ठण्ड में ठग
ठण्ड में ठग
तेज ठण्ड है। हाथ-पैर-सिर सब ठण्ड के मारे कांप रहे हैं। इधर अखबारों में ठण्ड की नहीं ठगी की चर्चा है। रोज नए नए ठग पैदा हो रहे है। ठगो ने अपने पेशे को वैधानिक चोला पहना दिया है। वे अब ठगी के लिए कम्पनियां बनाकर ठगी कर रहे है। ठगी के नए-नए तरीके ईजाद कर रहे है। अठारहवीं सदी में देश पर ठगों का साम्राज्य हो गया था। पिण्डारी के ठग बहुत प्रसिद्धि पा गये थे। वे आज भी भारत के इतिहास में विख्यात है कुख्यात नहीं।
ठग कहां नहीं है, अर्थात सर्वत्र है। साहित्य, संस्कृति, कला, राजनीति, अफसर शाही, सचिवालय, राजधानी तथा सत्ता के गलियारों में सब जगह ठगो का साम्राज्य है। हर नेता, बड़ा अफसर और व्यापारी मुझे ठग नजर आता है। वे बेचारी भोली भाली जनता को ठगने का काम करते हैं। जनता हार कर ठगी जाती है। ठग राजधानियों में ज्यादा पाये जाते हैं। केन्द्र की राजधानी दिल्ली में तो हर तरफ ठग ही ठग है। जैसा ठग चाहे बस मिल ले। एक बार मिल लेने से कुछ नहीं बिगड़ता, काम बन सकता है ठण्ड में ठगी करने का मजा ही कुछ और है।
हर नेता दूसरे नेता को ठग समझता है विपक्षी नेता तो सरे आम सरकारी नेता को ठग कहता है और सरकारी नेता अपना समय आने पर विपक्षी को ठग साबित कर देता है। बाबा रामदेव को भी ठग की उपाधि एक नेता ने अपने श्रीमुख से दे दी है। अन्य भगवानों को भी शीघ्र ही ठग की उपाधि मिल जायेगी। ठगने, और ठगा जाने में बड़ा अन्तर है। ज्यादा सीधे सादे सरल लोग चालू, चालाक, तेज, तर्रार, धूर्त लोगों के द्वारा ठगे जाते है। साहित्य,-संस्कृति और कला में भी ठगों का बड़ा जोर है। कवि सम्मेलन के आयोजक तो ठगों का ही दूसरा अवतार माने जाते हैं। आप एक अच्छी फिल्म के लिए जाते है और वो फिल्म देखकर स्वयं को ठगा महसूस करते हे। बाजवक्त ठग आलोचक का मुखोटा लगा लेता है ऐसे मुखोटे वाले आलोचक ठग साहित्य में काफी पाये जाते हैं।
राजनीति में ठग वास्तव में उच्च स्तर के दलाल होते है जो सत्ता के गलियारों में चहल-कदमी करते रहते हैं। ये ठग किसी की भी फाइल को पास कराने की ठगी वसूलते रहते है यदि आपके सम्बन्ध सत्ता से अच्छे है तो आप ठगी की कला को पाठ्यक्रम में भी जुड़वा सकते है। ऐसी नामी गिरामी कम्पनियां अपने पे रोल पर ठग और पाठ्यक्रम समितियों के सदस्यों को ठगी का भुगतान भी करती है।
वास्तव में ठगी सुविधा सम्पन्न होने का सरल रास्ता है। गरीब को मध्यमवर्ग और मध्यम वर्ग को अमीर और अमीर को शक्ति सम्पन्न ठगता रहता है। भोली भाली ग्रामीण बाला को शहरी बाबू ठग कर चला जाता है। ये शहरी बाबू बाद में पकड़े भी जाते है।
गरीब और आम आदमी को ठग कर कितने ही लोग धनवान, सत्तवान, बन गये है। लेकिन ये ठग बाद में किसी को भी नहीं पहचानते है। राजनीति, साहित्य, कला, संस्कृति, सत्ता के सारे रास्ते ठगे जाने वाले व्यक्ति के पिचके हुए पेट से ही गुजरते है। ठगो के सारे कर्म आम आदमी को गरीब बनाये रखने का एक षड्यन्त्र ही होते है। सारे ठग आदमी को भीड़ समझ कर स्वयं स्वयंम्भू मठाधीश हो जाते है। भूखे पेट वाले को ठगना आसान हैं क्यों कि भूखा पिचका पेट नये साम्राज्य को जन्म देता है, मगर हर क्रान्ति करने वाला बलि हो जाता है क्रान्ति की सफलता ही क्रन्ति-कर्ता की असफलता है। उसे तो मरना पड़ता है। लेकिन ठग तो क्रान्ति के झंझट में नहीं पड़ता है। वो तो ठगी करके अपना काम निकाल लेता है। ठग हमेशा व्यावहारिक होता है वो सिद्धान्तो के चक्कर में नहीं पड़ता है सफलता ही ठग का मूल मन्त्र होता है।
व्यवस्था में परिवर्तन ठगी से नहीं, हो सकता उसके लिए प्रतिबद्ध मानवीय सहयोग होना चाहिये।
ठगो को अपना काम करने दीजिये क्योंकि वे नहीं तो कोई ओर अपने को ठगेगा। पुलिस वाले की बीबी नहीं तो किसी मंत्री की बीबी ठगेगी अपनी तो नियति ही ठगा जाना है सो है पाठकों स्वयं को ठगे जाने के लिए तैयार रखिये और जब भी चुनाव आयोग का आदेश आये इन ठगों को निकाल बाहर कीजिये।