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Rekha Agrawal (चित्ररेखा)

Classics

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Rekha Agrawal (चित्ररेखा)

Classics

Eklavya

Eklavya

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EKLAVYA

एकलव्य


पर्णकुटी के बाहरी प्रांगण में अधलेटा अलसाया सा धूप सेंक रहा था।  यू ही एकान्त में प्रकृति की गोद में तसल्ली भरा जीवन बिताने का भी एक अलग ही आनंद है । युवा काल व किशोरावस्था का एक बड़ा हिस्सा तो मैं धनुर्विद्या सीखने के अपने जुनून की भेंट कर चुका था। उन दिनों को याद करता करता हूँ तो आश्चर्य होता है और हँसी भी आती है अपनी दीवानगी पर। बिना किसी कामना के बिना किसी पद प्रतिष्ठा महत्वाकांक्षा के बिना किसी लोभ और लालच के निष्काम भाव से लक्ष्य को पाने के प्रयास में सतत अग्रसर  रहने की दीवानगी को उस समय जिया था मैंने इसीलिए अपनी आज की जिंदगी को  के उस हिस्से से अलग नहीं कर सकता था।

सीखने की ललक मुझे किस कदर लुभाती थी याद करके मैं आज भी मुस्कुरा देता हूँ। वर्तमान के ये तसल्ली भरे आनंददायक क्षण मुझे बीते हुए कल की तरह ही प्रिय है । मैं कल भी खुश था और आज भी अपने वर्तमान में खुश हूँ ।

अक्सर ऐसा होता था की मैं आनंद मग्न अवस्था में लेटा हुआ सूरज की शुभ्र धवल किरणें को पेड़ की पत्तियों के हिलने डुलने से होने वाली धूप छांव के खेल को देख रहा होता कि तभी किशोर होते बालकों की मंडली न जाने कहाँ से धमा चौकड़ी मचाती आ जाती और आकर मुझे घेर लेती हम आपसे तीरंदाजी  चलाना सीखना चाहते चाहते हैं सुना है की आप बहुत अच्छा तीरंदाजी करते हैं मुझे उनकी मासूम बातों पर हँसी आ जाती थी मैंने तो धनुष बाण चलाना बहुत पहले ही छोड़ दिया था भाई! मैं पीछा छुड़ाने की पुरज़ोर कोशिश करता।

  नहीं! नहीं! आपको हमें सिखाना  ही पड़ेगा। बस्ती में सब बताते हैं कि आपका चलाया हुआ तीर  एकदम सही जगह पर लगता है। अच्छा! ऐसा क्या! मुझे हँसी आ जाती ।   बच्चों के साथ जीने का अपना ही मज़ा है। अतीत के उन खूबसूरत से पलों को वापस से जी लेने के आनंद को सच तो यह है कि  मैं स्वयं भी खोना नहीं चाहता था ।

                 कमरे के एकांत कोने में खूंटी से टँगे धनुष व तीर की तरफ दृष्टिपात किया ।

वैसे तो मेरा धनुष व मेरे द्वारा बनाए तीर अब इतिहास की बात हो चुकी है।


 खूंटी पर जिस प्रकार हम अपने पूर्वजों की तस्वीर स्मृति स्वरूप टांग देते हैं व कभी कभार गाहे बगाहे उनका नमन व वंदन कर अपनी दुनिया में आगे की दिशा में बढ़ जाते हैं।

यह मैं दिन में ही कोई स्वप्न देख रहा हूँ! जाग्रत अवस्था में हूँ या सुप्तावस्था में।

 अतीत में घटी घटनाएं चलचित्र की तरह आज इतने बरसों पश्चात्  धुँधले से रूप में स्वयं को साकार करने के लिए क्यों उद्यत हो उठी है।

हड़बड़ाकर चौंकते हुए मैं उठ बैठा था।

यह हकीकत था स्वप्न! मैं नहीं जानता  किंतु दिन में स्वप्न देखने की मेरी आदत नहीं है। वर्तमान परिस्थिति जैसी भी जिस भी रूप में मेरे सामने आती है उसे उसी रूप में स्वीकार करता हूँ। जीवन का यह अंदाज मैंने अपने पिता से सीखा है। हम निषाद ऐसे ही होते हैं ।

                 भले ही स्वप्न हो तब भी बरसों हो गए अपने उस अभ्यास स्थल गए हुए।

 चलकर देखूं तो सही क्या बात है! उठकर में बाहर आ गया दोपहर का सूरज आसमान में सिर के ऊपर जगमगा रहा था।

 दिनभर जंगलों में विचरण करने वाले को तपती धूप का कैसा भय!

स्थल ज्यादा दूर भी नहीं था किंतु मन में न जाने कैसी उद्विग्नता थी! बाहर बंधे सफेद घोड़े की लगाम हाथ में लेकर उसे प्यार से सहलाते हुए हल्के से थपथपाकर मैंने चिर पुरातन स्थल पर चलने के लिए सरपट दौड़ा दिया।

जब मैं साधना स्थल पहुंचा तब सूरज अपनी प्रखर किरणों के साथ आसमान में अपनी दर्प युक्त उपस्थिति दर्ज कराता हुआ धरती अंबर को अपनी तपती किरणों से चकाचौंध कर रहा था उम्र बीतने के साथ सूरज की तपिश का अहसास होने लगा वरना तो अभ्यास व साधना के उन बीते हुए दिनों में सूरज की तपिश का बदन पर कभी एहसास नहीं हुआ

पहले भी यह स्थल निर्जन था किंतु आज ऐसा लग रहा था जैसे यह स्थान जंगल में तब्दील हो चुका हो। जहाँ कदमों की आहट व पदचाप न गूंजती हो वह स्थल कितना बियावान प्रतीत होता है।

 साफ सफाई कर इस स्थल को कितने उत्साह के साथ खूबसूरत अभ्यासस्थली में परिवर्तित किया था । बरसो से एकांत में अकेले सुस्ताता हुआ यह जगह वापस से निसर्ग जंगल में परिवर्तित हो चुका था। जंगली बेलों व लताओं ने यहाँ अपना अधिकार व आधिपत्य जमा लिया था किंतु मेरे लिए इस स्थल का चप्पा चप्पा कोना कोना देखा भाला और जाना पहचाना था। इस स्थल को मैं इस जन्म में तो कभी नहीं भूल सकता।

 घोड़े की पीठ से उतरकर मैं सीधा आपकी मूरत की तरफ बड़ा था। मेरे कदमों को कोई दिशाभ्रम नहीं था मंथर गति से चलते हुए मैं ठीक उसी स्थल पर पहुँचकर रुक गया ।


                

वहाँ पहुँचकर हमेशा की तरह धरती की धूल को माथे से लगाते हुए

 

जंगली लताओं को हटाने में मुझे कुछ ही झण  का समय लगा था लताओं और बेलों को हटाते ही मैंने आपके चेहरे की तरफ़ देखा वही मुरत जिसे चबूतरे पर मैंने बड़े ही सावधानी के साथ माटी से सने हाथों से अनगढ़ रूप में ही सही मूर्त रूप में ढाला था

 आँखों में नमी थी क्या यह रात भर ओस की बूंदों का पत्तों की कोरों से फिसलते हुए ठिठककर रुक जाना नहीं था। मैं यहाँ अल्लसुबह नहीं आया था। मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकती।  काल्पनिक जगत में विचरण करता मैं कोई प्रकृति प्रेमी कवि नहीं। आगे बढ़कर मैंने झिलमिलाते अश्रुवृन्द को अपनी उंगलियों पर थाम लिया। सूरज की प्रखर दीप्त किरण जैसे मेरी तर्जनी पर ठिठक गई थी।  मन कभी इतना व्याकुल व द्रवित नहीं हुआ। आज बरसों पश्चात कितना व्यग्र पा रहा था मैं स्वयं को। आज न जाने क्यों ऐसा लग रहा था जैसे गुरुवार मुझे पुकार रहे हैं।

 आपकी मूरत की तरफ़ देखा ।

पत्थर की मूरत में संवेदना नहीं होती। पाषाण मूरत में आंसुओं की आर्द्रता !

सिर ऊपर उठाया शायद बादल का टुकड़ा अपना निर्दिष्ट मार्ग भूलकर यहाँ इस दिशा में भटकते भटकते आ पहुंचा हो किंतु सिर के ऊपर धुला हुआ नीला आसमान और सूरज का दमकता हुआ गोल वृत्ताकार घेरा था दूर दूर तक कहीं बादल के छोटे से टुकड़े का नामोनिशान तक नहीं था आसपास कहीं पक्षियों का कलरव भी नहीं था उनके जाने और आने का नियम सूर्योदय और सूर्यास्त के नियमों से बंधा हुआ रहता है


                 आश्चर्य चकित विस्मित सा मैं आपकी आँखों में देखता रह गया।

मुझे उस दिन की याद आ गई जब आप मेरे पास आये थे वह दिन मैं भूल भी कैसे सकता हूँ! मुझे लगा एक शिष्य के रूप में आप मुझे सबके सामने अपने अंक में भरते हुए स्नेह से गले लगा लेंगे अपने अस्त्र शस्त्र जिनका अभ्यास मैंने आपकी मूर्ति के सामने तपती धूप सर्दी व बारिश की परवाह न करते हुए किया था उन सभी अभ्यास से अर्जित की हुई विद्या के कौशल का प्रदर्शन आपके सामने करने के लिये अत्यंत उत्सुक था किंतु आप को देखकर मन में जो उत्साह उमंग जगा था वह न जाने कहाँ लुप्त होता चला गया ।

 मूरत में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है इतना तो मैंने सुन रखा था  किंतु यह विधि विधान ब्राह्मणों द्वारा संपन्न किया जाता है । किन श्लोकों व मंत्रों के साथ प्राणप्रतिष्ठा की जाती है मुझ निषाद पुत्र को क्या पता।

               गुरु के प्रति भक्ति व कर्म के प्रति निष्ठा व एकाग्रता से ही मेरा परिचय रहा।

 गंभीर विषय मेरी सामान्य बुद्धि में नहीं घुसते।

यहाँ प्रकृति का  नैसर्गिक सौंदर्य पक्षियों के गुंजायमान होते कलरव के साथ साथ बिखरा पड़ा था । इस छोटी सी दुनिया को ही मैं जानता था इससे परे किसी और दुनिया की मुझे क्या समझ!

                  

 

आप की मूरत मुझे हमेशा से सजीव व साकार लगती रही है ।

 मैं आपसे मिलने आपके पास आ रहा हूँ गुरुदेव ।

सोच विचार में एक क्षण भी गंवाने  की  बजाय मैं घोड़े की पीठ पर बैठ गया और राजमार्ग की प्रमुख सड़क की तरफ बढ़ता चला गया । राजमार्ग व राजधानी की तरफ जाने वाली सड़क आज न जाने क्यों अन्य व आम दिनों की अपेक्षा शांत व खामोश नजर आ रही थी । नगर व बस्ती में भी सर्वत्र एक नीरव शांति पसरी हुई थी । जंगलों में रहने के ही हम आदी थे इसलिए यहाँ के कोलाहल से दूर ही रहता था । बड़ी मुश्किल से मार्ग में एक राहगीर दिखा तो उसी को रोककर नगर की जानकारी लेने का प्रयास किया पता चला ज्यादातर लोग तो युद्धस्थल  पर चलनेवाले भीषण युद्ध में व्यस्त हैं ।

 क्या सुन रहा हूँ मैं! युद्ध नहीं बल्कि वह महायुद्ध बता रहा था!

इस युद्ध ने  संपूर्ण नगर को नीरवता  में तब्दील कर दिया था ।

तेजी से अपने घोड़े को सरपट दौड़ाते हुए मैं उसी युद्ध स्थल की तरफ बढ़ता चला गया ।

 दूर दूर तक सिर्फ मेरे ही घोड़े की टाप गूंज रही थी। जिसे सुनते हुए बीच बीच में कोई बालक या स्त्री अपने घर की देहलीज व खिड़की से किसी अपने का  इंतजार करती आँखों से झांक लेती थी।

सूरज ढलने के साथ मैं रणभूमि  की सीमा पर था । मुझे नहीं पता मेरे कदम मुझे किस दिशा में ले जा रहे थे । नियति के अद्भुत हाथों में एक कठपुतली की तरह हतप्रभ भौचक्का विस्मित किस दिशा में किधर बढ़ता चला जा रहा था मुझे स्वयं भी नहीं पता ।

अचानक मैं रुक गया। उस विशाल रथ को मैं जानता था । दूर से ही उस पर मेरी दृष्टि ठहर गई  बरसों पहले उस दिन अभ्यास स्थल से थोड़ी दूर पर ठीक यही रथ खड़ा था हाँ यही मेरे गुरुवर का रथ है उनका कृशकाय शरीर साधना की मुद्रा में यहाँ युद्ध स्थल पर विराजमान था किंतु वह स्वयं कहाँ थे! मैंने इधर उधर दृष्टिपात किया मेरी दृष्टि एक जगह जाकर स्थिर हो गई मेरे कदम आज जीवन में पहली बार कॉप उठे थे कांपते  कदमों से ही मैं उस  तरफ बढ़ा था निष्प्राण मृतप्राय

भावहीन आंखें उस दिन भी वैसी ही थी जिस दिन आपने गुरु दक्षिणा में मेरा अंगूठा मांगा था अपना अंगूठा देने से पहले मैंने आपके चेहरे की तरफ देखा था आपकी आंखो में झांका था मुझे लगा था जैसे करुणा से पिघलते हुए आप मुझे रोकते हुए तत्परता से आगे बढ़ेंगे

 नहीं नहीं शिष्य नहीं! मैं तो केवल तुम्हारी परीक्षा ले रहा था ऐसा कहते हुए गले लगा लेंगे

धीरे से घुटने के बल बैठते हुए पहले मैंने अपनी आंखें बंद की फिर झुकते हुए आपकी आँखों को अपनी हथेली से ढक  दिया

काश! मैं आप की साधना में रत इस अवस्था में मृत्यु का बदला ले पाता किंतु आपने तो मुझे बरसों पहले ही अपनी मृत्यु का बदला लेने से मुझे मुक्त कर दिया था अपनी गुरुदक्षिणा मांग कर अन्यथा तो कल यहाँ मेरे हाथों लाशों का ढेर बिछ जाता किंतु नियति को शायद यही मंजूर था मेरा एक अंगूठा मांग कर आपने यहाँ लाशों को फिर से बिछने के लिए मुझे बरसों पहले ही रोक दिया था गुरुदेव

नहीं मेरी प्रतिद्वंद्विता तो किसी से थी ही नहीं बस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर निशाना साधने की दीवानगी थी मेरी प्रतिद्वंद्विता किसी और से नहीं बल्कि अपने आप से थी आपके मस्तक के पास गिरे इस तीर को मैं अच्छी तरह पहचानता हूँ  ठीक ऐसा ही एक बाण अर्जुन के तरकश से उस दिन धरती पर गिर पड़ा था राजसी मुहर के साथ हर धनुर्धर के पास अपनी एक विशिष्ट शैली का धनुष बाण धनुष बाण होता है तीर को हथेली में उठाते ही मैं समझ गया था कि ही अर्जुन के धनुष का बाण है अर्जुन! मैं तो आपके आंसू देख आपको  ढूंढता हुआ आज यहाँ तक आ पहुंचा गुरुवर यह कैसा युद्ध था! शिष्य द्वारा गुरु का वध!!!

                 मन तो कर रहा था कि आपकी मृत्यु का बदला लेने के लिए कल का दिन रणभूमि को संग्राम में बदल कर रख दूं किंतु तभी मेरा ध्यान अपने दाहिने अंगूठे पर गया ओह! दुख की तीव्रता में मैं भूल ही गया था कि बरसों पहले एक दिन आपने ही दक्षिणा में इसे मांग लिया था शायद नियति नहीं चाहती थी कि आपकी मृत्यु का बदला मैं किसी भी तरह से लूँ संभवतः आने वाले कल में खेले जाने वाले इस महायुद्ध में आपकी मृत्यु का बदला लेने से रोकने के लिए भाग्य द्वारा उस दिन वह अजीबोगरीब अप्रत्याशित खेल खेला गया था!

न तो मैं किसी पद का आकांक्षी था न ही श्रेष्ठ धनुर्धर बनने की चाहत थी।

 मेरी प्रतिद्वंद्विता किसी और से नहीं केवल मुझसे थी। मैं तो केवल अपने आप को संतुष्ट करने का प्रयास करता रहा था ।

मेरी यहाँ इस रणक्षेत्र मैं कोई जरूरत नहीं थी।

 तेजी से चलता हुआ मैं अपने घोड़े की पीठ पर बैठ गया।

 घोड़े की रफ़्तार थोड़ी  धीमी थी । घोड़े की गति मंथर थी। मेरे विचारों की तरह ।

मेरा घोड़ा जिसकी लगाम मेरे हाथ में थी किंतु वास्तव में हमारा जीवन किसी अदृश्य सर्वशक्तिमान के हाथ में होता है ।

घोड़ा जंगल की दिशा में चल पड़ा था अपने उसी निसर्ग जंगल की तरफ जहाँ का मैं वासी था । उसी प्रकृति की तरफ जिसने मुझे खुली बाहों से स्वीकार किया था । उसी शांति की तरफ जिसकी मुझेआदत पड़ चुकी थी ।


 

आपकी माटी की मूरत वह तो तब भी निशब्द थी और आज भी निशब्द है। उसने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा। बदलते मौसम में चुप चाप आसमान के नीचे मेरी धनुर्विद्या के कौशल व अभ्यास के उत्तरोत्तर विकास की मूक साक्षी बनी रही। मेरे जीवन की गति  कभी बाधित नहीं हुई । चिड़िया का एक पंख टूट कर गिर जाए तो वह अपनी गति और उड़ान को रोक तो नहीं देता।

 मैं एक धनुर्धर जरूर रहा किंतु योद्धा कभी नहीं । जंगल में स्वतंत्र विचरण करनेवाला मैं निषाद पुत्र । एक श्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में स्वयं को प्रतिपादित करने की मुझे कभी चाह रही ही नहीं किंतु क्या ही अजीब बात है उस दिन आप ही ने मेरे रक्तरंजित अंगूठे से इस धरती पर मेरे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का  तिलक मेरे माथे पर सदा के लिए अंकित कर दिया था  यह भी अच्छा ही हुआ कि जंगल की शांति युद्ध के कोलाहल की गूंज अनुगूंज तथा सत्ता के खेल से अछूता ही रह गया ।

वह तो मुझे ही न जाने क्या हुआ था कि एक अनजाने व अदृश्य से आवेग के वशीभूत बरबस ही यहाँ तक खिंचा चला आया अन्यथा तो  मैं अपनी ही दुनिया में मगन था। यह दुनिया मेरे जंगल से बहुत अलग थी ।

  मैं तेजी से बढ़ता चला जा रहा था मुझे मेरा निस्सार प्राकृतिक जंगल ही प्रिय था जहाँ बच्चे खेलने से डरते नहीं सहमी सी आँखों से बाहर सड़क पर नहीं देखते स्त्रियों के मन में इंतज़ार की वेदना नहीं दिखती । बचपन में एक आध बार पिता की उँगली पकड़ कर और बाद में युवा होने पर साथियों के साथ रंगशाला में होने वाली प्रतियोगिता के आयोजनों को कभी कभार देखने जाया करता था ।

 समय के साथ मुझे लगा था कि राज्य के चहल पहल के साथ साथ यहाँ के रौनक व वैभव में वृद्धि हो गई होगी किंतु यहाँ पर तो अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था ।

 हिनहिनाता हुआ घोड़ा  अपने उसी एकांत जंगल की ओर तेजी से बढ़ता चला गया था ।



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