पितृ दिवस : शशिबिन्दुनारायण मिश्र
पितृ दिवस : शशिबिन्दुनारायण मिश्र


सोशल मीडिया से पता चला कि आज पितृदिवस है। आइए इस बिंदु पर सभी आत्मान्वेषण करें।
भारतीय मनीषा मे अंधाधुंध नकल के लिए कोई जगह नहीं है। निर्जन वन मे साधनारत वैदिक ऋषि अपने शिष्यों के साथ प्रातः काल की दैनंदिन प्रार्थना मे कहते हैं --" हे आकाश ! तुम पिता की तरह मधुमान् बनो।" आकाश पिता की तरह मधुमय क्यों हो पिता आकाश की तरह विस्तृत हृदय वाला हो। इसके गूढ़ार्थ की व्यंजना अथाह है । महाभारत के एक प्रसंग मे यक्ष-युधिष्ठिर के बीच ऐसा संवाद आता है। पिता का अर्थ आकाश जैसा विस्तृत हृदय लेकर संतान का पालन-पोषण करने वाला होता है, केवल जन्म देने वाला नहीं। हर पालनकर्त्ता पिता सदृश ही है। सृष्टि का पालनकर्त्ता पिता है --"त्वमेव माता च पिता त्वमेव.......।" श्रीकृष्ण की अर्जुन को जो निष्काम कर्मयोग की शिक्षा है, उसे यदि हर सम्बन्ध मे आत्मसात कर लिया जाये तो सब मधुमय हो जाये, तो साल मे एक दिन अंग्रेजों की देखी-देखा पितृ दिवस मनाने की भला जरूरत क्यों पड़े ? दशरथ एक चक्रवर्ती सम्राट हैं, पिता हैं, पिता दशरथ की राम से कोई चाह नहीं है,राजा दशरथ की एक चाह है कि वे उनके उत्तराधिकारी बने, पर राम से वो इच्छा पूरी नहीं हो पाती। पिता दशरथ एक पल के लिए अपनी आँखों से राम को ओझल नहीं होने देना चाहते, पर 14 वर्षों के लिए ओझल होने का अंदेशा हो गया है,इस पर दशरथ प्राण त्याग देते हैं। जन्म देना जितना आसान है, जीवन पर्यन्त पिता बने रहना एक तपस्या और बड़ी साधना से कम नहीं। हर जनक जो पिता हो जाता है, वह संतान के लिए पूरा आकाश हो जाता है। दशरथ ने अपनी चारों संतान से कोई अपेक्षा नहीं रखी, पुत्रों का पालन-पोषण निष्काम भाव से किया। रावण ने अपने पुत्र का पालन-पोषण हद से ज्यादा कामना से की,इतनी अधिक अपेक्षा पुत्र से रखी कि सर्वनाश का कारण बना।
एक पुत्र (राम) पिता के ही संदर्भ मे पिता से अधिक लोकहित को सर्वोच्च मानकर चल पड़ता है और समय के साथ निरंतर दैवीयता धारण कर जाता है और एक पुत्र (मेघनाथ) केवल पिता के हित का ध्यान रखता है। पिता रावण को अपने पुत्र से केवल अपनी सुरक्षा, केवल अपने अहं की संतुष्टि, अपनी सुख-सुविधा और अपने हित की चाह है, लोकहित की परवाह तनिक भी नहीं। हर उस पिता के चरणों मे वन्दना, जो अपनी व्यक्तिगत सेवा, सुविधा, हित से परे पुत्र को लोकहित के लिए उन्मुख करते हैं। केवल अपना हित, केवल अपनी सुविधा, केवल अपना हित भीतर के रावण को कितना हम मार सके हैं। भीतर के साधुमत को तिलांजलि देकर लोक हित के लिए भीतर के दशरथ को कितना जगा सके हैं।
ध्यान रहे जनहित से लोकहित बहुत बड़ा होता है, बहुत बड़ा, बहुत बड़ा।