'विश्व योगदिवस' : शशिबिन्दुनारायण मिश्र
'विश्व योगदिवस' : शशिबिन्दुनारायण मिश्र


भारतीय जीवन दर्शन में योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है।वेदों, उपनिषदों, पुराणों व श्रीमद्भगवद्गीता में यह शब्द पढ़ने को मिला है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से "योग: कर्मसुकौशलम्" और "योगक्षेमंवहाम्यहम्" कहा, अर्थात् कर्मकुशलता ही योग है, मै ही योग और क्षेम हूँ । यह सब निष्काम भाव से सधता है। अष्टाङ्गयोग के संकल्प हेतु आप सभी को हृदय से मंगलकामना । हम लोग 'अष्टांग योग' को जीवन मे आत्मसात करें और मानसिक- शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हुए देश और समाज के बेहतर निर्माण मे अपना योगदान दें।
2014 से प्रधानमंत्री द्वारा 21 जून को योग दिवस मनाने के भारतवासियों को ही नहीं,पूरे विश्व को प्रेरित करने के पीछे भी मुझे वैज्ञानिक कारण समझ मे आता है। एक तो 22 जून को साल का सबसे बड़ा दिन होता है, उसके बाद से वर्षा ऋतु शुरू हो जाती है, ऋतु परिवर्तन होता है, अभी आपने देखा कि हीटवेव से सैकड़ों जानें गयी हैं, असहनीय प्रचण्ड गर्मी से मानुष ही नहीं, प्राणिमात्र आकुल-व्याकुल रहे हैं। शीत-गर्मी- बरसात किसी भी ऋतु के किसी भी तरह के तापमान को शरीर सहन कर सके, यह शक्ति अष्टाङ्ग योग की साधना से आती है, व्यक्ति निर्भय हो जाता है, ध्यान रहे, केवल योग के तृतीयाङ्ग 'आसन' से वह शक्ति नहीं आ सकती है और न कोई निर्भय हो सकता है, इसके लिए पूरे अष्टाङ्गयोग का अनुशासनपूर्वक पालन अत्यावश्यक है। प्राचीन काल के हमारे ऋषि-मुनियों ने निर्जन वन मे बिना किसी सुविधा और साधन के इसी तरह की साधना और तपस्या के बल पर हर तरह के विषम तापमान को सहन किया था। संत परम्परा के नाम पर आजकल तमाम सुविधा भोगी और लालची ढोंगी संत उपलब्ध हैं,जिनका पूरा रहन-सहन वातानुकूलित है,वे हर क्षण भयग्रस्त भी हैं। हास्य-व्यंग्य के प्रख्यात कवि स्वर्गीय ओम व्यास कहते थे --"सुबह टेलीविजन पर 18 बाबा (तथाकथित ढोंगी संत) प्रवचन कर रहे होते हैं और मैं ब्रश कर थूक रहा होता हूँ ।"
"योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:" योगचित्तवृत्तियों का निरोध है, अर्थात् योग, मन की अस्थिरता पर विराम है।
"योग"अपनी चेतना का बोध है। योग समाधि है आदि-आदि । योग के आठ अंग हैं, अष्टाङ्गयोग कहा जाता है। 1- यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5-प्रत्याहार, ये पाँच योग के बहिरंग हैं। 6-धारणा, 7-ध्यान, 8-समाधि। इन्हीं को अष्टांग योग कहते हैं। न जानकारी के कारण मात्र 'आसन' को ही हम लोग पूर्ण योग मान लेते हैं, केवल आसन से शारीरिक आरोग्य लाभ हो सकता है / शारीरिक व्यायाम तो हो सकता है, लेकिन आभ्यन्तरानन्दानुभूति नहीं हो सकती है/
चेतना का विकास नहीं हो सकता है। मैने 1977-78 से ही विभिन्न आसनों का अभ्यास शुरू कर दिया था, तब आज के योगाचार्य रामदेव का कहीं अता-पता नहीं था। मैने अपने आदर्श व्यक्तित्व प्रपितापह मनीषी रचनाकार पं. गणेश दत्त मिश्र 'मदनेश' से प्रेरित होकर केवल आसन करने लगा था। बाद मे चलकर यम-नियम प्राणायाम आदि का भी थोड़ा-बहुत अभ्यास किया,जो कि कोरोना महामारी' काल मे बड़ा ही कारगर साबित हुआ था।
आजकल के साधु-संत वाह्यानन्दानुभूति मे ही मस्त हैं और वाह्यानन्दानुभूति का तप से, साधना से कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारे प्राचीन काल के योगी और ऋषियों ने वाह्यानन्दानुभूति को केवल भ्रम माना है। आइए कुछ महत्वपूर्ण आसनों, उनकी विधियों,व लाभों पर विचार करते हैं,जो महर्षि पतंजलि के योगशास्त्र में वर्णित है। कुछ आसनों का पिछले 45-46 वर्षों से मैने नियमित और विधिवत अभ्यास किया है। पहला बद्धपद्मासन है-दण्डासन मे बैठकर पीठ को सीधा रखते हुए पैर के दोनों पञ्जों को एक दूसरे जाँघों पर रखकर दोनों हाथों को क्रास एंगल मे पीछे से लाकर दोनों पंजों को पकड़ें, प्रतिदिन कम से कम डेढ़ से दो मिनट तक, इसे करने से कन्धे, पीठ, कमर, जाँघ-घुटने-पिंडली सहित पैर की समस्त मांसपेशियाँ ठीक रहती हैं, घुटने मे दर्द, वक्षस्थल की समस्याएँ दूर होती हैं, पाचन तंत्र ठीक रहता है, बद्धपद्मासन से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य दोनों ठीक रहता है।