तुम्हें अब भी चॉकलेट पसंद है- 2
तुम्हें अब भी चॉकलेट पसंद है- 2
इससे पहले कि हम गुल्लक खोल पाते, मम्मी कमरे में आ गईं और गुस्से से हमें देखने लगीं। मेरी तो सिट्टी पिट्टी ही गुम हो गई। डरते हुए फ्रॉक का घेर मुट्ठी में भरते हुए मैं बिस्तर से उतर कर नीचे जमीन पर खड़ी हो गई और आंखें नीची किये मम्मी की डांट और थप्पड़ का इंतजार करने लगी।
" तुम दोनों को कब से आवाज लगा रही हूं, सुनाई नहीं देता क्या ?", मम्मी ने गुस्से से पूछा।
" मम्मी, आवाज ही नहीं आई।", मेरी छोटी बहन ने पूरी निडरता से जबाब दिया। मैंने हैरानी से सिर उठाया और बहन की तरफ देखा। गुल्लक उसके पास नहीं थी बल्कि वह तो हमारे आस- पास भी नहीं दिख रही थी। मुझे ताज्जुब हो रहा था लेकिन वह समय कुछ पूछने का नहीं था।
" खेलना बन्द करो और आकर दूध कॉर्नफ्लैक्स ले लो।", आदेशात्मक स्वर में मम्मी ने कहा," देखो, मेरी हो रहा है कमर में दर्द और तुम लोगों को बुलाने मैं दुबारा नहीं आउंगी, समझीं !"
हम दोनों बहनों ने एक दूसरी को देखा और मम्मी की इस बात पर हाथ से मुँह दबा कर धीरे से मुस्कुरा दिए क्योकि यह वाक्य तो मम्मी का तकिया क़लाम था।
लेकिन मम्मी भी क्या करतीं, उनका सारा दिन घर के कामों और सबकी फरमाइशें पूरा करने में निकल जाता था। दादा जी खाने-पीने के बेहद शौकीन थे अक्सर पूरा खाना बन जाने के बाद अचानक उनका मन गर्मागर्म पकोड़ी या हलवा खाने का हो जाता था। दिन में दो बार नाश्ता और दो बार खाना बनता था। साफ -सफाई, कपड़े धोना आदि सभी काम मम्मी खुद करती थीं। सुबह परदादी( पापा की दादी) को पूरा खाना चाहिए होता था तो घर के बाकी लोगों को नाश्ता। हमारा बचपना उस समय इन बातों को कहाँ समझता था। हम तो मम्मी के झुंझला कर कहे जाने वाले उस तकिया कलाम की घर - घर वाले खेल में नकल उतार कर खूब हँसते थे।
दूध कॉर्नफ्लैक्स खाते हुए मैंने इशारे से बहन से गुल्लक के बारे में पूछा। उसने आंखों ही आंखों में मुझे सब्र रखने के लिए कहा और कॉर्नफ्लैक्स खाने लगी।
थोड़ी देर बाद हम कमरे में गए, मैं दंग रह गई जब छोटी बहन ने बेड के नीचे से गुल्लक निकाली। " तूने इसे कब छिपाया ?"
" जैसे ही मम्मी की आवाज आई और हम दोनों बिस्तर से नीचे उतरे थे तभी झुकते हुए गुल्लक नीचे रख दी थी।", बहन ने रहस्य से पर्दा उठाते हुए कहा।
उसकी समझदारी की दाद देते हुए मैंने उससे गुल्लक खोलने के लिए कहा। उसने पेचकस लिया और गुल्लक के की होल में डालकर इधर- उधर घुमाया, आश्चर्य... गुल्लक खुल गई। मैं मुँह खोले उसको देख रही थी, उसके चेहरे पर जीनियस होने जैसे भाव थे। " यह तुमने कैसे किया ?"
" मुझे तो बहुत पहले से आता है।",उसने आंखें मटकाते हुए कहा और गुल्लक का ढक्कन हटाकर उसमें रखे पैसे निकालने लगी।
" रुक- रुक, मुझे भी देखने दे।", उससे उसकी इस कलाकारी के बारे में ज्यादा न पूछ कर मैं गुल्लक से निकल रहे पैसों को देखने लगी। ऐसा लग रहा था जैसे एक खजाना हमारे सामने खुल गया हो। कुछ नोट और ढेर सारे सिक्के- पांच पैसे, दस पैसे, चवन्नी और अठन्नियां... ऐसा लग रहा था कि कुछ ही मिनटों में हम कितने अमीर हो गए। मेरी बहन ने फटाफट कुछ सिक्के अपनी तरफ रख लिए पर जैसे ही वह नोट उठाने लगी मैंने उसे मना कर दिया," रुपये मत ले, मम्मी को पता न चल जाए। थोड़े- थोड़े सिक्के रख लेते हैं। इतने सारे हैं उनको मालूम भी नहीं पड़ेगा।
हमारे बचपन में दस पैसे की भी खासी वेल्यू थी। पचास पैसे तो हमारे लिए अच्छी खासी धनराशि थी जिससे हम पांच पैसे वाली खांड की दस टॉफी खरीद सकते थे और खट्टे - मीठे चूरन की ढेर सारी पुड़िया ले सकते थे।
हमने अंदाजे से थोड़े- थोड़े सिक्के बांट लिए और गुल्लक बन्द करने लगे,लेकिन यह क्या... गुल्लक का लॉक बन्द नहीं हो रहा था।
" तू बन्द कर कैसे भी नहीं तो मम्मी को पता चल जाएगा।",डरते हुए मैंने बहन से कहा।
" कोशिश तो कर रही हूं लेकिन हो नहीं रहा।", पेचकस इधर- उधर घुमाते हुए उसने कहा।
अब मुझे उसकी काबलियत पर शक होने लगा। " इधर दे, मैं देखती हूँ।", उसके हाथ से गुल्लक और पेचकस लेकर मैं जितनी भी तरह से कोशिश कर सकती थी, कर डाली मगर गुल्लक बन्द नहीं हुई। अब हम दोनों घबरा गई।
"एक काम करते है इसे ऐसे ही रख देते हैं, मम्मी रोज तो चेक नहीं करतीं। बाद में देखते हैं।", बहन ने सुझाव दिया।
" और देख लिया न तो पता है कितनी डाँट पड़ेगी !"
"तो मम्मी से चलकर चाबी मांग लेते हैं।", बहन ने मुझे घूरते हुए कहा," चुपचाप ऐसे ही रख दो, कुछ नहीं पता चलेगा अभी।"
मरता क्या न करता। मम्मी के कमरे में खुली अलमारी के सबसे ऊपर वाले खाने में जहां एक कश्मीरी गुड़िया नीले रंग का सूट पहन कर हाथ मे गुलदस्ता लेकर गर्दन तिरछी कर के मुस्कुरा रही थी,उसके पास रखे सूरजमुखी के नकली फूलों के गुलदस्ते के पीछे हमने उस गुल्लक को रख दिया।
जोर- जोर से धड़कते दिल को काबू में करने की कोशिश करते हुए उन सिक्को को अपनी फ्रॉक में समेट कर हम दबे पांव अपने बस्तों के पास गए। मम्मी के कमरे से परदादी के कमरे तक पहुंचने का रास्ता बेहद जोखिम भरा था, किसी की भी नजर हम पर पड़ जाती तो शहीद होने की पूरी संभावना थी। खतरनाक रास्ते को पार करने के बाद यह सुनिश्चित करना था कि परदादी के कमरे में कोई है तो नहीं। झांक कर देखा- कमरा खाली था। जल्दी से अलमारी खोलकर हमने अपने बस्ते निकाले और फ्रॉक में रखे सारे सिक्के बस्ते में डाल दिये। उस समय बस्ते से सुरक्षित जगह हम बहनों को कोई नहीं लगी।
हम दोनों सबके आगे खुद को सामान्य दिखाने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अंदर ही अंदर बहुत डरे हुए थे यहाँ तक कि जब दादी ने हम दोनों से पड़ोस में चित्रहार देखने चलने के लिए कहा तो हम दोनों बहनों ने पढाई का बहाना बना कर मना कर दिया।
" आज सूरज किस दिशा से निकला है !", दादाजी ने हमारी पढाई करने वाली बात पर किताब में से सिर निकालकर हँसते हुए कहा।
" वो, दादाजी होमवर्क करना है न नहीं तो कल मैडम क्लास के बाहर खड़ा कर देंगी।", कहीं दादा जी सब समझ न जाये इसलिए इतना कहकर हम दोनों वहां से भाग खड़ी हुई।
" वैसे तूने बताया नहीं कि तुझे पैसे क्यों चाहिए थे ?", इतने समय बाद बहन को यह पूछना याद आया।
मैं उसकी शक्ल देखते हुए बहाना खोजने लगी क्योकि डर था कि कहीं सच बताया तो यह चॉकलेट में हिस्सा न मांगने लगे। आखिर इतना जोखिम चॉकलेट खाने के लिए ही तो उठाया था मैंने।
" तू बता रही है या मैं मम्मी को बताऊं !", अबकी बार बहन ने चिढ़कर ब्रह्मास्त्र चला दिया।
" मम्मी को बताया तो तू भी तो पिटेगी, गुल्लक तो तूने ही खोली थी।"
" मैं तो कह दूंगी कि तूने खोली, मेरा झूठा नाम लगा रही है, सोच ले।", बहन ने सीधे धमकी ही दे डाली
" तू झूठ बोलेगी।"
" हाँ, अगर तू मुझे सच- सच नहीं बताएगी।", बहन ने चुनौती भरी निगाहों से देखते हुए कहा।
अब तो मजबूरी थी उसे सच बताना, मुझे उस पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन अब कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था। छोटी होने के कारण वह सबकी बहुत लाड़ली भी थी इसलिए उसको तो कोई कुछ नहीं कहता मगर मेरी शामत जरूर आ जाती।
" मुझे चॉकलेट लेनी है इसलिये।", मैंने उसे राजदार अंदाज में कहा।
उसकी आंखें फैल कर चौड़ी हो गईं। " तो पापा से कह देती, वह दिला देते।", उसने मुझे समझाइश देते हुए दादी अम्माँ की तरह कहा।
" वो नहीं दिलाते तो ? पर मुझे खानी है।"
" तो दादाजी दिला देते, इसमें क्या बड़ी बात है। मुझे भी तो रोज रसमलाई खिलवाते हैं।", उसकी दादी अम्माँ जैसी समझाइश सुनकर मुझे चिढ़ आ गई लेकिन वह फिर बोली," वैसे कितने की आती है चॉकलेट ?"
" मुझे नहीं पता, कल स्कूल से लौटते समय दुकान पर जाऊंगी तब पूछ लूंगी। अब मुझे पढ़ने दे।", वह अपनी कत्थई आंखों से कुछ देर मुझे घूरती रही फिर खुद भी अपनी हिंदी की किताब निकाल कर जोर-जोर से कविता पढ़ने लगी- "उठो लाल अब आंखें खोलो,पानी लाई हूँ मुँह धो लो, बीती रात कमल दाल फुले..."
" दाल नहीं, दल होता है।", मैंने उसकी गलती सुधारने की कोशिश की जिसे उसने सिरे से नकार दिया और दाल ही बोलती रही। मैंने भी उससे बहस नहीं की क्योकि ज्यादा समझाने पर यदि वह गुस्सा हो जाती तो मम्मी को सब बता आती वैसे भी कोई बात देर तक छिपाने पर उसके पेट में दर्द होने लगता था और मैं नहीं चाहती थी कि उसके पेट में दर्द हो।
खाना खाने के बाद बिस्तर पर देर रात तक नींद नहीं आई। एक तरफ चॉकलेट खरीदने की उत्कंठा थी तो दूसरी तरफ गुल्लक के कारण पकड़े जाने का डर। सहसा याद आया कि सभी दुकानदार तो पापा व दादा जी को जानते हैं, यदि किसी ने उनको बता दिया तो..... !
यह बात तो अभी तक मेरे दिमाग में नहीं आई थी, क्या करना चाहिए। चॉकलेट पाने के लिए गए अपने प्रयास पर पानी फिरता हुआ नजर आने लगा। सहसा याद आया, क्रॉसिंग की तरफ वाले मार्केट में नई दुकानें खुली हैं, वे लोग शायद पापा को न जानते हो और अगर पापा को जानते भी होंगे तो कम से कम उनको यह तो नहीं पता होगा कि मैं उनकी बेटी हूँ। यह ख्याल आते ही मन को थोड़ी तसल्ली हुई। अब बस एक ही समस्या थी, क्रॉसिंग का मार्केट स्कूल से बहुत दूर था और हमें वहां जाने की इजाजत भी नहीं थी लेकिन चॉकलेट के लिए जहां इतना खतरा उठाया वहां थोड़ा खतरा तो और उठाना पड़ेगा। अकेले वहां तक जाने में भी डर लग रहा था और जिन सहेलियों के साथ मैं स्कूल जाती- आती थी, क्या पता वे चलने को तैयार होंगी या नहीं, क्या कह कर उनको मनाऊंगी। यही सब सोचते- सोचते कब मुझे नींद आ गई पता भी न चला।
( क्या क्रॉसिंग के मार्केट तक पहुंचने में मैं सफल हो सकी ? जिस चॉकलेट के लिए इतने खतरे मोल लिये,क्या वह चॉकलेट हासिल हो सकी ? इन सब सवालों का जबाब पाने के लिए इंतजार करें अगले भाग का, बस दुआ कीजियेगा कि कहीं उसके पहले बहन के पेट मे दर्द न शुरू हो जाय और वह मम्मी को सब बता दे, फिर मेरी चॉकलेट का क्या होगा उससे भी अहम सवाल है कि मेरा क्या होगा।