वचन--भाग(९)
वचन--भाग(९)
दरवाज़े की घंटी बजते ही समशाद ने दरवाज़ा खोला तो सामने दिवाकर खड़ा था, दिवाकर भीतर आ गया, उसने समशाद से पूछा कि आफ़रीन कहाँ है? समशाद बोली कि शिशिर साहब आएं है और वो उन्हीं के साथ हैं, ये सुनकर दिवाकर का पारा चढ़ गया और वो फौरन बैठक की ओर गया, वहाँ उसने आफ़रीन और शिशिर को साथ में देखा तो, शिशिर के शर्ट की काँलर पकड़ कर बोला___
यहाँ क्या करने आया है, चल निकल यहाँ से, दिवाकर बोला।
जरा तमीज से पेश आओ बरखुरदार, ये तुम्हारा घर नहीं है, शिशिर अपनी काँलर छुड़ाते हुए बोला।
तो क्या हुआ लेकिन मैं भी यहाँ रहता हूँ, दिवाकर बोला।
रहने से ये घर तुम्हारा तो नहीं हो गया, शिशिर बोला।
मुझे यहाँ रहने की इजाजत आफ़रीन ने दी है, वो मुझसे प्यार करती है, दिवाकर बोला।
ये कोई तुझसे प्यार-व्यार नहीं करती, ये तो सिर्फ पैसों की यार है, अब तो तेरे पास कुछ बचा भी नहीं है, अब उसका तुझसे मतलब सिद्ध हो चुका है, वो चाहे तो कभी भी तुझे इस घर से लात मारकर निकाल सकती है, शिशिर बोला।
नहीं वो मुझसे प्यार करती है, इसलिए तो अपने घर में रहने की इज़ाज़त दी है उसने, दिवाकर बोला।
ये रही आफ़रीन, इसी से पूछ लो कि सच्चाई क्या है, शिशिर बोला।
हाँ बताओ आफ़रीन, आखिर सच्चाई क्या है, तुम मुझसे प्यार करती हो ना! बोलो....आफरीन बोलो...तुम जवाब क्यों नहीं दे रही? जो इसने कहा, क्या वो सच है... बोलो..आफ़रीन बोलो, दिवाकर चीखा।
हाँ दिवाकर! तुमसे प्यार का नाटक मैंने केवल तुम्हारे पैसों के लिए किया है, मैं तुमसे प्यार नहीं करती और अगर तुम चाहो तो मेरा घर छोड़कर अभी जा सकते हो, आफ़रीन बोली।
आफ़रीन के ऐसे अल्फाज़ सुनकर, दिवाकर के तो जैसे होश ही गुम हो गए, उसे लगा कि उसका दिमाग़ फट जाएगा और वो गिर पड़ेगा लेकिन उसने फिर भी खुद को सम्भाला और अपना सामान एक सूटकेस में पैक करके आफ़रीन के घर से निकल गया और आफ़रीन खड़े खड़े तमाशा देखती रही उसने एक भी बार दिवाकर को रोकने की कोशिश नहीं की, दिवाकर ने एक बार मुड़ के भी आफ़रीन की ओर देखा लेकिन आफ़रीन ने कोई भी प्रतिक्रिया ना दी, अब दिवाकर की उम्मीद टूट चुकी थी, उसने दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया।
दिवाकर सामान लेकर सड़कों पर मारा मारा फिर रहा था, उसे रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं मिल रहा था, इस गली से उस गली, उस गली से इस गली, जेब में फूटी कौड़ी नहीं और अब तो यार दोस्तों से भी कोई नाता नहीं रह गया था क्योंकि गलत संगत और गलत व्यवहार की वजह से उससे सारे दोस्तों से दोस्ती टूट गई थी, दिवाकर सूटकेस लेकर चला जा रहा था कि रास्ते में किसी मोटर ने एक बूढ़ी औरत को टक्कर मार दी, दिवाकर कुछ कर पाता इससे पहले वो मोटर वहाँ से तेज रफ्तार में रफूचक्कर हो गई, दिवाकर भागकर उस बूढ़ी औरत के पास गया और भी भीड़ इकट्ठी हो गई, दिवाकर ने बूढ़ी औरत को उठाया और देखा कि उसे ज्यादा चोट तो नहीं लगी है लेकिन बूढ़ी औरत होश में थीं और उसके पैर में जरा सी मोच आई थी, भीड़ में इकट्ठे लोगों ने भी उस बूढ़ी औरत का हाल चाल पूछा, उन लोगों ने देखा कि बूढ़ी औरत ठीक है तो चलते बने लेकिन दिवाकर के अन्दर थोड़ी इनसानियत बची थी और उसने उस बूढ़ी औरत से पूछा__
आप ठीक हैं, माँ जी!
हाँ, बेटा! लगता है कि पैर में थोड़ी मोच आ गई है, जरा सहारा तो दो, थोड़ा खड़े होकर देखती हूँ, बूढ़ी औरत बोली।
अच्छा माँ जी, जरा खड़ी तो हो जाइए, मैं भी देखूँ भला! आपके पैर में कितनी मोच आई हैं, दिवाकर बोला।
और बूढ़ी औरत को दिवाकर ने सहारा देकर खड़ा किया तो देखा उन्हें चलने में दिक्कत हो रही थी, तब दिवाकर बोला___
अच्छा माँ जी! आपका घर कहाँ है? मैं आपको आपके घर तक छोड़ देता हूँ और दिवाकर बूढ़ी औरत के बताए पते पर उसे पहुँचाने चल पड़ा, उसके घर पहुँचा, बूढ़ी औरत ने दरवाज़े का ताला खोला और दोनों भीतर पहुँचे_
धन्यवाद बेटा! भगवान तुम्हारा भला करें, संस्कारों वाले लगते हो, लगता है कि बहुत ही अच्छे खानदान से हो तभी इतने नरम दिल हो नहीं तो इस स्वार्थी दुनिया में कौन किसका होता है? बूढ़ी औरत बोली।
जी, लेकिन मैंने अपने घरवालों का बहुत दिल दुखाया है, तभी ऐसी स्थिति में हूँ, दिवाकर बोला।
ऐसा क्या किया है तुमने? जो घरवाले तुमसे दुखी हैं, बूढ़ी औरत ने पूछा।
माँ जी! नादानी में और जवानी के जोश हो जातीं हैं कुछ गल्तियाँ जिनकी भरपाई शायद हम जिन्दगी भर नहीं कर पाते, दिवाकर बोला।
अच्छा नाम क्या है तुम्हारा , बूढ़ी औरत ने पूछा।
जी दिवाकर..दिवाकर नाम है मेरा, दिवाकर ने जवाब दिया।
और मैं अनसुइया, बूढ़ी औरत बोली।
जी, बहुत अच्छा! आप यहाँ अकेली रहतीं हैं माँ जी, दिवाकर ने पूछा।
ना! मेरी बेटी के साथ रहती हूँ, पहले मैं गाँव में रहती थीं और बेटी यहाँ शहर में वकालत पढ़ रही थी, फिर गाँव में मेरी तबीयत खराब रहने लगी, वहाँ देखभाल के लिए कोई नहीं था तो बेटी अपने साथ शहर ले आई, बोली अच्छे डाक्टर हैं यहाँ, मुझे यहाँ अकेले अच्छा नहीं लगता, इसलिए घर के कुछ काम करती रहती हूँ, आज सोचा कि कुछ बेटी की पसन्द का खाना बना लूँ, उसी के लिए सब्जियाँ लेने जा रही थी तो मरे मोटर वाले ने टक्कर मार दी, अब बेटी आएगी तो मेरी आफ़त कर देगी कि तुम बाहर निकली ही क्यों, अनुसुइया जी बोलीं।
अच्छा तो ये बात है, बहुत डरतीं है आप अपनी बेटी से दिवाकर ने हँसते हुए कहा॥
ना बेटा! दोनों ही एक दूसरे का सहारा हैं इसलिए एक दूसरे की चिंता रहती हैं, अच्छा और बताओ, कहाँ रहते हो, अनुसुइया जी ने दिवाकर से पूछा।
जी! अभी तो कोई ठिकाना नहीं है, बस ठिकाना ढूंढ ही रहा था कि आप मिल गईं, दिवाकर बोला।
ये तो तुमने भली बताई, बेटा! ये हमारा मकान खाली पड़ा है, माँ बेटी ही रहते है, सालों पहले जब मेरे पति जिंदा थे तो शौक-शौक में ये मकान बनवा लिया था लेकिन रहे कभी नहीं, उन्होंने तो अपना डेरा गाँव में ही डाल रखा था, जमींदार जो थे लेकिन सबको बताते रहते थे कि हमारा एक मकान शहर में भी हैं, यहाँ पहले किराएदार रहते थे लेकिन जब बिटिया यहाँ पढ़ने के लिए आ गई तो मकान खाली करवा लिया, दो तीन कमरे खाली पड़े हैं, आँगन के उस ओर वहीं पर अलग गुसलखाना भी है और ये आँगन में कुआँ है पानी के लिए, साथ में हैंडपंप भी लगा है अगर कुएं से पानी ना खींच पाओ तो, अनुसुइया जी बोली।
माँ जी! आपने तो मेरी बहुत बड़ी समस्या हल कर दी लेकिन अभी मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं हैं, बस एक दो दिन में ही कुछ काम ढूंढ कर आपको पैसे दे दूँगा, दिवाकर बोला।
इसकी कोई जरूरत नहीं है बेटा! जब हो जाए तब दे देना, अनुसुइया जी बोलीं।
अच्छा!अब मैं चाय बनाकर लाती हूँ, जब तक तुम हाथ मुंह धो लो, फिर शाम का खाना भी तैयार करना है, बिटिया भी आने वाली होगी और घर में सब्जी भी नहीं है, अनुसुइया जी बोलीं।
आप चिंता ना करें माँ जी! सब्जियाँ मैं ले आऊँगा, चाय पीकर, दिवाकर बोला।
ये तो बहुत अच्छा हुआ, तुम क्या खाओगे, वो भी बना दूँगी, अनुसुइया जी बोलीं।
जो भी आप प्यार से खिलाएंगी तो खा लूँगा, मेरी माँ भी ऐसी ही थीं लेकिन मैं उनके अन्तिम दर्शन तक नहीं कर पाया, दिवाकर दुखी होकर बोला ।
तो क्या वो अब इस दुनिया में नहीं हैं, अनुसुइया जी बोलीं।
हाँ, मैंने सबके साथ बहुत गलत व्यवहार किया, दिवाकर बोला।
कोई बात नहीं बेटा! गलतियाँ सब से हो जातीं हैं और तुम अपनी भूल सुधारना चाहते हो तो ये बहुत बड़ी बात है, अनुसुइया जी बोलीं।
और इसी तरह अनुसुइया जी और दिवाकर के बीच बातें चलतीं रहीं।
शाम हो चुकी थीं, प्रभाकर उदास सा नारायण मंदिर में बैठा था, तभी कोई पूजा करके सबको प्रसाद बाँट रहा था, उसने प्रभाकर से कहा कि प्रसाद ले लीजिए, लेकिन जब प्रभाकर ने उसके चेहरे की ओर देखा तो बोल पड़ा__
अरे, सारंगी! तुम यहाँ, भला कैसे?
अरे, प्रभाकर बाबू ! आप यहाँ , भला कैसे? सारंगी ने भी प्रभाकर से यही सवाल किया।
मेरी तो बहुत लम्बी कहानी है फिर कभी सुनाऊँगा, तुम बताओ, प्रभाकर ने सारंगी से पूछा।
जी, मैं तो शहर में वकालत करती हूँ और इस बार गाँव से माँ को भी ले आई थी, उनकी तबीयत वहाँ ठीक नहीं रहती थी, सारंगी बोली।
लेकिन तुमने कभी बताया नहीं कि तुम वकालत पढ़ रही हो, प्रभाकर ने शिकायत की।
जी हुजूर! आपने कभी पूछा नहीं तो मैंने कभी बताया नहीं, सारंगी बोली।
ओहो.. ये बात है, लेकिन अच्छा लगा तुमसे मिलकर, नकारात्मक जीवन में कुछ तो सकारात्मक हुआ, प्रभाकर बोला।
मैं कुछ समझी नहीं, सारंगी बोली।
जी कुछ नहीं, बस ऐसे ही प्रभाकर बोला।
अच्छा! तो घर चलिए, घर चलकर चाय पीजिएगा और माँ से भी मिल लीजिएगा, सारंगी बोली।
जी फिर कभी, अब तो मुलाकात होती रहेगी, मैं यहीं बगल वाली धर्मशाला में ठहरा हूँ, प्रभाकर बोला।
ठीक है तो फिर मैं चलती हूँ, माँ इंतज़ार कर रही होगी, लेकिन चाय पीने घर जरूर आना होगा, सारंगी बोली।
जी..जी..बिल्कुल, अच्छा तो फिर मिलते हैं, प्रभाकर बोला।
ठीक है नमस्ते! और इतना कहकर सारंगी घर की ओर चल पड़ी___
रास्ते में सारंगी चलते चली जा रही थी लेकिन उसने महसूस किया कि कोई उसका पीछा कर रहा है, वो जिस जिस रास्ते से हो कर जा रही है वो भी वहीं वहीं आ रहा है, अब सारंगी ने अपने कदमों की चाल थोड़ी बढ़ा दी, लेकिन उसने पीछा नहीं छोड़ा , वो भी सारंगी के पीछे पीछे चला आ रहा था, अब सारंगी परेशान कि क्या करूँ, अब सारंगी ने अपनी सैंडिल उतारकर हाथों में ली और भागने लगी और सीधे घर के दरवाज़े पर रूक कर दम लिया और जोर जोर से दरवाजा पीटने लगी, माँ...दरवाज़ा खोलो...माँ...दरवाज़ा खोलो, अनुसुइया के पैर में चोट लगी थी इसलिए वो धीरे धीरे आँगन तक आई और दरवाज़ा खोला___
दरवाज़ा खुलते ही सारंगी अनुसुइया पर चिल्ला पड़ी___
इतनी देर लगती है दरवाज़ा खोलने मे....
अब क्या करें बेचारी, पैर में चोट जो लगी है दीदी! उस पीछा करने वाले शख्स ने कहा।
दीदी! किसकी दीदी? मैं तुम्हारी कोई दीदी-वीदी नहीं हूँ और तुम हो कौन मुझे दीदी कहने वाले, लफंगे कहीं के, कब से मेरा पीछा कर रहे हो, माँ को देखकर दीदी कहने लगें, तुम वहीं चोर तो नहीं हो जो आजकल सुनसान गलियों में औरतों का पर्स चोरी करके भाग जाता है, सारंगी बोली।
पहले आप भीतर चलकर ठंडा पानी पिएं और अपने गुस्से को ठंडा करें, फिर बैठकर बात करते हैं, वो शख्स बोला।
लो भाई! मान ना मान, मैं तेरा मेहमान, ना तुम मुझे जानते हो और ना मैं तुम्हें फिर भी गले पड़ रहो हो, मुंह उठाकर घर के भीतर ही चले आओगे क्या?वैसे कौन हो तुम? तुम.....हो कौन, सारंगी खीज पड़ी।
जी, मैं दिवाकर, इस घर का नया किराएदार, दिवाकर बोला।
तुम्हें रखा किसने, सारंगी ने पूछा।
माँ जी ने, दिवाकर बोला।
बिना मेरी मर्जी के, क्यों माँ ये सब क्या है? सारंगी ने अनुसुइया से पूछा।
अरे, दीदी! भीतर चलो, सारा मुकदमा यहीं दरवाज़े पर लड़ोगी क्या? थोड़ा गुनाहगार को भी अपनी बेगुनाही साबित करने का मौका दो, दिवाकर बोला।
ओ भाईसाहब! तुम चुप रहो, मैं अपनी माँ से बात कर रही हूँ, सारंगी बोली।
कैसे रहतीं हैं माँ जी! आप इनके साथ, दिवाकर ने अनुसुइया से पूछा।
अच्छा, पहले भीतर आ जा, सब बताती हूँ, अनुसुइया जी बोलीं...
