Prafulla Kumar Tripathi

Drama

5.0  

Prafulla Kumar Tripathi

Drama

वह रात चांदनी !

वह रात चांदनी !

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"चाहत लखनवी" एक उभरते हुए शायर थे। किसी भी मुशायरे की वह जान समझे जाते थे।वह दौर टी.वी.,इंटरनेट अथवा सोशल मीडिया पर इन दिनों जैसे उपलब्ध इंटरटेनमेंट का नहीं था। साल में एक दो बार बड़े पैमाने पर मुशायरों का आयोजन हुआ करता था और पब्लिक उसे रात भर जाग -जाग कर सुनती थी। फिर पूरे साल शायरों के कलाम लोगों के जुबां की शान बना करते थे।तब तक, जब तक कलामों की नई खेप नहीं आ जाती।

उस रात भी मुशायरे की महफ़िल शबाब पर थी ! "ख़त मुरादाबादी"," शौक़ बाराबंकवी " और " एहसान कानपुरी" सुने जा चुके थे और अब मंच पर अपनी शमां रौशन कर रहे थे जनाब "चाहत लखनवी "वे फरमा रहे थे ;

" मेरे लबों पे उसका नाम रहता है,

हमेशा इश्क का ही पैगाम रहता है।

जहां से कूच करूँ, कह के बस यही " चाहत ",

कि मजनूं जाके वहां इंतज़ार करता है !"

तालियों की गडगडाहट से पूरा मैदान गूँज उठा।मौजूद सामयीन ऐसे ही सजे हुए शेर सुनना चाहते थे और इन तालियों से शायर का जोश और भी दुगुना हो जाया करता था।

चाहत साहब का जन्म लखनऊ के उस इलाके के कोठों पर हुआ था जहां मां का नाम तो पता होता है लेकिन उन बच्चों के पिता कौन हैं यह किसी को मालूम नहीं हो पाता।नवाबों और उनके नुमाइंदों का अक्सर आना जाना हुआ करता था।देर रात तक नाच गानों की महफिलें सजा करती थीं।बेला और चमेली के फूल अपनी खुशबू से हरेक को मदहोश कर दिया करते थे।बाई जी लोगों की बहुत ही इज्ज़त किया करती थी उन्हीं में से एक चमेली बानो के नृत्य और ठुमरी दादरे पर एक नवाब साहब दिलो जान लुटाया करते थे।उस रात भी उस कोठे पर एक खूबसूरत ठुमरी अपना प्रभाव बिखेर रही थी -

"मत मारो मत मारो,

मत मारो, नज़रिया के तीर,

करेजवा में,

करेजवा में पीर उठत है ...."

रहमूं मियाँ की सारंगी और भी दिल को चीरे जा रही थी ..उस पर से चमेली के पैरों के घुंघरू और उसकी खनक माहौल को और भी नशीला बना रहे थे।नवाब साहब की बोतल खाली हो चुकी थी और मलमली कुर्ते का बटुआ भी।उनके साथ आया उनका सहायक उन्हें अब चलने को कह रहा था कि मानो वे उस रात की सुबह देख कर ही जाना चाहते थे। उनके मनमाफिक वही हुआ और उस रात में ही नवाब साहब चमेली बानो के साथ हमबिस्तर भी हुए। चमेली उन्हे निराश नहीं करना चाहती थी और उस रात अपना जिस्म सौंपने में मिले उपहार को संभाल कर बड़ा करने लगी।

कोठों के बच्चों की परवरिश बहुत ही बेकार हुआ करती थी इसलिए चांदनी ने हर संभव उपाय करते हुए अपने लाडले को पढने के लिए बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया।नवाब साहब ने भी जितना हो सकता था मदद की थी।

समय तेज़ी से छलांग लगाता रहा।नवाबी के दिन विदा हो गए और अब अंग्रजों ने पूरे लखनऊ में अपना डेरा डाल लिया था।कोठों की रौनक भी कुछ मंद होती जा रही थी।इंटर का इम्तहान देकर जब लाडला घर आया तो बिना कोई देर किये अपनी अम्मी से खुदा हाफ़िज़ करके मुम्बई भाग गया।उसे ये नाचने गाने वाला मोहल्ला एकदम नहीं भाता था।मुम्बई में उसके साथ के कुछ लड़के मेहनत मजदूरी करते पेट पालते थे।वह भी उन्हीं में शामिल हो गया।

लेकिन उसके अन्दर का कलाकार अब भी कुलांचे मारा करता था।वह शेर --ओ शायरी से बेहद इश्क करता था।कुछ कुछ जोड़ घटा कर नज्में तैयार करता था।उसकी रूचि और हुनर देखकर मदद करने के लिए एक बड़े शायर ने उसे पनाह दे दी थी।वह शायरी का ककहरा सीख रहा था।लेकिन एक दिन उसकी माँ के इंतकाल की खबर आई और वह भागा- भागा लखनऊ वापस आ गया। लखनऊ अब काफी कुछ बदल चुका था। दिल्ली की सल्तनत भी ख़त्म हो चुकी थी और वहां भी यूनियन जैक लहरा रहा था।सबसे बुरा हाल शायरों का था जिनको वहां पनाह मिली हुई थी।वे भी अब तितर -बितर हो चले थे।लखनऊ उन्हें मुफीद लगा था और लगभग एक दर्जन शायर उन दिनों लखनऊ के मुशायरों की शोभा बढ़ा रहे थे।

हुनर और हौसलों ने उसे मरने नहीं दिया था और आज वह लखनऊ का एक नामचीन शायर कहला रहा था।उनकी उम्र जवानी की दहलीज़ तेज़ी से पार कर रही थी इसलिए उनको एक हमसफर की तलाश थी।

एक मुशायरे में जब चाहत साहब अपने कलाम पढ़ रहे थे तो ऊपर वाले ने उनकी सुन ली और मंच से वे ज्यों ही उतरे एक मोहतरमा ने आकर उनका आटोग्राफ माँगा।यह मौक़ा उनका "लव ऐट फर्स्ट साइट "बन गया।उन्होंने उनका पता मांग लिया और अगले दिन वे उन मोहतरमा नूरजहाँ के यहाँ हाज़िर थे।यह सिलसिला आगे भी चलता रहा।चाहत की शायरी में अब इश्क का तडका लगने लगा था।

शायरों की दुनिया भी अजीब हुआ करती है।वे तंगहाली में जीते हुए भी खुश रहते हैं। दिल के वे बेशक अमीर होते हैं।शराब उनके लिए ऊर्जा हुआ करती है इसीलिए घर और अपना अधोवस्त्र उनसे संभाला नहीं जाता। उस चांदनी रात में शहर के बीचो बीच से बह रही गोमती नदी के किनारे टहलते हुए चाहत साहब ने जब अपने दिल की बात नूरजहाँ के सामने रखी तो वह खिलखिला पड़ी।चाहत साहब बार बार पूछें कि क्या वह उनसे निकाह करेंगी और वह हर बार खिलखिलाहटों से उनका उत्तर दे दिया करती थी।अब चाहत साहब बहुत ही पेशोपेश में पड़े हुए हैं कि वे नूरजहाँ की इन खिलखिलाहटों को इश्के हकीकी समझें या इश्के मजाजी !उस चांदनी रात में उनके होठों पर बरबस ही बुल्ले शाह का ये शेर तैरने लगा है ;

"जीचर ना इश्क हकीकी लागे, सुई सिए ना बिन धागे,

इश्क मजाजी दाता है, जिस पीछे मस्त हो जाता है।"



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