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प्रभात मिश्र

Drama

4  

प्रभात मिश्र

Drama

विश्वासघात

विश्वासघात

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महाविद्यालय को खुले कुछ सप्ताह ही हुये थे, नव प्रवेशी छात्र छात्रायें अपनी अपनी कक्षायें खोज रहे थे, जब मैने पहली बार स्वाती को विज्ञान वर्ग के गलियारे में देखा था, साँवली सी छरहरे बदन की लड़की, बड़ी बड़ी कजरारी आँखे आत्मविश्वास से लबरेज तेज कदमों से चलते हुए जब तक मेरी आँखों से ओझल नही हो गयी मै अपलक उसे देखता ही रह गया। मेरी तंद्रा तब भंग हुयी जब किसी के हाथ ने मेरे कंधो को झकझोरा पलट कर देखा तो ये अजय था, मेरा सबसे घनिष्ठ मित्र। "कहाँ खोया हुआ है? बे कवि " अजय का स्वर मेरे कानों से टकराया तो मै अचकचा गया 

"कही नही यार" टका सा जवाब देकर मैने बात बदलने की कोशिश करते हुये उससे पूछा " और बता तेरा चुनाव प्रचार कैसा चल रहा ?" (अजय की छात्र राजनीति में बड़ी रुचि थी और वो इस बार अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहा था।) 

" बस आज तेरे संकाय में प्रचार करना है, और तू तो कही और ही खोया हुआ हैं " वो हँसते हुए बोला, उसकी आँखो में छुपी शरारत मै स्पष्ट देख सकता था 

"अरे नही रे, चल मै तुझे लेकर चलता हूँ" बोल कर मैने उसका कंधा थपथपाया, इसी बहाने मुझे उस लड़की को दोबारा देखने को मिलने वाला हैं ये सोच कर मै रोमांचित हो उठा।

हम बारी बारी हर कक्षा में जाकर अजय के लिए वोट अपील कर रहे थे, पर मेरी नजरे तो बस उसे खोज रही थी और न मिलने पर मै निराश हो जा रहा था।

बीएससी प्रथम बर्ष की कक्षा थी वह, चौथी पंक्ति में कोने में बैठी उसे देखते ही मेरा मन खिल उठा था, प्रचार खत्म करके हम बाहर निकले ही थे कि अजय कोहनी मारते हुये बोला " कौन हैं बे हमे भी तो बताओ ? " मै उसकी बात को सुनी अनसुनी करके आगे बढ़ गया।

रैगिग, के समय अपनी सहपाठियों से उसके बारे में जितना मै जान पाया था, वो ये था कि उसका नाम स्वाति था और उसके पिता भी इसी महाविद्यालय में प्रोफेसर थे, और वो हमारे ही घर के पास कही रहती थी। उसके आने से मेरी दिनचर्या ही बदल गयी थी उसके आने तक गलियारे में उसका इंतज़ार करना फिर दिन भर अपने क्रिकेट की प्रैक्टिस या अजय के साथ प्रचार और शाम को उसके पीछे पीछे लोकल ट्रेन में लटकर घर जाना यही तक रह गया था मै।

अजय चुनाव जीत तो नही पाया पर इससे उसे लोग जानने लगे थे, मेरा भी चयन महाविद्यालय टीम में हो जाने से लोग मुझे भी जानते ही थे, समय अपनी गति से बीत रहा था और शायद अब तो स्वाति को भी समझ आ गया था कि मै उसके प्रति आकर्षित हूँ। स्वाति तो क्या कोई भी लड़की समझ ही जाती कि एक ही लड़का रोज गलियारे में उसी जगह सीढियों पर क्यो खड़ा रहता हैं और लोकल ट्रेन में धक्के क्यो खाता है।

समय बीतता जा रहा था और मै सही अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था,अततः वह मौका मुझे रोज डे के रुप में मिल ही गया, मैने सुरक्षा के तौर पर अजय को अपने साथ आने के लिए मना लिया था और वो तैयार भी हो गया था क्योंकि उसे भी विज्ञान संकाय की ही कोई लड़की पंसद थी और वह भी उसे गुलाब देना चाहता था।

हम दोनो ही रोज डे के दिन गुलाब लेकर विज्ञान संकाय में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे हाँलाकि हम दोनो ही इस बात से अनभिज्ञ थे कि हम एक ही लड़की को पसंद करते हैं, एक एक मिनट एक साल जैसा लग रहा था। जल्दी ही हमारे इंतज़ार की घड़ियाँ खत्म हुयी, पील रंग के सूट में मै उसे दूर से आते हुये देख रहा था।

मैने अजय से कहा " भाई मेरी तो आ गयी। तेरी कहाँ हैं ?" अजय उसकी तरफ इशारा करते हुये बोला " वो आ रही हैं " मेरा मस्तिष्क सुन्न पड़ गया और मै विक्षिप्तों की तरह बड़बड़ाया " मजाक मत कर यार उसको तो मै पसंद करता हूँ " अब चौकने की बारी अजय की थी। हम दोनो ठगे से एक दूसरे का मुँह देखने लगे, मेरी समझ में कुछ नही आ रहा था तभी अजय बोला " देख अभी तक हमने उसको नही बोला है, तो चल हम दोनो प्रयास करते हैं, वो जिसको पसंद करेगी, वो उसकी मर्जी "। ये बात मानने के अलावा कोई दूसरा उपाय नही था अतः मैने सहमति मे सिर हिला दिया पर मन ही मन मै सोच रहा था कि "मै उसको कैसे प्रभावित करुँगा एक क्रिकेट को छोड़कर और तो मुझे कुछ भी नही आता पढाई में भी औसत हूँ कही वो मुझे मना न कर दे," इस विचार से ही मेरा दिल बैठ गया।

किसी तरह हिम्मत करके मै उसके पास पहुँचा और गुलाब उसकी तरफ बढ़ा दिया, मेरा मन बैठा जा रहा था कि जाने क्या प्रतिक्रिया होगी, तभी वो चहक कर बोली " कबि मै तुम्हे कब से देख रही थी बस देखना चाहती थी तुम कब बोलते हो " उसकी बात सुनकर तो लगा मानो सारी दुनिया जीत ली हो। अजय को जब ये मालूम पड़ा तो वह फूल देने भी नही गया।

अब हम तीनो का एक समूह था मै अजय और स्वाति, हम अक्सर पुस्तकालय, जलपान गृह आदि जगहों पर साथ पाये जाते थे। धीरे धीरे मेरी और स्वाति की मुलाकाते बढ़ने लगी, हम कालेज के बाहर, समुद्र के किनारे, सिनेमा हाल में भी साथ जाने लगे। वो मेरे मैच देखने भी आने लगी थी, हम बहुत करीब आ चुके थे, सात जन्मों तक साथ जीने मरने की कसमे खायी थी हमने पर शायद दैव को ये मंजूर नही था। हमारे साथ की बाते उसके पिता जी को पता चल गयी थी और उन्होंने स्वाति को पूना भेज दिया। कुछ दिनो बाद खबर मिली कि स्वाति की शादी तय हो गयी हैं। मेरा तो दिल बैठ गया था, समझ नही आ रहा था कि क्या करुँ ?

शादी से तीन दिन पहले स्वाति वापस आयी, उसने फोन पर कहा " कबि मुझे ले चलो यहाँ से, मै तुम्हारे बिना नही रह सकती " मुझे कुछ समझ नही आ रहा था, मैने अजय की सलाह लेनी चाही और उसके घर की तरफ दौड़ पड़ा। अजय मुझे घंटो तक समझाता रहा " देख अब कुछ नही हो सकता, अगर तुम दोनो ने कुछ किया तो सोच कितनी बदनामी होगी, क्या इज्जत रह जायेगी उसके परिवार की।" अंततः हार कर मैने स्वाति की शादी हो जाने दी। मेरा दिल टूट गया था, कही आने जाने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी, मै दिन भर अपने कमरे में पड़ा रहता था| एक सप्ताह बीत चुका था, स्वाति को विदा हुये, माँ ने अजय को बुलाया था ताकि वो मुझे लेकर कही बाहर जाये जिससे मेरा मन बहल सके। हम चुपचाप जूहू चौपाटी पर टहल रहे थे,  हम तकरीबन आधा दर्जन बीयर पी चुके थे, नशा पूरी तरह हमारे दिमागों पर हावी हो चुका था, मुझे स्वाति से जुडी़ हर बात याद आ रही थी और मै अजय को वो हर चीज बता रहा था, मेरी आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे, तभी अजय ने जो कहा उससे सुनकर मै आवाक रह गया, अजय कह रहा था " देखा वो मेरी नही हुयी तो मैने तेरी भी नही होने दी " मुझे मेरी नब्ज डूबती हुयी साफ महसूस हो रही थी, इतना बड़ा विश्वासघात, मेरा शरीर शिथिल पड़ता जा रहा था और मै किंकर्तव्यविमूढ़ सा धम्म से वही रेत पर बैठ गया।


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