नंदिनी
नंदिनी
उस दिन सुबह से ही पेट मे दर्द था, पर किसी बीमारी का नहीं उस उत्सुकता का जो 2 महीने से मन मे थी, कि वो आज आ रही है और कल आ रही है, इंतजार करते-करते पूरे 2 महीने बाद ये पावन दिन आया| फोन से पता चलते ही कि गाड़ी दरवाजे पर आ गयी है ,सुनकर मै दरवाजे पर पानी का लोटा लेकर भागी गयी, आखिर पहली बार घर आई थी, तो सेंवल तो करना बनता है। गाड़ी घर के अन्दर आई उसको बड़े प्यार से उतारा गया | चारों ओर से नयी नवेली दुल्हन को मानो घेरा गया हो ऐसी हालत | पर सबको दरकिनार कर उसे उसके उचित स्थान पर बैठाया, उसकी सेवा पानी खातिर दारी खूब अच्छे से की गयी | शाम तक मुख दर्शन के लिए लोगों की आवाजाही शुरू हो गई |
कुछों ने तो बढ़िया ही कहा......, कोई बोला सई ये......, घर के बच्चे ही थे जो लंबी सी वाओ करके मुझे खुश कर गए, मेरे मन के उमड़ते भावों को दिन ढलते-ढलते तक मेरे देवर ने आकर, यह कहकर मसल कर रख दिया कि ये हड्ड फोड़ कहाँ से आई है ,और रही- सही कसर मेरी देवरानियों की कटीली हंसी ने पूरी कर दी |फिर तो ऐसा लगा शायद वाकई मुझ मे परखने की अटकल नहीं | पर अब आ गई तो भगाया भी तो नहीं जा सकता| अब एक ही सूझ मगज मे आई, कि जो कोई कुछ भी कहे कहने दो। शायद ये सब ईर्ष्या वश ऐसा कह रहे हों पर मुझे इनकी बातों मे नहीं आना, अपना मनोबल टूटने नहीं देना है, इनके पास खुद तो है नहीं तो मुझे भी अपने जैसी ही रखना चाहते हैं, अब बस यही बच्चों जैसे भाव थे जो मुझे सब कुछ भूलने के लिए बल दे रहे थे और साथ ही साथ यह प्रण भी करती जा रही थी कि एक दिन ऐसा कर दूँगी कि सबकी बोलती बंद हो जाएगी, इस प्रण मे उनका कुछ नुकसान करना नहीं था, मन मे बस मेरी जिस प्रिया की उन्होने निंदा की थी उसी की इतनी गुशल करूंगी कि देखते रह जाएंगे ,आंखे फट जाएंगी,जो ये न कह दिया कि यह वही है जिसे कभी हड्ड फोड़ कह कर जहरीली हंसी के साथ समर्थन किया था मेरी देवरानियों को आपस मे ये कहने को बाधित न कर दिया कि हाय कैसी कर दी पहचान मे भी नहीं आ रही, तो मेरा नाम नहीं |
बस अब क्या था सुबह शाम समय पर अच्छा से अच्छा खाना-पानी, सोने- बैठने ,स्नान- आराम, उसके सुख व दुख का पूरा ख्याल रखना शुरू हो गया शुरुआत मे तो सास पति व बच्चों को कुछ अड़चन सी महसूस हुई कि मानों उनकी सबकी हाला-हुज़ूरी मे कोई कमी हो रही है पर मेरा उसके भी प्रति दायित्व है, समझ में आया तो नखरे थोड़े कम हो गए|
मेरे घर आए को उसे लगभग देढ़ महिना बीत गया था अब उसका इकहरा वदन कुछ मांसल होने लगा था घर के ईर्ष्यालु लोगों की गाल काटने वाली मुस्कान मुझे दिखने लगी थी |उसमे उनका मैं दोष नहीं कहूँगी क्यों कि *ज्ञान व अनुभव मनुष्य को अभिमानी बना ही देता है* ,इसमे कोई दो राह नहीं कि वे तीनों ही मुझ से बहुत अधिक अनुभवी थे इस मामले मे , मुझे तो बस पिता से सेवा भाव ही विरासत मे मिला था इसी आधार पर अपने आपको आजमाने की कोशिश की थी, खिलाने-पिलाने के अलावा मैं उसकी हारी- बीमारी, सुस्ती-बेमनी आदि के बारे मे कुछ भी नहीं समझ पाती थी|इस अवस्था मे मुझे ना चाह कर भी उनसे मदद ,मशविरा लेना ही पड़ जाता था पर मेरा उसके प्रति प्रेम सारी जलालतों पर पर्दा डाल देता था और मै बार-बार यह दिखावा करती कि वह हम सबकी है| इस सब मे छुपे मेरे स्वार्थ का उन सबको भान था इसलिए जिस दिन उसे प्रसव पीड़ा हो रही थी वह कुछ खा भी नहीं रही थी उन अनुभवियों से कोई सलाह मुझे नहीं मिली और तो और प्रसवोपरांत कैसे संभालू क्या करूँ ,बच्चे को कैसे पकड़ूँ, के लिए जब मैंने अनुनय भी किया तो मुझसे कह दिया गया, 'करो खुद ही ये एक दिन का काम थोड़े ही है.... रोज न करना पड़ेगा क्या'? ऐसा लग रहा था मानो वो एक दिन मेरी मदद करके फंस जाएँगे और या फिर ये डर था कि कहीं मैं उंगली पकड़ कर पौंचा न पकड़ लूँ, पर खाता को दाता देता ही है। मेरे कभी न पिघलने वाले पति मे पता नहीं क्या चमत्कार हुआ मेरी तो मानो सारी चिंताए ही दूर कर दीं। यहाँ द्रौपदी की कहानी याद आई कि जब तक वो पांडवो को पुकारती रही कोई उसकी मदद के लिए नहीं आया और जैसे ही केशव को पुकारा तो चीर ही न निबटा| फिर तो मेरी हालत ऐसी कि अब तो जैसे कहें वैसे ही नाचूँगी, कहीं ऐसा न हो मक्खी छींक जाये और फिर दुबारा मैं तेरे- मेरे मुँह देखती फिरूँ, बस इसी बात को पल्ले बांध कर उनकी बंधुआ बनी रही, उसके प्रसवोपरांत उसका जो प्रमुख काम मुझे नहीं आता था उसीकी कमान मेरे पति ने संभाली |मेरी हालत ऐसी हो गयी कि वे मात्र सोचते थे और मुझे तार मिल जाता था पर इतने नबने पर भी उनका सर्वश्रेष्ठ होने का प्रदर्शन करने हेतु मेरे स्वाभिमान को ललकारना मुझे नागवारा हुआ। थोड़ा कष्टकारी तो था पर मेरे स्वाभिमान रक्षा के परिश्रम से अधिक नहीं,कभी कभी तो ऐसा लगता था कि वो जानबूझ कर ठमक रहे हैं ताकि मैं उन्हें इन सब कामो से छुटकारा दे दूँ और ऐसा ही हुआ आज फिर उनकी शहंशाही कायम है वो केवल आदेश ही देते हैं मानो कितने ज्ञानी हैं | खैर छोड़िए पर मैंने आपको उसका परिचय तो दिया ही नहीं कौन है?,कहाँ से आई है?,क्या नाम है उसका ? नाम के बारे मे कहूँ तो वो मैंने उसके आने से पहले ही सोच लिया था जैसे कि एक गर्भवती अपनी आने वाली संतान का सोच लेती है वह भी उसी आस से जो मेरे हृदय मे पिता द्वारा दी गयी मेरे दहेज की सारी याद समूल नष्ट हो जाने पर पुनः जागी थी, कुछ भी अनिष्ट होने पर बस एक ही बात मन मे आती थी कि वो चली गयी तो ये सब घटनाएँ घट रहीं हैं काश वो होती तो वशिष्ठ की कामधेनु जैसे हम पर अपनी कृपा बनाए रखती | हाँ बिलकुल वैसी ही है वह जिससे मेरा घर प्रति वर्ष एक नये सदस्य का स्वागत करता हैं ये सब बातें घर मे एक सकारात्मकता और प्रेम का संचार करतीं हैं उसके द्वारा लुटाये गए अमृत रस के पान के आदि हो गए हैं सभी अब मेरे घर मे| उसने अब तक इतना अमृत लुटाया है,मेरे घर को इतना समृद्ध किया है कि अब उसका एक अलग आवास ही बनाना पड़ा जिससे कि वह अपनी संततियों को भी अपना स्नेह बाँट सके।
आज वह अर्धवृद्धा है, पर अपने स्नेह मे कोई कमी नहीं की उसने,आज भी वह पास जानेपर हमे अपने आगोश मे मातृवत ले लेती है अब आपको बता ही दूँ कि वह मेरी वशिष्ठ की नंदिनी जैसी ही मेरी नंदिनी है........ राठी नश्ल की, लाल गेरुआ रंग की धेनु ही है |
