विडम्बना
विडम्बना
गधा तो गधा ही होता चाहे कुम्हार का हो, धोबी का हो या भिश्ती का, उठाना उसे बोझा ही पड़ता है, ऐसा ही हाल पंडिताइन का था, अक्सर रो दिया करतीं थीं ,"मेरे कर्म में तो सुख और आराम है ही नही , मरते मरते भी काठी पे से बुला लेंगे कि जाती -जाती ये काम और कर जाओ , मायके में मां और भोजायियों ने खूब पेरा,ससुराल में सास और जेठानी ने और अब इनके संगै आए तो कौन सुख है, पूरे दिन काम करत रहो"। कभी -कभी वह ऐसे भी कुंठित रहतीं कि वो पढ़ी लिखी नही है,"अगर आज चार अक्षर जानते होते तो जैसे और आदमी अपनी अपनी लुगाइयों को संग लगाए फिरते हैं,हम भी फिरते , अनपढ़ हैं तो जानवरों की तरह काम करते रहो बस ,जो बच जाए खालो,जो मिलजाए पहन लो"।
किसी भी समय पंडित जी घर पधारें तो उनकी चरण सेवा जरूर करो ,चाहे वो कभी भी भोजन के स्वाद को लेकर खरी खोटी सुना दें, यहां तक कि थाली फेंक दें, पंडिताइन को रुला दे, भोजन के समय मौन व्रत धारण कर लें। रोज-रोज की चिक -चिक से परेशान एक दिन झल्ला गईं और कह दिया कि "मैं कौन सा होटलों के पत्ते चाटती फिरती हूं जो व्यंजनों का पता हो, सदा दाल रोटी भात ही खाया और यही पकाया, मैं क्या जानूं"?
समय बीतता गया जिस सुख को वो पति से चाहती रहीं ,जो उन्हें ससुराल में नहीं मिला, औलाद ने भी नहीं दिया, बेटियों के ब्याह कर दिए , जाते- जाते तक उनसे भी वो झींकती ही रहीं, बाद में बेशक अब वे बेटियों से कोई उम्मीद नहीं लगातीं क्यों कि अब उन्हें लगता है कि गधों के औलाद गधा ही होती है या फिर जाने अंजाने में उन्होंने ही कोश दिया हो बेटियों को , कि ससुरालों में नौकरों की तरह मढ़ी रहती हैं।
खैर अब घर में बहु आने का समय आ गया था,लोग तरह तरह की शुभकामनाएं देने लगे थे ,अच्छी बहु आ जाए ,खूब सेवा करे, पंडताईन में बड़ी मेहनत करी है अब उसका फल प्राप्त होने का समय आ गया है, भगवान करे खूब अच्छी बहु मिले जो बिठा के सेवा करे, पर ये क्या शायद बोलने वालों की भावनाएं शुद्ध नहीं थीं इसलिए शब्दों का असर ही उल्टा पड़ गया और बहु खूब बैठ कर सेवा करा रही है, बेचारी पंडताइन यही सोच कर कि गधा तो गधा ही होता है वो चाहे जिसके राज में भी रहे बोझा तो उठाना ही पड़ेगा , डरी सहमी सी आगे -आगे काम में जुटी रहती हैं,बहुत डरती हैं किसी प्रकार का कोई क्लेश नही चाहतीं। यदि बेटियां कहें कि तुम क्यों लगी रहती हो ,पड़ा रहने दो , तो जवाब यही मिलता कि मेरे पेट की आग मुझे महसूस होती है बाहर दिखाई नही देती, उस पर तो पानी में ही डालूंगी ,कब तक जलती रहूं, एकदिन जब ठंडी हो जाऊंगी तो सारी जलने स्वत: ही मिट जाएंगी।किस -किस का कहूं , हम दोनों को दे ना दे अरे वो तो उसे भी नही देती समय से, उसके सिर में दर्द हो जाता है अगर उसे टाइम से न मिले तो । "तो जब एक को बनाओ तो दूसरे लायक तो अपने आप ही बन जाता है इसलिए उन्हें भी दे देते हैं"। इतने पर भी बहु नखरे में खाती नहीं है कि "मेरे लिए थोड़े ही बनाया है ये तो बच गया तो दे दिया"। पंडताइन फिर सहम जाती हैं कि अब कोई फिर नया बखेड़ा न खड़ा कर दे।
लोग क्या- क्या उम्मीदें पाल लेते हैं।ऐसे घर को संभालेगी ,बहु आएगी ऐसी सेवा करेगी, ऐसे मेरे मेहमानों की, मेरी बेटी दामाद की इज्जत करेंगी। इसमें किसी बहू की कोई गलती नहीं है ,इसमे सारी गलती पंडिताइन की है जो उन्होंने ये निरर्थक उम्मीदें पाली। ना वो ये उम्मीदें ना वो ये उम्मीदें पालती ना उनको येे दिन देखने पड़ते।।
