उपवास
उपवास
ऑफिस से लौटते ही चाय का कप देते हुए हमेशा की तरह रचना ने, दिन भर परिवार में घटी छोटी छोटी बातों की कानाफूसी मुझसे शुरू कद दी।
कुछ देर तो अनमने ढंग से मैंने उसकी बात सुनी। फिर उसे समझाने के लिए बोला, रचना जहाँ चार बर्तन होते है वहां आवाजें तो आती ही है।
छोटी मोटी गलतफ़हमी को तुम औरतें आपसी समझ से ही निपटा लिया करो। उसे घर के पुरुषों तक लाना ठीक नहीं, अब यदि तुम्हारी ये फिजूल की बाते खत्म हो गई हो।
तो जाओ किचन से कुछ खाने को ला दो। बड़े जोरों की भूख लग रही है, मैंने उसे टालते हुए कहा। तब वो बोली, हाँ लाती हूँ मेरी बातों को सुनने के लिए वैसे भी आपके पास समय रहा ही कब।
जरा कुछ कहा नहीं की लगे नसीहत झाड़ने।
प्लेट में खाना परोसते हुए उसके चेहरे पर मेरे लिए खिन्नता साफ दिख रही थी।
मैंने उसके गुस्से को शांत करने की नीयत से कहा ,आओ तुम भी खाना खा लो। तो वह बोली जानते नहीं आज मेरा नवरात्र की नवमी का उपवास है।
दिन भर भूखे रहकर जिसकी पसन्द का इतना कुछ बनाया। उन्हें न तो मेरी कदर है, ना ही मेरे लिए समय ।उसकी बातों से सहसा उसके लिए मेरा मन स्नेह से भर गया।
मैंने सोचा यह रचना शरीर से जितने उपवास करती है। यदि उसके आधे उपवास भी चुगली ना खाने( करने) के कर ले तो उसे भी बड़ी मानसिक शांति मिले।
और हमारे घर की भी आधी समस्याओं का अंत हो जाए। कि तभी उसके, पानी के गिलास को मेज पर रखने की आवाज से मेरी यह तंद्रा भंग हुई ।और मैं उसे एक पल देख मुस्कुरा दिया।