सफ़र यारी और दुश्मनी का
सफ़र यारी और दुश्मनी का
हिंदी साहित्य में आदमी अपनी औकात को सुधारने के लिए क्या क्या नहीं करता यह मैंने साहित्य के दलदल में आकर ही समझा, कुछ वर्ष परेशान रहा फिर मैं भी यही सब करने लगा जल्दी ही उनकी अक्ल ठीकाने आगई,जिन्होंने जवानी में आग लगाई थी वे सब बुढ़ापे में शुभ कामनाएं देने लगे, प्रेम दिखाने लगे।बिना पूछे छापने लगे।मौका मिलते ही पहचानने लगे।जिस तरह औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है ठीक उसी तरह लेखक ही लेखक का सबसे बड़ा दुश्मन होता है।विष्णु प्रभाकर ने कहा है-लेखक लेखक से घ्रणा करता है।
एक प्रसंग और राजभाषा समिति का सदस्य बना तो मीटिंग में देखा मंत्रीजी ने मासिक पत्र को एक अख़बार की शक्ल दे दी पूछने पर अधिकारीयों का जवाब आया –कौन देखता है,मैंने मंत्री जी से पूछा तो बोले –हिंदी में स्टैण्डर्ड वर्तनी बनाओ।।बात आगे बढ़ी तो मंत्री जी उठकर चले गए।सर् कार हिंदी के बारे में यही सोचती है।और हर सर् कार यहीं सोचती है।
इधर फेस बुक पर गज़ब का धमाल है।हर व्यक्ति कवि है यह माध्यम मुझे भी रुचा, हिसाब चुकाने की सबसे सुरक्षित व् आसान जगह बड़े लेखक तक घबराते दिखे।कब कौन भाटा फैक दे ,बाल्टी भर के कीचड़ उछाल दे।लेकिन मज़ेदार जगह है,लगे रहो मुन्ना भाई व् बहनों।कभी तो लहर आएगी।
यारों ने हाथो हाथ लिया तो दुश्मनों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।जयपुर के चो डे रास्ते का वही महत्व है जो दिल्ली के दरिया गंज का है।हम लोग याने पूरण सरमा,अरविन्द तिवारी,प्रेम चद गोस्वामी,मोहनलाल जैन, बाबूलाल अग्रवाल,फारुक अफरीदी,कन्हैया अगनानी, आदि नियमित मिलते थे।साहित्य और छपने की सम्भावनायें ढूंढते रहते थे।कभी कभी शेतानियाँ भी करते थे ।एक लेखक संगठन भी बनाया मगर चला नहीं।एक संस्था भी बनायीं जो जल्दी ही दम तोड़ गयी।किसी अन्य नाम से शिकायतें भी कर देते थे,एक से ज्यादा नाम से लिखने की भी संभावना तलाशी गयी।यह सब चलता रहा।मेरे खिलाफ अकादमी अध्यक्ष को भी भरा गया, मगर मेरा कोई खास नुकसान नहीं हुआ।एक लेखक ने एक महिला की पुस्तक स्ववित्त पोषित रूप में छपवा दी और बोनस में खुद की एक पुस्तक भी छपवा दी मगर दोनों की एक भी प्रति नहीं बिकी।एक फाउंडेशन के इनाम की अग्रिम सूचनाएं मिल जाती इस बार पुरस्कार क को मिलेगा जैसे समाचार चल जाते।नैतिकता और ईमानदारी का पाठ पढाने वाले हम सब कितने नीच और गिरे हुए हैं यह साहित्य ने ही दिखाया, सिखाया, सेकड़ों उदहारण दे सकता हूँ मगर सर बचाना ज्यादा जरूरी है,एक शाल,अंगोछे,रूमाल,कागज के प्रमाण पात्र के लिए कैसे कैसे हाथ कंडे है हम लोगों के पास ?यदि नकद राशी भी है तो देने वाले का मंदिर बना देंगे या दाता चालीसा लिख देंगे,या नकद राशी को निर्णायकों को चढ़ा देंगे।दो पांच लाख का इनाम लेने बाद भी एक अंगोछे व् इक्क्यावन रूपये के इनाम के लिए गिडगिडाते हैं,ये कैसे नाखुदा है, मेरे खुदा।
फिर भी अभी भी लेखन जारी है,किताबें छप रही है।विदेश हो आया।बस ये की साहित्य और विज्ञान के समंदर के सामने मैं रेत में खेलता रह गया, तैरना न सीख सका।
यारी और दुशमनी का यह सफ़र निरंतर जा री है दुश्मनों –यारों।