yashwant kothari

Comedy

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साहित्य की धर्मशाला ,कर्मशाला और पाठशाला

साहित्य की धर्मशाला ,कर्मशाला और पाठशाला

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पिछले दिनों एक साहित्यकार सम्मान समारोह में जाना पड़ा,पड़ा इसलिए की सम्मानित होने वाले लेखक ने बार बार आग्रह किया था, सो चला गया ।वहां देखा की लेखक खुद ही पीर बाबर्ची भिश्ती खर बना इधर से उधर दौड़ रहा है।यह देख कर मुझे कलम के सिपाही और दरो गा याद आये।कार्यक्रम में एक और सज्जन मिले बोले-यार मैंने साहित्य की धर्मशाला में अपना कमरा हमेशा के लिए बुक करा लिया है ।आगे उन्होंने बताया की साहित्य की इस धर्मशाला में कुछ लोग फर्श पर ही अपना बिस्तर डाल कर पड़े हैं,कुछ ने डोरमेट्री पर कब्ज़ा कर रखा है,कुछ लोग तो और भी होशियार निकले,उन्होंने साहित्य के मुसाफिर खाने की दीवारों पर अपना नाम खुद ही स्वर्णाक्षरों में अंकित कर दिया।कुछ लेखकों ने कोयले से विरोधी लेखकों के शान में कसीदे लिख दिए हैं।साहित्य की इस धर्मशाला में भीड़ में मेरी जगह कहाँ है मैं यहीं सोचता हुआ कार्यक्रम में पीछे बैठकर उंगने लगा।मंच से साहित्य का सदाचार वृत्त बाँटने लग गया है।

दूर दूर तक दृष्टि दौड़ाने पर साहित्य के पञ्च सितारा होटल, तीन सितारा होटल, वातानुकूलित धर्मशालाएं, मुसाफिर खाने, सब आसानी से दिखाई देने लगे। कुछ लोग साहित्य के प्रतीक्षालय में बैठ प्लेट फार्म पर अपनी पसंद की रेल का इंतजार भी कर रहे थे। साहित्य की ट्रेन लेट ही आती है और कई बार भारी भीड़ से भरी होती है,लेकिन बटुक की मदद से लेखक घुस जाता है। फर्स्ट ए सी में कामिनी के साथ साहित्य का सफर आनंद देता है।कवियों के होटल अलग,कहानीकारों के अलग, उपन्यासकार तो बेचारे अकेले ही अपनी गुफा में धूनी रमा कर बैठे रहते हैं। व्यंग्यकार तो फूस की झोपडी में ही पड़ा पड़ा लिख लेता है,वैसे भी लिखने से क्या होता है,मंचासीन सज्जन ने बताया,मैं मंत्री हूँ -नहीं लिखने के कारण ।आलोचकों ने तो पेड़ों के नीचे ही डेरा डा ल दिया हैं।साहित्य में जातिवादी संस्कार बहुत गहरे है, एक दूसरे के होटल या धर्मशाला में जाने का रिवाज नहीं है।नए बटुकों को दीक्षा देते समय सब समझा दिया जाता है।साहित्य की फिजा में सब जायज़ है।

वैश्य निर्णायक वैश्य को पुरस्कृत करते हैं।ब्राह्मण निर्णायक ब्राह्मण को सम्मानित करते हैं।,क्षत्रिय निर्णायक क्षत्रिय को इनाम देते हैं। दलित निर्णायक दलित को पुरस्कार देते हैं प्रगतिशील प्रगतिशील को देता है। जनवादी जनवादी को पहचानता है।जनसंस्कृति मंच जन संस्कृति मंच को सम्मानित करता है ।राष्ट्रवादी राष्ट्रवादी को देता है । और इस प्रकार साहित्य हर बार अपमानित होता है।

कुछ लोगों ने कविता को पञ्च सितारा स्टेटस दे दिया हैं वे वहीँ से कविता की हांक लगा रहे हैं।कुछ महानुभावों ने लघुकथा के शो रूम बना लिये हैं ।व्यंग्यकारों ने अपने अपने मठ, गुफा, कन्दरा बना ली है। जो ज्यादा समझदार है उन लेखकों ने अपनी अपनी आइवरी टावर बना ली हैं,वे ऊंचाई से साहित्य की निचाई नाप रहे हैं, इस चक्कर में कई तो गिर चुके हैं,लेकिन कपडे झा ड के फिर खड़े हो जाते हैं।कई लोगों ने अपने सींग काट लिये हैं ताकी उनकी गिनती साहित्य के बछड़ों में की जा सके।आपा धापी में साहित्य का तोलिया कमर से खिसक गया है। कंचुकी गिरने को उतारू है,मंच पे कभी भी गज़ब का दृश्य देखने को मिल सकता है।लोग फटी आँखों से दृश्य देख रहे हैं।पुराने लेखकों के पास पेंशन है,पत्रिका है सम्पादक है नए लेखकों के पास क्या है ?साहित्य के बाज़ार में धुआं देने वाले इंजनों को अब सरकार सडक से बहर कर देगी।साहित्य के कागजों पर पेपर वेट रखने से क्या होगा ?ये तो खाली कागज है यारों कुछ लिखो फिर देखो।

साहित्य का रास्ता किधर को जायगा कौन जानता है बाबा?जो ज्यादा ऊंचाई से गिरते हैं उनको ज्यादा चौट लगती है सो जानना रे बाबा।नए नए विशेषज्ञ पैदा हो गए है,हर शहर में समोरोहों की बहार है, आयोजक प्रायोजक जलवा दिखा रहे हैं।हाजरीन –ए जलसा एश काट रहे हैं ।

समारोह समाप्ति की और है, जितने लोग होल में सुन रहे थे,उनसे दोगुना लोग बर्फी,समोसों व कोल्ड ड्रिंक पर हाथ साफ करने में व्यस्त है,कुछ लोग अगले पुरस्कार के जुगाड़ में अपने पैसे से स्वयम पर केन्द्रित पत्रिका का अंक निकलने के लिए सम्पादक की जेब में लम्बी रकम डाल रहे है, सम्पादक ही अगले पुरस्कार के निर्णायक भी है, अभी से मेनेज करना होता है श्रीमान ।

भगवन भला करे। आमीन...


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