विद्रोहिणी
विद्रोहिणी
अपाला ने सूर्य की आराधना में ऋचाओं की रचना की। उन ऋचाओं के सस्वर पाठ से जलाभिषेक कर भुवनभास्कर का आवाहन किया। सूर्यदेव प्रकट हुए। वनप्रांतर में से कुछ जङी-बूटियाँ अपाला को वरदान में दी। अपना आशीर्वाद दे अंतर्ध्यान हो गये। अपाला ने उन औषधियों का परिष्कार व अनुसंधान कर रोग से मुक्ति पायी।
हवा के वेग से समाचार फैला। दूर-दूर से ऋषि अपाला के चरण वंदन के लिए आने लगे। उन्हीं में ऋषिकुमार अरुण भी था।
“ देवी मुझसे क्रोधवश भूल हुई। क्षमा करदो।आश्रम लौट आओ”।
“भूल कैसी कुमार। जिस दाग को लेकर मैं जन्म से ही त्रस्त थी, उसे देख तुम्हारा उत्तेजित हो क्रोध कर बैठना असामान्य तो नहीं था।"
“तो अब लौट चलो।"
“नहीं कुमार। अब पीछे लौट पाना संभव नहीं। तुम्हें मैं पति के सभी दायित्वों से मुक्त करती हूँ। मैं यही रह शिक्षा कर्म करना चाहती हूँ।"
अरुण लौट गये थे।
भीड़ में सबसे पीछे खड़े ऋषि अत्रेय के हाथ वरद मुद्रा में उठ गये। पुत्री ने आज एक बार फिर उन्हें गर्व के क्षण दिये थे।
अत्रेय ऋषि आश्चर्यचकित होने से अधिक अभिभूत हो गये थे। कितनी देर वे आत्मविस्मृत से अपाला को देखते रहे। अपाला को लगा, शायद वह कुछ गलत उच्चारण कर गई। पिताश्री ! “ उच्चारण गलत किया क्या ?"
” नहीं पुत्री “ - छलकने को आतुर आँसुओं को पलकों पर ही रोक उन्होंने सात साल की अपाला को हृदय से लगा लिया। उस दिन से ही अपाला की विधिवत दीक्षा शुरु हो गय़ी। ऋषिश्रेष्ठ जो ऋचाएँ रचते, अन्य वटु के साथ अपाला उसे कंठस्थ कर उसकी व्याख्या करती। आश्रम का प्रबंधन करने, गोवंश संभालने में मदद करती। धीरे धीरे अपाला की यश कीर्ति चारों दिशाओं में फैलने लगी।
जैसे जैसे अपाला बड़ी हो रही थी, यश पताका उससे भी ज्यादा बड़ी हो रही थी। देवपुत्रों और ऋषिकुमारों के विवाह प्रस्ताव आने लगे पर हर प्रस्ताव पर ऋषि और ऋषि पत्नि के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हो जाती। अपाला जन्म से ही पीठ पर दाग ले पैदा हुई थी और हजारों औषधीय उपचारों के बाद भी निदान नहीं हो पाया था। अरुण ने उन्हें आश्वस्त किया था कि वह हर परिस्थिति में अपाला का साथ देगा और उन्होंने अपाला का वाग्दान कर दिया था।
पर मास बीतते न बीतते अपाला के गृह त्याग का समाचार मिला तो वे दौड़ते हुए गंगा तट पर गये थे। तप लीन पुत्री से उन्होंने घर लौटने के लिए कहा। पर पुत्री द्वारा रचित ऋचाएँ देख उन्होंने पुत्री की इच्छा का सम्मान किया।
उसके बाद आज मिलने का सुयोग बन पाया है। आगे बढ़ उन्होंने पुत्री को गले से लगा लिया। ऋषिकुल ने सर्वसम्मति से अपाला को ऋषि का स्वीकार करने की घोषणा की और ऋग्वेद में सूक्त सम्मिलित कर लिए गये। अपाला ने अपना जीवन शिक्षा दीक्षा को समर्पित कर दिया।
