पितृपक्ष
पितृपक्ष
कल से पितृपक्ष आरम्भ होने वाला है, मधु ने आवश्यक साफ- सफ़ाई कर ली थी, और 16 दिनों तक बनाये जाने वाले व्यंजनों के लिए आवश्यक सामग्री की लिस्ट भी बना ली थी, बस सामान आ जाये तो उसे रसोई में सेट कर ले कि रोज बनाने के लिए उसकी पहुँच में रहे। सुबह-सुबह बहुत आफत मचती है उधर तो बच्चों के स्कूल की तैयारी, ऊपर से पितृपक्ष में बनाये जाने वाले भोजन का पूर्ण शुचिता पूर्वक होने का आदेश का पालन करना। पितृपक्ष कोई मामूली संस्कार नहीं वरन उत्सव है जिसमें नियमों के पालन की अनिवार्यता उसे उत्सव नहीं बल्कि भार बना देती है। परन्तु परिवार हमें यही सिखाता है कि किस प्रकार अपनी संस्कृतियों को हमें पीढ़ी दर पीढ़ी आगे ले जाना है । ये सारी बातें सोचती जा रही है मधु और अपना काम करती जा रही है, वो कहती है इस बार कोई क्लेश नहीं चाहती जैसा पिछले साल हुआ। इसलिए उसने ठान लिया कि चाहे 4 की बजाए 3 बजे उठना पड़े पर बच्चों के स्कूल समय से पहले ही सब काम निबटा लेगी, जो अदृश्य पूर्वज हैं उनकी सुश्रुषा के लिए क्या इन दृश्य संततियों की उपेक्षा करूँ, नहीं मुझसे न देख जाएगा मिट्ठू को तो उठते ही दूध चाहिए, वरना रो रो कर घर भर देगा, और ज्यादा रोया तो पता चला कि उसके पापा दो चार धर ही दें और अगर ऐसा हुआ तो फिर पितरों के लिए श्रद्धा कहाँ रह जाएगी। पर इतनी मेहनत के बाद भाव न बना, श्रद्धा न जागी तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। इस बार तो पितरों को प्रसन्न करना ही है, पितरों को प्रिय खीर तो रोज बननी है उसके अलावा दूध-दही, हलवा, पूरी-कचौरी, पकौड़ी, पूड़ा, सब्जी, कढ़ी, दाल, चटनी, रायता इनमें से जो भी बना सको चार -पांच आइटम भी हैं। फिर दिन में सबके खाने के लिए कुछ और बनेगा घर के सभी लोग रोज- रोज पितरों के लिए बनाए गए पकवानों को प्रतिदिन नही खा सकते, उन सबको कुछ और, हैल्थी फ़ूड चाहिये। काम करते-करते ये बातें उसके मन में अनवरत चल रहीं थीं ।उसके अगले दिन की लगभग सारी तैयारियां हो ही गयीं थीं बस सुबह के लिये दही जमाना बाकी रह गया था, उसने वह भी कर दिया, सारी रात सपने में भी यही चलता रहा कि कहीं देर न हो जाये ठीक से सो भी न सकी वह और अपनी प्रतिज्ञानुसार 3 बजे ही बिस्तर छोड़ दिया। वैसे तो शर्मा जी के घर में धन माल की कोई कमी नहीं, धार्मिक भी पूरे हैं पर दया मात्र शब्दों में होती है कर्मों में नहीं, और वह भी औरों के लिए अथवा अपनी बेटियों, बहनों, माँ-मौसी-बुआ आदि के लिए, घर की औरतें, पत्नी, बहुएं इन सब के लिए तो उनके ये धर्म कहे गए हैं जियो अथवा मरो अपने धर्म का निर्बाह करो। ऐसा व्यवहार झेलते हुए मधु ने 20 वर्ष बिता दिए थे इस घर में। आज तक भी किसी नौकर की सुविधा नहीं मिली, कभी-कभी तो वो सोचा करती थी कि बढ़िया नौकरानी मिली है इन सबको जो अकेली ही इनके सारे मतलब सिद्ध करती है, समय से पहले जाग कर धार्मिक कर्म करती है, पूरे दिन लगे-लगे घर में सभी के आदेशों का पालन करती है रात्रि में पति की चरण सेवा व दैहिक तृप्ति करती है, और मजे की बात तो ये की किसी भी कार्य में अरोचकता का प्रदर्शन करना सर्वथा अनुचित व अस्वीकारनीय होता है उसके लिए, कभी-कभी तो स्वयं को बंधुआ सा अनुभव करती है वह, पर बेचारी में इतनी ताकत भी नहीं कि इस सबका विरोध कर सके। जब कभी क्षुब्ध होती है तो विचार आता भी है विरोध करने का तो अगले ही पल अपने को अकेला पा टूट जाती है क्यों कि विरोध करना लक्ष्य नहीं प्रक्रिया है और उसमें सहयोगी होना आवश्यक है, और इस घर मे उसका सहयोगी कोई नहीं वह जब से ब्याह कर आई तब से अकेली ही है, जिसके लिए ब्याह के आयी उसने भी कभी साथ नहीं दिया। पर उसकी हिम्मत को तो दाग देना बनता है कि वाकई वह कितनी ताकतवर है
अपने प्रण के अनुसार सुबह 6 बजे तक वह अपने कार्यों से फ़ारिख हो चुकी थी, बस अब पतिदेव का इंतजार था कि कब महाशय पधारें और पितरों का आवाहन करें और उन्हें जिमायें। पितरों को जिमाने का काम पुरुष ही कर सकते हैं। जब तक पित्र नहीं तृप्त हो जाते तब तक घर में कोई पानी भी नहीं पी सकता ऐसा नियम है शर्मा जी के घर का, जिसका वे सब कभी कभी मधु को दंड देने के लिए प्रयोग करते हैं।
आज पहले ही दिन मधु को दंड भी मिला। मधु का दफ़्तर 15 किलोमीटर दूर ही है पर सुबह 8 बजे पहुँचने के लिए उसे 7:30 पर घर छोड़ना ही पड़ता है, पति देव को पता था कि आज से श्राद्ध शुरू हो रहे हैं परंतु मधु ने तो 3 बजे भी उठ कर अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया मगर पतिदेव आज भी अपने ही समय पर उठे उनके उठने के इंतज़ार करते -करते उसने इस बीच में सभी के लिए दोपहर का हैल्थी फ़ूड और पति देव के लिए अलग से व्रत का खाना भी बनाया बीच बीच में बच्चों की तैयारी भी कर दी । अब वह खुद भी तैयार होने लगी उसने सोचा जाते जाते कुछ खाने का तो समय न रहेगा चलो चाय ही रख दूँ चूल्हे पर ।एक एक काम करते हुए उसका ब्लड प्रेशर बढ़ता ही जा रहा था कभी घड़ी देख रही थी तो कभी सीढ़ियां जहाँ से पति देव अवतरित होंगे।अब वह पूरी तरह तैयार हो गई थी 10 मिनट ही बचे थे कि पति देव उतरते नज़र आये। अब वह आग बबूला तो थी पर इतनी हिम्मत नही कि भाव प्रगट कर सके क्यों कि वह जानती थी कि पितर जिमाने में ये 20 से 30 मिनट लगाएंगे ।इतने में ही गाड़ी का हॉर्न बजा और वह अपने घड़ी, पर्स, पानी की बोतल लेकर निकल ली चलते-चलते देवर की बेटी से कहती गई कि बेटा मेरी गैस बंद कर देना, चूल्हे पर चाय चढ़ी है।
आज फिर एक बार वह बिना चाय के तक घर से निकल गयी जो वाकई उसके लिए दंड सिद्ध होगा। बिना चाय के उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगती है जिसके लिए उसे इंजेक्शन लगवाना पड़ता है। शाम को जब वह लौटी तो सिर दर्द की सौगात साथ लायी थी सुबह की चाय तो रह गयी पर शाम की चाय पीकर वह कुछ देर के लिए लेट गई और यह सोचते-सोचते उसकी आंख लग गई कि क्या इतने निर्दयी होते हैं पित्र।
