बीवी मांग रही वाशिंग मशीन
बीवी मांग रही वाशिंग मशीन
दीपावली पर नया खरीदना एक परंम्परा बन गयी है और जमाने की रफ्तार बड़ी तेजी से बदल रही है। पहले के जमाने में घर परिवार के अपने कायदे-कानून हुआ करते थे, मगर शहरीकरण तथा उपभोक्तावादी संस्कृति ने सब कायदे-कानूनों को ताक पर चढ़ा दिया है और रह गयी है एक नंगी भूख जो सीधे भोगवाद की ओर ले जाती है। घर-परिवार सीमित हो गये। छोटे परिवार सुखी परिवार हो गये और इन सुखी परिवारों के अपने-अपने दुःख हो गये। मोहल्ले-पड़ौसी समाप्त हो गये। नदी, तालाब, घाट पर कपड़े धोने की परंपरा समाप्त हो गयी। नल-संस्कृति के आने के बाद पनघट की परंपरा का नाश हो गया। उधर मोहल्ले में नित नई चीजों का आवागमन बढ़ गया है और इन्हीं चीजों में एक अत्यंत महत्वपूर्ण चीज है - वाशिंग मशीन। मैंने भी दीपावली पर खरीदी यह वाशिंग मशीन। अब आप सुनो इस खरीद की राम कहानी।
मोहल्ले में एक छोटे सुखी परिवार, जिस पर काली लक्ष्मी की अपार कृपा थी, के घर पर त्यौहारों की मांग के अनुरूप एक वाशिंग मशीन आ गयी। पूरे मोहल्ले में तहलका मच गया। बीवियों ने मीटिंग की। पत्नियां और धर्म पत्नियां मिल गयीं और वाशिंग मशीन वाली के घर पर धावा बोलने चल दीं।
अगली ऐसे ही मौके की तलाश में थी। जब मोहल्ले में पहला रंगीन टी.वी. आया था तब वह पिछड़ गयी थी, इस बार यह नहीं हुआ। सब पड़ौसिनों को प्यार से बिठाया। अपनी वाशिंग मशीन की खूबियों से अवगत कराया और गर्व से छाती तानकर बोली -‘‘हमारे वो हमारा कितना ख्याल रखते हैं कि एक रोज कहने लगे, बेबी की मम्मी अब तुम्हारे हाथ से कपड़े धोने के दिन गये। साबुन घिसो, कपड़े पछारो, उनहो पानी में झकोलो, निचोड़ो और फिर सुखाओ। ये सब काम अब एक मशीन करेगी।
मैं बोली - जाओ, आप तो मजाक करते हैं, ऐसी भी कोई मशीन होती है भला और बहना सच कहती हूँ , दूसरे ही दिन यह मशीन उन्हों ने दफ्तर जाते समय घर भिजवा दी।
सब महिलाएं इस मशीन प्रकरण को दत्तचित्त होकर सुन रही थीं। अब अंत में मशीन की खूबियों के साथ चाय-नाश्ता हुआ और सब महिलाएं अपने-अपने घर गयी मगर उनके मन में तो वाशिंग मशीन घुस गयी थीं।
मैं शाम को थका-हारा कार्यालय से घर आया तो देखा कि सुबह के मैले कपड़े, टावल यहां तक कि चड्डी बनियान भी यथावत पड़े थे। उनहें धोने की कौन कहे वे तो बेचारे लावारिसों की तरह सड़ रहे थे।
मैंने पत्नी से कारण जानना चाहा तो वे फट पड़ी - अब मैं इन कपडो को नहीं धोऊगीं। बहुत दिन धोबिन का काम कर लिया। अब विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है।
हां देवी विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, मगर तमाम तरक्की के बावजूद घर का काम करना ही पड़ता है।
वो सब मैं नहीं जानती, अब कपड़े धोने की मशीन विज्ञान ने बना दी है और कपड़े हाथ से धोने बंद हो जायंगे। मोहल्ला महिला समिति का भी यही निर्णय है।
लेकिन सोचो, इस तरह यदि सब कामकाज के लिए मशीन ले ली जायगी तो फिर मानव की जरूरत की क्या रह जायेगी ? हो सकता है बच्चे पैदा करने वाली मशीन भी बन गयी हो ? फिर तुम लोगों का क्या होगा ?
मुझे बहलाओ मत। बस एक वाशिंग मशीन का जुगाड़ कर दो।
देखो, तुम अच्छी तरह जानती हो अपने पास वाशिंग मशीन के लिए कोई प्रावधान अगली पंचवर्षीय योजना तक नहीं है। और फिर सोचो धर का काम करते रहने से शरीर हल्का-फुल्का रहता है और स्वास्थ्य भी ठीक रहता है।
अब तुम मुझे बनाओ मत। मैं बच्ची नहीं, तीन बच्चों की माँ हूं।’’ उन्हों ने तमक कर कहा।
हां, इसलिए तो कह रही हूं कि आपके लाड़ले बच्चों के कपड़े धोने की मशीन नहीं हूं मैं। या तो सब लोग अपने-अपने कपड़े खुद धोएं या फिर आप मशीन ले आये । मैं अब घर को धोबी घाट नहीं बनने दूंगी।
मुझे अब नरम पड़ना ही था। सो मैं पड़ गया और बोला - देखो समय पर सब ठीक हो जायेगा। अभी तो जैसे चल रहा है, चलने दो।
क्या खाक चलने दूं ? पड़ोस में वाशिंग मशीन आ गयी है। लक्ष्मीजी की कृपा से।
लक्ष्मी की कृपा नहीं, काली लक्ष्मीजी की कृपा से।
अरे बाबा, काली या सफेद क्या फर्क पड़ता है, लक्ष्मी लक्ष्मी है।
तुम नहीं समझोगी।
लेकिन मैं इतना समझती हूँ कि वाशिंग मशीन से कपड़े धोना आसान और सरल है। समय भी बचता है और सुनो, साबुन, नील, टिनोपाल, पाउडर तथा पानी की भी बचत है। इन सबसे घर में बचत होती है। ऐसा पड़ोसिन ने बताया है।
मैंने अपना सर पकड़ लिया, समझ गया। यह सब आग पड़ोसन की वाशिंग मशीन की है अच्छा छोड़ो यह धोबी मशीन का मामला। कुछ चाय - वाय पीये ।
चाय-वाय तो ठीक है मगर इस साल दीपावली पर अपनी गृहलक्ष्मी को यह उपहार दे दो बालमजी। उन्हों ने नयनो के तीर छोड़ते हुए कहा और हम घायल हो गये।
अब आप ही बताइये बेचारे बालमजी क्या करते ? पी.एफ. से लोन लिया। बोनस को पकड़ा और एक अदद वाशिंग मशीन ले आये, ताकि कपड़े समय पर धुलते रहे और घर की गृहलक्ष्मी खुश रहे।