़े ही प्रेम और अत्यंत धीरज के साथ मेरे माथे पर ममता का हाथ फेरते हुए समझा दिया था।
उस दिन मैं अपने नाम के साथ जुड़े इस संबोधन को सुनकर बहुत रोया था और रोते रोते ही माँ के पास माँ की गोद में सो गया था। माँ ने बड़े प्रेम से अपने आंचल की छांव में थपकियां देकर सुला दिया था।
नहीं। उनकी आँखों में न तो संसार के प्रति क्रोध था न अपने परिवेश के प्रति रोष था न स्वयं के प्रति हीनता का भाव था।
सम्पूर्णता का अनकहा सा भाव जो मुझे भी संपूर्णता के भाव से भरता चला गया था।
ठीक है, समाज का ढांचा इस तरह से बुना हुआ था उससे टकराने व तोड़ने का प्रयास करना बेवकूफी भरा होता। मैं अपने पिता का पुत्र हूँ मुझे ज्ञान हासिल करना है अध्ययन करना है बस यही कामना थी मेरे मन में
युद्ध समाप्त हो चुका है हार और जीत का निर्णय भी हो चुका है।
गलियारा पार करते हुए मैं प्रमुख दरबार की तरफ चल दिया था ।
जितना मैं तुम्हें जानता हूँ युधिष्ठिर तुम मेरे द्वारा कही नीतियों को अच्छी तरह जानते समझते हो किंतु राजसिंहासन एक ऐसी चीज़ है जिसपर बैठकर अच्छे अच्छे बदल जाते हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि ऐसा तुम्हारे साथ नहीं होगा युधिष्ठिर। एक लंबे संघर्ष के पश्चात् दुनिया के तमाम अनुभव हासिल करने के पश्चात् आज यह हस्तिनापुर राजसिंहासन तुम्हें प्राप्त हुआ है । इतने उतार चढ़ाव व संघर्षों की तपिश में इंसान निखरता ही है।
धृतराष्ट्र कहते थे ‘सही गलत हमें पता है किंतु मन गलत की तरह जाता है।‘
नीतिसम्मत आचरण के लिए मैं प्रतिबद्ध हूँ किंतु सत्ता व शक्ति का नियंत्रण तुम्हारे हाथ में है। राजसिंहासन का खेल तुम्हें खेलना है युधिष्ठिर।
मैं तो बस यही चाहूंगा कि मन तुम्हारे नियंत्रण में हो।
‘सही क्या है और गलत क्या’ एक छोटे से बालक को भी पता रहता है। तुम्हारे द्वारा राज्यभार संभालने के पश्चात लंबे लंबे नीतिसम्मत वाक्यों व संवादों की जरूरत कम से कम पड़े इसी में मेरी खुशी है। एक बार फिर से अपने वस्त्र के साथ साथ सावधानी से पगड़ी सम्भालते हुए राजदरबार की तरह बढ़ गया।
