Ranjana Jaiswal

Tragedy

5.0  

Ranjana Jaiswal

Tragedy

तुम क्यों हार गई शिखा

तुम क्यों हार गई शिखा

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शिखा मेरे बचपन की सखी थी।कक्षा छह से बी. ए. तक हम एक साथ एक ही कालेज में पढे थे।कस्बे के एकमात्र कालेज में पढ़ने के लिए वह मिलों दूर अपने गाँव से आती थी।कस्बे में घर होने के कारण मैं आने-जाने की परेशानी से मुक्त थी।वह इसे मेरा 'भाग्य' कहती।वह घोर भाग्यवादी थी।उसके अलावा मेरी एक और सखी मीना भी थी।वह दूसरे गाँव से आती पर जमींदार परिवार की होने के कारण उसके पास आने-जाने के साधन थे।बाद में वह साइकिल से आने-जाने लगी।उसके पिता हमारे कालेज में ही लेक्चरर थे|शिखा के चाचा भी कालेज में प्रवक्ता थे,पर उसके पिताजी अमीरों के घर पूजा-पाठ कराने का काम करते थे।तीन भाई और तीन बहनों वाले उसके परिवार में कुल सात लोग थे और कमाई नाममात्र की।खेती-बारी और चाचा जी की मदद से से किसी तरह बच्चों की शिक्षा व परवरिश हो रही थी।बड़े भाई एम. ए. करके भी बेरोजगार थे ,साथ ही उनकी शादी भी हो गयी थी।उसकी माँ बहुत दुखी रहा करती क्योंकि उसके पिता अपनी जिम्मेदारियों को लेकर सीरियस नहीं थे।शिखा खुद को अभागी कहती थी। मैं उसे समझाती। कालेज के दिन भरपूर ऊर्जा और उमंग और सुनहरे सपनों के दिन होते हैं।हम तीनों ही पढ़ाई में होशियार थे इसलिए अध्यापकों के प्रिय थे।मीना और मैं दोनों शरारती भी कम नहीं थे।हर बात पर हँसते –खिलखिलाते पर शिखा अक्सर उदास रहती। वह हमेशा बड़ी-बुढियों की तरह बात करती।हम उसके दुख की तह तक नहीं पहुँच पाते थे।तीनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना भी खूब होता।एक –दूसरे के घर रूक भी जाते।शिखा के भाई के गौने में हम दो दिन उसके गाँव में रूक गए थे।घर में गरीबी साफ दिख रही थी।मीना के गाँव में मुझे जो मजा मिलता था ,वह शिखा के गाँव में नहीं मिलता था।मीना के घर जाते हुए हम उसके खेतो से ढेर सारे मटर तोड़कर ले जाते और उसकी स्वादिष्ट घुघनी छक कर खाते।उसके बाग में बड़हड़....फालसे ,आम ....जामुन ...लीची के बहुत सारे पेड़ थे।हम पूरे दिन बाग में घूमते और फल तोड़कर खाते।एक नदी भी थी जिसके किनारे एक नाव लगी रहती।हम नाव में बैठकर थोड़ी दूर सैर भी करते।कभी-कभी हम झगड़ा भी कर लेते और कई दिन तक एक-दूसरे से रूठे रहते।यह सब कुछ हाईस्कूल के बाद छूट गया।’बड़ी हो गयी हो’ कहकर सखियों के गाँव में रूकने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।पर दिन में हम एक-दूसरे के घर आते-जाते रहे।हाईस्कूल में हम तीनों ने खूब मेहनत की।मैंने कालेज टाप किया।मीना भी प्रथम श्रेणी ले आई पर शिखा मात्र आठ नंबर से प्रथम नहीं आ पाई।वह खूब रोई और खुद को अभागी कहने लगी।इंटर्मीडिएट में भी यही क्रम रहा।वह और दुखी हो गयी।बी. ए. में तीनों के बीच फिर प्रतिस्पर्धा थी पर अब मेरे घर की परिस्थितियाँ मुझे परेशान कर रही थीं।पिता जी बीमार हो गए थे।छोटी सी चाय की दूकान से सात भाई –बहनों की पढ़ाई और खाना-खर्चा चलाना मुश्किल था ,इसलिए मेरी पढ़ाई छुड़वाने की बात हो रही थी।पर मैं पढ़ाई छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी।

शिखा के भाई की नौकरी अभी तक नहीं लगी थी जबकि वह दो बच्चियों का पिता बन चुका था।मीना अब भी हमसे बेहतर स्थिति में थी|शिखा और मुझमें बस यह अंतर था कि मैं उसकी तरह हार मानकर भाग्य को नहीं कोसती थी।संघर्षों में मेरा विश्वास था पर शिखा हर बात में भाग्य को कोसती और हार मान बैठती थी।

हमारी परीक्षाएँ निकट थीं।हम जी-जान से अपनी पढ़ाई करने लगे।परीक्षा समाप्त कर मैं नानी के घर चली गयी।रिजल्ट निकला।इस बार शिखा ने बाजी मार ली थी।उसके नंबर हम दोनों से ऊपर थे ,पर इस खुशी को देखने –सुनने के लिए शिखा नहीं थी।

नानी के घर से लौटने के बाद यह दुखद खबर मुझे मिली कि शिखा ने आत्मघात कर लिया है।वह अपने गाँव के समीप बहने वाली नहर में कूद गयी थी।उसकी लाश गाँव से मीलों दूर नहर में एक जगह फँसी मिली थी।खबर पाकर उसके पिता और भाई गए पर उसे घर नहीं लाए।बल्कि जिस मोड़ पर उसकी लाश अवरूद्ध हुई थी ,वह रास्ता खोलकर उसे नहर में आगे बहा दिया।प्रत्यक्ष दर्शियों ने बताया कि शिखा के लंबे घने केश पानी की सतह पर लहरा रहे थे।लग रहा था जैसे कोई जल परी तैर रही है।थी भी वह बहुत ही सुंदर।गौर वर्ण ,लंबे केश के साथ ,बड़ी-बड़ी आँखें और सुंदर सुडौल शरीर।हम उसे हेमामालिनी कहकर छेड़ते थे।

जवान लड़की की असामयिक मृत्यु पर अफवाहें भी बहुत उड़ाई जाती हैं।एक अफवाह यह थी कि शिखा का किसी अधिकारी के घर आना-जाना हो गया था ,उसने उसके साथ कुछ बुरा कर दिया। दूसरी अफवाह थी कि प्रेम में उसे असफलता मिली।प्रेमी द्वारा शादी से इंकार से वह टूट गयी थी,इसलिए उसने अपनी जान दे दी।तीसरी अफवाह ये कि वह किसी के साथ कहीं चली गयी है और जिंदा है।पर घर वालों ने उसे मरा घोषित कर दिया।ऊंची जाति की नाक का प्रश्न जो था। पर इन अफवाहों को मैंने सिरे से खारिज कर दिया।मुझे शिखा पर खुद से ज्यादा विश्वास था।मैंने सबसे कहा कि एक बार मैं गलत हो सकती हूँ पर शिखा नहीं।वह भावुक थी ...आत्महत्या की कायरता कर सकती थी पर प्रेम-प्यार या व्यभिचार नहीं।

मेरे मन में यह कसक थी कि उन दिनों मैं उसके साथ क्यों नहीं थी ?होती तो हमेशा की तरह उसे डिप्रेशन से निकाल ले जाती।आखिर चंद दिनों में ही उसके साथ ऐसा क्या हो गया था कि उसने ऐसा कदम उठा लिया था ?परीक्षा की तैयारी के समय उसने यह तो बताया था कि चाचा जी ने जमीन –जायजाद का बंटवारा कर लिया है।अब उसके घर खाने वाले अधिक हैं कमाई का एक भी श्रोत नहीं।थोड़ी सी जमीन भर है और पुराने घर का आधा हिस्सा।तब मैंने उसे समझाया था कि किसी तरह पेपर दे लो रिजल्ट के बाद किसी नौकरी की तलाश की जाएगी।आखिरी पेपर देकर वह मेरे घर आई थी और खूब रोई थी कि उसके चाचा ने उससे छोटी अपनी बेटी का विवाह कर दिया है।जिससे गाँव के लोग उसको संदेह की नजर से देख रहे हैं कि बड़ी होकर भी वह कुंवारी क्यों हैं ?एक जगह से विवाह का रिश्ता उसके लिए भी आया है पर बिना दान-दहेज के विवाह कैसे होगा ?उसके पिताजी रात-दिन उसे अभागी कह रहे हैं कि इसके विवाह के लिए खेत बेचना होगा और दूसरे बच्चे भूख से मरेंगे।वह नहीं चाहती कि उसके कारण उसके भाई-बहन भूखे मरें।वह खुद मर जाना चाहती है।

मैंने उसे समझाया -मूर्खतापूर्ण बातें न सोचो।कुछ बोल्ड डिसीजन लो।अभी शादी जरूरी नहीं।आगे पढ़ने के बारे में सोचो।तुम होनहार विद्यार्थी हो।कस्बे में एक स्कूल खुला है।मैं उसमें पढ़ाने की सोच रही हूँ तुम भी कोशिश करो।आगे की पढ़ाई का खर्च भी निकलेगा और आत्मनिर्भरता से आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।परिवार वालों पर बोझ भी नहीं रहेंगे।

पर वह राजी नहीं हुई।कहने लगी - "गाँव में मेरे इतना पढ़ने का ही विरोध होता है।मुझसे छोटी लड़कियों का विवाह हो गया है।बाहर रहकर नौकरी करना तो बदनामी का कारक बन जाएगा।

--तो क्या तुम यह सोचती हो कि कस्बे में लड़की की स्थिति बेहतर है।रोज लड़ना पड़ता है मुझे जीने के लिए।हाईस्कूल के बाद से ही मुझे पढ़ने के लिए जंग लड़ना पड़ा है।तुम तो पढे-लिखे परिवार से हो।उच्च जाति की हो।पर मैं पिछड़ी जाति की वह लड़की हूँ जिसके पूरे खानदान में कोई हाईस्कूल पास भी नहीं है।सोचो ऐसे लोग पढ़ाई ,वह भी लड़की की,को कितना महत्व देते होंगे ?आठवीं कक्षा के बाद ही लड़की की शादी कर देने का रिवाज है हमारे बनिया समाज में ,नहीं तो थू -थू ....छि -छि शुरू हो जाती है।"

ऐसे में भी मैं एम ए ,पी- एच डी करना चाहती हूँ।नौकरी करना चाहती हूँ लेखिका बनना चाहती हूँ।आसान है क्या यह सब? पर मैं लड़ूँगी भाग्य को कोसकर चुप नहीं बैठ जाऊँगी।जिंदगी हमें जो दे रही है...उसी में से अपना प्राप्य खींचना होगा हमें।हम क्यों हार मान लें ?हम कोई गलत काम तो कर नहीं रहे पढ़ना ही तो चाहते हैं।तुम्हें हौसला करना ही होगा शिखा।"

"पर मैं तुम्हारी तरह साहसी नहीं हूँ ....मेरा भाग्य ...."

"प्लीज शिखा अब भाग्य का नाम न लेना ...हजारी प्रसाद द्विवेदी के ‘कुटज’ को पढ़ी हो न।किस तरह वह पहाड़ की छाती को चीरकर अपनी जीवनी शक्ति ले लेता है और हमेशा हरा-भरा रहता है।हम इंसान होकर भी क्या किसी कुटज वृक्ष से भी गए –गुजरे हैं?"

शिखा मान गयी थी उसने लड़कर आगे बढ़ने का वादा किया था पर कुछ दिन गाँव में रहकर वह फिर जाने किन उलझनों का शिकार हो गयी ?पिता के तानों ...भाई की बेरोजगारी ....छोटे भाई-बहनों के भविष्य और माँ का दुख ....आखिर किस बात ने उसे इतना तोड़ दिया कि उसने हार मान ली।

कितनी अजीब बात थी कि उसके मरने के कुछ दिन बाद ही उसका बेरोजगार भाई अधिकारी हो गया।उसके परिवार का कायाकल्प हो गया।वे गाँव छोड़कर बड़े शहर के बड़े बंगले में रहने लगे।रूतबा ,पैसा गाड़ी क्या नहीं है आज उनके पास ...बस शिखा नहीं है।मुझसे मिलते ही भाई आँखें चुराने लगता है ...पिता बाहर चले जाते हैं जैसे उनकी संपन्नता और प्रतिष्ठा में शिखा की याद भी दाग है।बस शिखा की माँ रोने लगती हैं कि आज उनकी बेटी भी मेरी इतनी ही होती।

पढ़ाई के दिनों में मुझे अक्सर शिखा के सपने आते।पी-एच डी के दौरान वह भी फाइल लिए विश्वविद्यालय की सीढ़ियों पर दिखती और शिकायत करती –"तुम पहले क्यों चली आई ...मुझे साथ ले लेती ?मैं खुशी से चीखती कि आँख खुल जाती।"

आज उम्र के चौथे दशक में सोचती हूँ कि तुम होती तो कैसी दिखती शिखा ?हम मिलकर अपने पुराने दिन याद करते।एक-दूसरे का दुख-सुख बांटते।पर तुम नहीं हो ..तुम जिंदगी से लड़ न सकी।मुझे देखो ,आज भी लड़ रही हूँ हर पल।तुम्हारा दुख मुझे आज भी सालता है।

तुमने हार क्यों मान ली शिखा ?कुछ दिन और सब्र कर लेती तो कम से कम आज जिंदा तो होती।


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