Prabodh Govil

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टापुओं पर पिकनिक- 68

टापुओं पर पिकनिक- 68

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अताउल्ला दिल्ली एयरपोर्ट की पार्किंग में था। वह रात को दो बजे ही वहां आ गया था।

गाड़ी की डिक्की खुली थी और सुबह- सुबह नहा कर आ जाने के बाद उसने अपना अंडरवीयर उसी पर सुखा रखा था।

डॉक्टर साहब ने उसे ख़ास सतर्क रहने के लिए कहा था। उसे कतर से आने वाले प्लेन का इंतजार था।

उसे बताया गया था कि प्लेन आ जाने के बाद एक लाल रंग की गाड़ी श्रीजी हाइट्स बिल्डिंग के सामने उसके पास से गुजरेगी और उसे केवल अपना शीशा खोल कर उस गाड़ी से एक पैकेट रिसीव कर लेना है।

वह पार्किंग में जिस जगह पर खड़ा था वहां से उसे उस बिल्डिंग का एक भाग साफ़ दिखाई दे रहा था। मौसम साफ़ था और बिना कोहरे या धुंध के लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर की ये इमारत उसे दूर से भी नज़र आ रही थी।

आती- जाती गाड़ियों के रेले में सुर्ख लाल रंग की कारों पर उसकी ख़ास नज़र थी।

वह फ्लाइट्स के लैंडिंग स्टेटस पर भी चौकन्ना होकर नज़र बनाए हुए था।

अताउल्ला हाथ में चिप्स का एक खुला पैकेट लिए हुए आगे की सीट पर बैठा था और बार- बार आगे के शीशे में झांक कर अपने बिखरे बालों को देख रहा था। वह नहाने के बाद शायद कंघी करना भूल गया था।

ताज़ा अपडेट्स पर निगाह जाते ही अताउल्ला ने जैसे कुछ चैन की सांस ली। फ्लाइट का अराइवल पचपन मिनट लेट होने की घोषणा हो गई थी।

अताउल्ला ने पैकेट से आलू का एक क़तरा निकाल कर मुंह में रखते हुए पीछे की जेब से छोटा कंघा निकाला और बालों में फिराने लगा।

कंघा जींस की पिछली जेब में वापस घुसाते हुए उसे दोनों टांगों के बीच कुछ सुरसुरी सी महसूस हुई और उसे हंसी आ गई।

उसने होंठों में ही बुदबुदा कर डॉक्टर साहब को एक भद्दी सी गाली दी।

उसे याद आया कि शेख नईम -उल -हक़ से उसकी फ़िर कोई बात नहीं हुई। लेकिन उसे वो रात भी अच्छी तरह याद थी और शेख़ का चेहरा भी। केवल चेहरा ही क्यों, उसका एक- एक हावभाव, एक- एक करतूत!

आख़िर उसके साथ अताउल्ला के तीन घंटे कटे थे। चौदह हजार रुपए की टिप मिली थी अताउल्ला को।

अभी कोई सवा महीने पहले की ही तो बात थी। उसे दोहा भेजा गया था। डॉक्टर साहब का दिया हुआ छोटा सा डिब्बा पहुंचाना था उसे।

वापस लौटते समय एयरपोर्ट के पास एक छोटे से मामूली मैले से होटल में उसे थोड़ी देर विश्राम करने के लिए कहा गया था।

वहीं कमरे में बिस्तर पर पड़ा हुआ वो टीवी देख रहा था कि डॉक्टर साहब का एक फ़ोन उसके पास फ़िर से आया। उसे बताया गया कि अभी एक और आदमी वहां आयेगा जो अताउल्ला के पास ही रुकेगा और अलस्सुबह उसे एयरपोर्ट पर छोड़ भी देगा।

अताउल्ला को हिदायत दी गई थी कि आने वाला वो शख़्स ख़ास दोस्त है और उससे दोस्ती का बर्ताव ही किया जाए। उसे किसी भी तरह गुस्सा नहीं कर देना है।

फ़ोन आने के बाद अताउल्ला ने इतनी औपचारिकता बरती कि उठ कर अंडरवीयर के ऊपर खूंटी पर टंगा अपना पायजामा पहन लिया। कुर्ता भी पहन लेने की इजाज़त तो मौसम नहीं दे रहा था।

और तब लगभग पंद्रह मिनट बाद ही दरवाज़े पर बैल बजी और चला आया शेख नईम।

बिना किसी औपचारिकता के दोनों गले लगे और आराम करने की गरज से बिस्तर पर आ लेटे।

दोनों के बीच अपरिचय फ़ैला हुआ था जो उन्हें आपस में बातें नहीं करने दे रहा था, लेकिन दोनों को मिली दोस्ताना निभाने की हिदायतें उन्हें एक दूसरे से दूर भी नहीं होने दे रही थीं।

एक- डेढ़ घंटे चिड़िया की सी नींद लेते हुए दोनों ने आराम किया।

फ़िर जल्दी से कपड़े पहन कर हवाई अड्डे के लिए निकल पड़े।

बाद के साढ़े चार घंटे बेहद कष्ट भरे ही बीते अताउल्ला के। ये दर्द तभी जाकर मिटा जब हज़ारों की टिप मिली। और दर्द मिटा भी कहां, आज भी खारिश चलती ही रहती है।

नईम ने पूरा छः सौ ग्राम का वज़नदार कैप्सूल अताउल्ला की बॉडी में पैक किया और उससे पहले घंटे भर तक लुब्रिकेशन और उसकी जगह बनाने में उसे तंग किया। साला... क्या आदमी था!

डॉक्टर साहब को भी गाली न दे तो और क्या दे? पर भैया, सबसे बड़ा रुपैया!

ये सारी घटना किसी फ़िल्म की रील की तरह सोचते- सोचते अताउल्ला को चाय की तलब लग आई और वो कॉर्नर वाली स्टॉल की ओर बढ़ गया।

फ्लाइट भी आ चुकी थी और लाल कार से उसकी मुठभेड़ अब किसी भी क्षण हो सकती थी।

अताउल्ला ट्रैफिक के रेले में गुम हो गया।

इतनी बड़ी नई इमारत में डॉक्टर साहब ने ख़ुद अपना चैंबर बेसमेंट के एक एकांत से कॉर्नर में बनवाया था। वह अपने सभी विश्वस्त आदमियों से कहा करते थे कि अगर ज़िन्दगी में कुछ बड़ा करना है तो छोटों की तरह रहना सीखो। आदमी जितनी लो - प्रोफ़ाइल में रहता है उतना ही सेफ रहता है। ये डॉक्टर साहब का सिद्धांत था।

- डॉक्टर साहब का सिद्धांत?

अगर कोई आगोश से पूछे तो वो यही कहेगा कि जीवन में उसके पिता का वास्ता केवल पैसे से पड़ा, किसी सिद्धांत से नहीं।

कहते हैं कि पैसा कमाने के लिए सिद्धांतों की बलि देनी पड़ती है।

आगोश का भी एक सिद्धांत था। वह कहता था कि जीवन में अगर कुछ बड़ा करना हो तो अपने साथी या कर्मचारी केवल योग्यता के आधार पर चुनो। निष्ठा या लॉयल्टी के आधार पर नहीं। निष्ठा या लॉयल्टी के दम पर नौकरी पाए लोग सही सलाहकार नहीं हो सकते।

लेकिन आगोश का ये फ़लसफ़ा आज की दुनिया में कारगर नहीं था। किसी नाकाबिल व्यक्ति को तो फ़िर भी काबिलियत अनुभव या प्रशिक्षण से सिखाई जा सकती है पर विश्वसनीयता का कोई पैमाना नहीं है।

तेन से मिलने और उसके साथ मित्रता हो जाने के बाद आगोश का जीवन एकदम बदल गया था।

लेकिन कुछ न कुछ ऐसा ज़रूर था जो दिन - रात आगोश के दिल में सुलगता रहता था।

उसे अपनी मां की बात बार- बार याद आती थी कि पापा जो कुछ भी कर रहे हैं वो तुम्हारे लिए तो कर रहे हैं और उनका है कौन तुम्हारे अलावा?

मां, जिन्हें बचपन से ही वो मम्मी कहता आया था अब उससे मिलने पर बस एक ही बात कहा करती थीं- तू मेरे लिए बहू कब लाएगा?

आगोश हंस कर कहता- पहले मुझे अपने लिए कोई पत्नी तो मिले, तब तुम्हारे लिए बहू भी लाऊं।

एक दिन तो हद ही हो गई।

आगोश की मम्मी ने एक दिन मौक़ा देख कर मनन से कह दिया- बेटा मनन, मुझे तुझ से एक ज़रूरी काम है?

- क्या आंटी? हुकुम कीजिए।

- करेगा? कर पाएगा?

- अरे, ऐसा क्या काम है, आप आदेश तो कीजिए, क्यों नहीं करूंगा!

- नहीं बेटा, मज़ाक नहीं, थोड़ा मुश्किल काम है।

मनन काफ़ी गंभीर हो गया। उसे आश्चर्य हुआ कि आगोश की मम्मी ने पहली बार उससे इस तरह रहस्यमय ढंग से बात की थी। ऐसा क्या काम हो सकता है, जिसके लिए आंटी बताने में इतना हिचकिचा रही हैं और इस तरह भूमिका बांध रही हैं।

वो भी ख़ासकर तब जब ख़ुद आगोश भी यहां आया हुआ ही है।

- आप आज्ञा दीजिए आंटी मैं कुछ भी करूंगा।

- शाबाश, मुझे तुझसे यही उम्मीद थी। मम्मी ने कहा।

मनन गर्व से उनकी ओर देखने लगा पर अभी तक उसे ये पता नहीं चला था कि आगोश की मम्मी उसे क्या काम बताने वाली हैं। उसकी जिज्ञासा बदस्तूर बनी ही हुई थी।

लेकिन मम्मी उससे कुछ कहतीं, इसके पहले ही कमरे में आगोश वापस चला आया जो नीचे बाईं ओर वाले गैरेज में खड़ी उसकी कार की डिक्की में से कोई चीज़ लेने गया हुआ था और मम्मी व मनन को ऊपर कमरे में छोड़ गया था।

बात अधूरी रह गई।



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