टूटे हुए तार
टूटे हुए तार
बिजली फुल्लो कुम्हारिन की मँझली बेटी थी।फुल्लो का पति सलेक चपरासी की नौकरी करता था, एक पुराना पम्प रूम और उसका अहाता विभाग की ओर से दिया गया उनका निवास था। फुल्लो भैंस पाल कर दूध भी बेच लेती थी। मैं शाम पाँच बजे डिब्बा लेकर जाता था, जब तक फुल्लो दूध निकाल रही होती थी खेलने का टाइम मिल जाता था।
ये 1980 से पहले की बात है। यानी कि तब हम सब दस साल से छोटे रहे थे।
फुल्लो की सबसे बड़ी बेटी का नाम छुटकि था, थी तो वो हमारे उमर की पर समय से पहले ही परिपक्व हो गयी थी माँ के साथ जिम्मेदारी उठाते उठाते। भैंस पालना, चाक चलाना, सब्ज़ी उगाना और बाक़ी समय सिनकू को कमर पर लटकाए घूमना। सिनकू छुटकि और बिजली का सबसे छोटा गोदी चढ़ा भाई था, शायद सलेक के लिए वो फुल्लो का फुल् स्टाप रहा होगा।
तो फुल्लो के उस बड़े से आँगन में, जिसके एक सब्ज़ी का छोटा सा खेत था और एक खेलने का खुला हिस्सा, वहीं बिजली से मुलाक़ात हुई।बिजली अपने नाम जैसी ही थी तो मुलाक़ात न कहें बिजली का झटका कहें।
गोल बैंगन जैसी चमकती काली बिजली कालीदेवी का अवतार जैसी थी और हमारे जैसे साहेब के लौंडे उसके लिए राक्षस। चाहे हम आइसपाइस खेलें, धप्पा, या पकडम पकड़ाई। प्रचंड रूप में आकर जब तक वो दमन न कर दे तब उसकी आंखो की धधकतीं ज्वाला शांत न होती।
जब काफ़ी समय वो स्वेच्छा से मेरा दमन कर चुकी और उसे यह अनुमान हो चला की ये लड़का उस दलित कन्या से कहीं ज़्यादा दलित किया जा चुका है तो बिजली मेरी बहुत अच्छी मित्र बन चली। शैतान तो हम दोनो एक नम्बर के जो थे बिजली ने मुझे फुल्लो और छुटकि की नज़र बचा कर भैंस का दूध निकालना सिखाया। गर्मी की भरी दुपहरी में अपने फ़्रिज से बर्फ़ के टुकड़े निकाल कर अपने सर के ऊपर रख कर चल पड़ते। चिलचिलाती धूप में क़रीब एक किलोमीटर दूर हाथ में दर्जन भर पथ्थर लिए कालेज के अकेले खड़े आम के पेड़ के नीचे जा पहुँचते। फिर शुरू होती निशानेबाज़ी की प्रतिस्पर्धा। एक दर्जन क्षत विक्षत आम को लेकर जीत के तेज से बैंगनी हो चुके चेहरे के साथ अपने अपने घरों में वैसे ही चुपचाप आ कर सो जाते जैसे निकल कर गए।
इस तरह की अठखेलियों के अनगिनत अनविरत प्रसंगों से भरा अपना बचपन बहुत रोमांचक ज
ा रहा था। उन सब बाक़ी साथियों से कहीं अलग जो अपने माँ बाप के आज्ञाक़ारी बच्चों की तरह सिर्फ़ ‘अच्छे’ बच्चों के साथ ही खेलते थे और बिना बताये घर से ऐसे नहीं भागते थे।
कुछ साल बाद पिताजी की पदोन्नति हो गयी और हम लोग एक बड़े घर में चले गए जो फुल्लो के आँगन से कुछ दूर था। सामने ही बड़ा सा खेल का मैदान था जिसने रोज़ क्रिकेट होता था। टीन एज की दहलीज़ पर वो काफ़ी आकर्षक था। ज़्यादा समय वहीं गुजरने लगा। इस कॉलोनी में त्रिलोकि नाम का टीकाधारी धीर गंभीर प्रौढ़ सफ़ेद धोती कुर्ता पहन पीतल की बाल्टी में दूध लेकर आता था। तो मेरी दूध लाने की ड्यूटी खतम और पूरा समय क्रिकेट।
एक दिन दूर जाती बॉल पकड़ने मैं दौड़ा तो खेत के किनारे तक जा पहुँचा। बॉल उठा कर वापस मुड़ा ही था कि मुझे आवाज़ आयी। खेत से लौटती सर पर फूस का गट्ठर रखे कुछ औरतें आ रहीं थीं। उनमें से एक हाथ हिला हिला कर खिले चेहरे के साथ अति आनंदित हो मेरी तरफ़ तेज़ी से चल पड़ी थी , मैं विस्मित भी था और झिझक भी रहा था। कौन है और मेरे से क्या कह रही है ?
बिसनू बिसनू की आवाज़ कुछ जानी पहचानी सी लगी।
और जैसे ही पहचान पाया तो एक सेकंड के लिए जड़ सा होकर रह गया। कोई इतनी जल्दी इतना कैसे बदल सकता है शक्ल तो उसके जैसी ही है पर ये इतनी बड़ी औरत क्यों बन गई ? बिजली बिलकुल मेरे पास आकर खड़ी हो गई शायद अगर सर पर भारी सा गट्ठर ना पकड़ा होता तो आकर वो मुझे पकड़ ही ना लेती। मेरा चेहरा लाल हो चला था मुड़कर देखा तो साथी खिलाड़ी परेशान थे की बॉल लेकर क्यों खड़ा है। मै बदहवास अपने साथी खिलाड़ियों को ओर दौड़ चला।
एक सेकंड को बिजली के चेहरे की ओर नज़र गयी तो वो अभी वहीं खड़ी थी। मलिन-मुख, आहत। मुझे तब तो अपनी प्रतिक्रिया ठीक लगी। अपने हमउम्र नवयुवक मित्रों के समक्ष उस ग्रहस्थ महिला को मित्र कह पाने का साहस न जुटा पाया।
पर आज सोचता हूँ तो अपराध बोध होता है।
बाद में पता चला कि उस दिन के दुर्घटित संयोगवश आमना सामना होने से पहले ही सलेक की टीबी से मौत हो गयी थी फिर फुल्लो ने दो भाइयों से छुटकि और बिजली की शादी कर दी। भैंस भी साथ चली गयी थी।
ऐसे हुआ बिजली का शॉर्ट सर्किट।