भूतपूर्वों की कच्ची बस्ती
भूतपूर्वों की कच्ची बस्ती
सायंकाल कच्ची बस्ती की तरफ जाना हुआ। चारों तरफ गंदगी, धूल, मीट्टी, नंग धडगं बच्चे, चिखती चिल्लाती औरतें आवारा ठाले बैठे मर्द। हर तरफ अजीब फिजा। इसी बस्ती के एक किनारे पर मुझे दिखी एक भूतपूर्वो की बस्ती। इस बस्ती में भूतपूर्व मंत्री, भूतपूर्व अफसर, भूतपूर्व अध्यक्ष, भूतपूर्व चमचे सब कुछ भूतपूर्व मगर अभूतपूर्व। बस्ती में सब चुपचाप पड़े थे, अपने दिन गिन रहे थे। ये भूतपूर्व अपने पुनर्वास हेतु भी प्रयास कर रहे थे, एतदर्थ नये आकाओं की तलाश में भी लगे हुए थे। कुछ को जनता ने पिछला दरवाजा दिखा दिया था। कुछ ने इस्तीफे फेंक कर इस कच्ची बस्ती का दामन थाम लिया था, कुछ को नई सरकार ने बरखास्त कर दिया था। अब इनके चारों ओर कोई प्रभा मण्डल नहीं था मगर इन भूतपूर्वो के कारण कच्ची बस्ती में बड़ी रौनक थी।
भूतपूर्वो की बस्ती में भूतपूर्व प्रधानमंत्री, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, भूतपूर्व राज्यपाल, तक थे। सभी चाहते थे कि उनका राजनैतिक पुनर्वास हो जाये। वे बस्ती में रहते हुए बस्ती से बाहर निकलने की सोचते थे। जब जब भी चुनावों की घोषणा होती ये भूतपूर्व अपने लाव-लश्कर के साथ मैदान में उतरने की घोषणा
कर देते। इसी कारण इस भूतपूर्वो की बस्ती में अक्सर घमासान मचा रहता।
मैंने एक भूतपूर्व से पूछा ‘ भाई साहब। ’ अरे भाई साब किसको बोला तू। मैं तेरे को भाई साब लगता। भाई साब वाले भूतपूर्व आगे रहते। मैं कामरेड। बोलो मुझको। समझे की नहीं। ये कह कर वे वहीं पसर गये। मैंने उन्हें छोड़ा एक अन्य भूतपूर्व को पकड़ा, पूछा आपकी ये हालत किसने बनाई। मेरी ये हालत जनता ने बनाई। क्यों। क्योंकि मैंने कुर्सी पर बैठकर किसी की नहीं सुनी। और अन्त में जनता ने मेरी नहीं सुनी।
एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री राज्यपाल बनना चाहते थे मगर उनकी पार्टी ने उन्हें घास नहीं डाली। एक अन्य भूतपूर्व प्रधानमंत्री को उनकी ही पार्टी के नेताओं ने शयशैया पर लिटा दिया था। मगर उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त नहीं था। वे बेचारे शयशैया पर पड़े पड़े पानी को तरस रहे थे, उन्हें एक ऐसे अर्जुन की तलाश थी जो बाण छोड़े और पानी सीधा उनके मुख में जाये।
कच्ची बस्ती में भूतपूर्वो के नजारे बड़े दिलचस्प थे। एक बड़े भूतपूर्व अफसर अभी भी अपने ठसके के दिनों की याद में जी रहे थे। मगर अफसोस अब न बंगला, न गाड़ी, न हसीन स्टेना न चमचे न मातहत। कोई जीये तो कैसे जीये।
कुछ भूतपूर्व सेवानिवृत्त अफसर किसी न किसी जुगाड़ में लगे रहने के लिए भूतपूर्व सम्मेलन करने की फिराक में थे। यदि सरकार उन्हें अवसर दे तो वे फिर अफसरी दिखाने को बेताब थे। वे आपस में ही लड़ मर रहे थे।
भूतपूर्वो की कच्ची बस्ती में राजनीतिक नियुक्तियों की अफवाह मात्र से सभी के कान खड़े हो जाते। वे तेजी से अफवाह उड़ाने वाले के पास जाते और नियुक्तियों का गणित समझने की कोशिश करते। कहां प्रयास करना ठीक रहेगा। किसके पास जाता है। कैसे पकाये ये खिचड़ी।
भूतपूर्व चमचों की स्थिति बड़ी विचित्र थी। वे अपने बॉस के पास थे, मगर करने को कुछ नहीं था।
मैंने एक भूतपूर्व से पूछा
‘ यार आजकल क्या कर रहे हो ? ’
‘ सोच रहा हूं। संस्मरण लिख डालूँ। ’
‘ अरे यार ये गजब मत करना। सब बे नकाब हो जायेंगे। ’
‘ तो फिर आत्मकथा लिख लेता हूं। ’
‘ ये तो ओर भी खतरनाक होगा भाई। ’
‘ तो फिर क्या करूँ। ’
थोड़े दिन इंतजार करो नई सरकार में तुम्हें कहीं घुसाने की कोशिश करते है।
भूतपूर्वो की दास्तान कभी खत्म नहीं होती। सूर्योदय से शुरू होती है और सूर्यास्त तक चलती है। कुछ भूतपूर्व स्वयं भी दास्तान बनाते-बिगाड़ते रहते है। मैंने एक भूतपूर्व मंत्री से पूछा ‘अब क्या इरादा है,
-इरादे बड़े नेक है। नई सरकार की बखिया उधेड़ने की बड़ी इच्छा है। अवसर मिलने की देर है।
‘ मगर आप तो संसद में नहीं है।
तो क्या हुआ सरकार को कहीं भी कभी भी घेरा जा सकता है। मीडिया मेरे पास है।
मीडिया अब सरकार के पास है। मेरे इस विचार को उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया।
भूतपूर्वो की बस्ती में कुछ महिलाएं भी थी। कभी इनके जलवे राजनीति, साहित्य, कला, संस्कृति में थे, मगर कुर्सी से हटते ही ये भी इसी बस्ती में आ गई। अब नाच कूद कर खुद के पैरो को देख देखकर रो रहीं थीं।
भूतपूर्व नेताओं की नगरी में धीरे धीरे रौनक बढ़ रहीं थी। चुनावों से पहले जहां सन्नाटा हो जाता था, वहीं चुनावों के बाद बस्ती में बड़ी तेजी से भूतपूर्वो की इस कच्ची बस्ती में कब कौन आ जाये कोई नहीं जानता। और कब किसका राजनीतिक पुनर्वास हो जाये ये भी कोई नहीं जानता। फिलहाल मैं भी इसी कच्ची बस्ती का बाशिंदा हूँ, बारह बरसो में तो घूरे के भी दिन फिरते है, फिर ये भूतपूर्व तो बेचारे इंसान है, ईश्वर करे इनके भी दिन फिरे। आमीन।