उम्मीदों की खीर
उम्मीदों की खीर
अरे ओ डाकिया बाबू,मेरे बेटे की कोई चिट्ठी आई क्या,अम्मा ने अपनी देहरी से ही आवाज लगाई।
न अम्मा कोई चिट्ठी न आई कहते हुए डाकिया बाबू ने अपनी सायकल अम्मा के दरवाजे पे रोक दी।
अम्मा बड़ी खुशबू आ रही तेरे चौके से,क्या बना रही ?
अरे मेरे बेटे के लिए खीर बना रही,उसे मेरे हाथ की खीर बहुत पसंद है,अम्मा ने कहा।
डाकिया बाबू ने जोर से हँसते हुए कहा-किस बेटे के लिए अम्मा,जो तुझे छः साल पहले छोड़ के चला गया ? अब भी तुझे उम्मीद उसके आने की?शुरू शुरू में तो वो चिट्ठी भेजता था,लेकिन पिछले दो साल से तो उसकी कोई चिट्ठी भी न आई।अब बस हर महीने कुछेक रुपियों का मनिआर्डर करे है तेरे नाम।
अम्मा छोड़ दे उसके आने की उम्मीद,वो न आएगा।इतने पैसों में तेरा अपना गुजारा तो होना मुश्किल ऊपर से ये खीर...
अम्मा ने तुनकते हुए कहा-अरे तू क्या जाने,वो शहर में कितना बड़ा अफसर है।टेम कहा मिलता होगा उसको चिट्ठी लिखने का। याद न तुझे उसने चिट्ठी में लिखा था कि वो जल्दी आ के मुझे ले जाएगा जब टेम मिलेगा।
अरे बेटा खीर तो बनने में टेम लागे है न,क्या पता वो आए और कहे चल अम्मा जल्दी चल तो जल्दी में खीर कैसे बना पाऊँगी ? इसलिए रोज बना के रखती मेवे वाली खीर। तू न समझेगा।
