Pranaya Mehrotra

Abstract Romance Thriller

4.8  

Pranaya Mehrotra

Abstract Romance Thriller

तस्वीर

तस्वीर

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जीवन की सारी प्रथम भावनाओ से भरे इस अनाथालय के सबसे बड़े कमरे में राघव रहता था। वह भी साधारण व्यक्तियों की तरह एक दफ्तर में नौकरी कर अपना राशन पानी संभाल लेता था। उस अनाथालय की पूरी व्यवस्था का भार वैशाली और निर्मला पर था। वैशाली और राघव बड़े अच्छे मित्र थे। राघव मंडुआडीह के  इस गांव में एक वर्ष पहले आया था। 

             एक दिन जब वैशाली अनाथालय के बच्चो को शिक्षा प्रदान कर रही थी, तब उसकी नज़र राघव के कमरे पर पड़ी जिससे रोशनी आ रही थी। वैसे तोह राघव वैशाली के सुबह उठने से पहले ही दफ्तर के लिए निकल जाता था और साय देर से आता था। 

"अगर राघव दफ्तर गया है, तोह फिर कमरे में कौन है?" यह सवाल वैशाली के दिमाग में खटका।

उसने पढ़ाई को रोका,  बच्चों की छुट्टी की,  और राघव के कमरे की तरफ बढ़ी। कमरे की सिटकनी अंदर से बंद थी। उसने दरवाज़े पे कान लगा कर सुन ने की कोशिश की तोह उसे अरमारी खुलने वह बन्द होने की ध्वनि आयी। वैशाली ने बिना सोचे समझे दरवाज़ा खटखटाया। 2-3 बार लगातार खटखटाने के बाद दरवाज़ा खुला। वैशाली ने राघव का सकपकाया हुआ चेहरा देखा।

"अर।।रे तुम आज बड़ी जल्दी उठ गयी…।" राघव ने अपनी आवाज़ को काबू में लाने की कोशिश करते हुए बोला।

"आज माँ की थोड़ी तबियत खराब थी तो मुझे बच्चों को पढ़ाना था इसलिए जल्दी उठी। तुम क्या कर रहे हो ऐसे चोरों की तरह अपने कमरे में घुसकर?" 

"अरे… वो।। आज।। शर्मा जी ने छुट्टी दे दी।।" राघव ने बोला।

वैशाली को पता चल चुका था की दाल में कुछ काला है।

 "तुम अभी भी झूठ बोलना नहीं सीख पाए हो।" यह कहते हुए वैशाली राघव को धक्का दे कर कमरे में घुस आया।

"वह तो ऊपर वाला ही जानता है", राघव ने खुद से कहा।

वैशाली कमरे में घुसी तो उसने एक अजीब दृश्य देखा। कमरे का सारा समान उथल पुथल था और एक बड़ा कपड़े का बैग ज़मीन पर रक्खा था। बैग को दूर से देखने पर वैशाली को कुछ कपड़े व किताबे दिखी। राघव की अभी भी सांस फूल रही थी और उसके दोनों हाथ पीछे थे। ध्यान से देखने पर वैशाली ने देखा कि उसने अपने हाथों में कुछ दबा रक्खा है।

"तुम्हारे हाथों में क्या है ?" वैशाली ने पूछा।

राघव ने उसपर ध्यान न दिया और बैग में बाकी सामान डालने में जुट गया।

वैशाली चौक उठी। उसने राघव का इतना अजीब रूप आजतक नही देखा था। अब राघव और वैशाली आमने सामने खड़े थे। 

"तुम फिरसे अनाथालय छोड़ने की सोच रहे हो ?" वैशाली ने पूछा।

राघव ने अपना मुख झुका लिया। 

"आज तोह तुम्हे मुझे सारी बातें बतानी ही पड़ेंगी। इतने दिनों से में देख रही हूँ की तुम किसी वजह से परेशान हो। हर दो तीन दिन छोड़ के तुम्हे यहां से जाने का भूत सवार होता है। आखिर क्या बात है?" वैशाली ने एक सांस में पूछा।

"कुछ नहीं बस मेरा बनारस ट्रांसफर हो गया है।" 

"अच्छा, अचानक से।" वैशाली ने ऊंचे स्वर में कहा।

"अरे पता नहीं शर्मा जी कुछ भी करते रहते है, बड़े अजीब है।" राघव के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे वह एक जंग से हार कर आया हो।

उत्तर सुनने के बाद भी वैशाली कमरे के बाहर नहीं जा रही थी। 

कुछ देर और इंतेज़ार करने के बाद राघव ने पूछा, "तुम्हें और कुछ पूछना है?"

वैशाली उस बैग से एक कदम पीछे हटी और उसने पूछा, "मेरा पहला सवाल यह है कि तुम अपने हाथों में क्या छुपा रहे हो?"

"तुम्हारे इस सवाल का उत्तर ही सारे सवालों का जवाब दे देगा।" 

वैशाली को कुछ समझ नहीं आया।

राघव अपने बिस्तर पर बैठा और वैशाली को भी बैठने की इजाज़त दी। वैशाली ने देखा कि राघव के हाथ में इतने वक़्त से एक तस्वीर थी जिसको उसने बैठने के बाद उसने अपने पीछे रख दिया था।

"यह बात एक वर्ष पुरानी है जब मैं इलाहाबाद में नौकरी करता था। मैं एक साधारण सिल्क साड़ी के विक्रेता की दुकान पे सेल्समेन था। हमारी दुकान पूरे इलाहाबाद में प्रसिद्ध थी। लोग दूर दूर से आकर हमारी दुकान से सामान खरीद ते थे। एक दिन कानपुर शहर के एक बहुत नामी नेता - आशुतोष टंडन हमारी दुकान पर अपनी महिला कर्मचारी को ले कर आये। मैं उस समय एक व्यक्ति को साड़ी दिखा रहा था। उनकी कर्मचारी को जब मैंने देखा तब पता नहीं अचानक मेरे मन में कुछ अजीब सा हुआ जिसने मेरा दिल खुश कर दिया। में कुछ मिनट तक उसको देखता ही रह गया। मासूम चेहरा और उन बड़ी बड़ी आंखों में मैं खुद को देखने लगा था। नेता साहब मालिक से कुछ बहोत गंभीर बात कर रहे थे और उनकी कर्मचारी उनके बगल में खड़ी थी। अचानक से मालिक ने मुझे बुलाया। मैं दौड़ते हुए उनके पास गया।

"राघव ! ये है टंडन जी, इन्हें अपनी बहन की शादी के लये लहँगे देखने है।। और इनको इलाहाबाद दरशन कराने की ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी," मालिक ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। 

पहली बार मुझे एहसास हुआ की एक साल की मेहनत का फल मुझे आज मिल गया। मैंने सोचा कि मालिक से इलाहाबाद दर्शन की तारीख पूछ लूं, पर पता नही उस समय कुछ अजीब सी झिझक ने मुझे रोक दिया।

दो दिन तक में दुकान पर लहंगे अलग करता रहा और उस महिला कर्मचारी के बारे में सोचता रहा। 

तीसरे दिन जब मैं अपनी मोटरसाइकिल से दुकान पहुचा, तब मैने देखा कि एक सफेद रंग की मारुति दुकान के बाहर खड़ी हुई है। दुकान के अंदर जाने से पहले ही मैंने शीशे से वह दो आंखें पहचान ली थी। मैं दुकान के अंदर गया और मालिक ने मुझे चाबी थमा दी और टंडन जी को ले जाने का आदेश दिया। 

मैं बाहर गया और टंडन जी के लये गाड़ी का दरवाज़ा खोला। मैं गाड़ी चला रहा था, मेरे बगल वाली जगह पर वह महिला कर्मचारी और पीछे टंडन जी बैठे थे। मेरी आंखों में उस पीली साड़ी की चमक आ रही थी, और उस गोरे मुख को देखने को मेरा जी तड़प रहा था लेकिन पीछे टंडन जी को देख मेरी रूह कलप जाती। अचानक टंडन जी ने मुझसे पूछा, "अभी हम किस तरफ जा रहे है?"

टंडन जी की आवाज़ मैं बोहोत क्रोध था। 

"संगम की तरफ," मैंने धीमे स्वर में उत्तर दिया। 

उनकी क्रोध भरी ध्वनि सुनकर जो मेरा शरीर कंपा था… उसे देख कर उनकी कर्मचारी के मुख पर हंसी आयी, जो मैंने अपनी बाई आंख के एक  कोने से देख ली थी।

इसे पहले की नेता जी कुछ और बोलते, उनके फ़ोन की घंटी बजी। वो फ़ोन पे बात करने में व्यस्त हो गए।

"उनके साथ एक दिन रह के देख लीजिये, क्रोध की आदत अपने आप पड़ जाएगी," मौके का फायदा उठाते हुए उनकी कर्मचारी ने कहा।

इतनी मीठी ध्वनि सुनकर मेरे मुँह से कुछ न निकला। मैं बस हल्का सा हंस दिया। कुछ देर तक हम दोनों ने कुछ नहीं बोला। टंडन जी अभी भी फ़ोन पर लगे हुए थे। कुछ मिनट की और शांति और हम संगम पहुंच गए। मैंने टंडन जी के लिए तुरंत उतर के दरवाजा खोला और उनको इस जगह के इतिहास के बारे मे बताने लगा। मैं उन्हें किले की तरफ ले ही जा रहा था कि मैंने देखा की उनकी महिला कर्मचारी किसी व्यक्ति से दूर खड्डे परेशान स्वर में बात कर रही है। मेरा मन उसकी तरफ खिंच गया। मुझे उनसे बात करनी थी, और मेरा निश्चय इतना अटल था की मैंने तरीका भी निकाल लिया था। मैं टंडन जी को ले कर एक नौका के पास चला गया और नौका को पैसे दे कर संगम स्नान करने को कहा। टंडन जी भी पंडित किस्म के थे तो उनका भी मन प्रसन्न हो गया। कुछ ही देर में नौका उनको ले कर चला गया और मैं उनकी तरफ बढ़ा।

वो अकेले तट के किनारे एक खटिया पर बैठी थी। मैं उसके आस पास मधुमक्खी की तरह मंडराने लगा। वो भी मुझे देखने लगी।

"आप कुछ चिंतित लग रही है?" बहुत हिम्मत करके मैंने पूछा।

"ऐसा कुछ नहीं है," उन्होंने कहा और हल्के से खिसक के मुझे अपने पास बैठने का आदेश दिया। में पहले थोड़ा हिचकिचाया,  फिर अंत में जा के बैठ गया। मैंने उनको देखा तोह वह अभी भी गंगा जी को ही निहार रही थी।

"टंडन जी कहा है?", उन्होंने मुझसे पूछा।

"वो संगम स्नान करने गए है, संगम में स्नान करने का बहुत महत्व होता है। जो व्यक्ति कुंभ मेले के समय संगम में स्नान करता है उसे अमृत की प्राप्ति होती है। कुम्भ हर बारह……।।"

में खत्म भी नहीं कर पाया था की उन्होंने मेरे हाथो को उठा कर अपने सिर के नीचे रख दिया और रोने लगी। उनके आंसू बारिश की बूंदों की तरह मेरी हथेली को भगा रहे थे। 

मेरे दिल कि रफ्तार बोहोत तेज़ हो चूकि थी और मैंने बोला कि, "आप क्यु रो रही है, अचानक से क्या हो गया?"

उन्होंने अपना सर मेरी हथेली से हटाया और बोली, "  अभी मुझे कानपुर के अस्पताल से फ़ोन आया था कि मेरी माँ बहुत बीमार है और इलाज के लिए जल्द ही पचास हज़ार रुपये की ज़रूरत है। वो एक लौती है जिन्होंने मेरी बचपन से आजाक देख भाल की है। कहा से लाऊंगी मैं इतने पैसे?"

"टंडन जी से मांग लीजिये," मैंने उससे कहा।

"वही तोह सबसे बड़ी दिक्कत है। मेरी माँ एक अनाथ आश्रम चलाती है, अधिक फंड न होने के कारण मैंने अनाथ होने का बहाना बनाया था और ये भी कहा था कि मेरा देखभाल करने वाला कोई नही है। यह सुनकर टंडन जी को दया आयी थी और उन्होंने मुझे नौकरी पर रख लिया था। अब मैं उनको कैसे कहू की मेरी एक माँ भी है। मैं बोहोत बुरी हूँ।" यह कहकर उन्होंने मेरा हाथ और ज़ोर से पकड़ लेया। 

"परेशानियां व दिक्कतें सबके साथ आती है, बस उनका समझदारी से सामना करना चाहिए। मैं कोशिश करूँगा।" 

यह सुनकर उन्होंने मुझे गले लगा लिया। मैं मंद रह गया था उस वक्त। 

कुछ देर वहां बैठकर मैंने उनको हंसाया तब तक टंडन जी आ गए थे। उनके मुख पर चंदन का टीका और खुशी थी। वो गाड़ी की तरफ बढ़े और रास्ते मैं उन्होंने मुझे बीस रुपये की टिप दी। यह देखकर वो हस रही थी। 

गाड़ी चलाते वापसी में पूरे वक्त मैं इस भाव में खोया रहा की क्या उनको भी मुझसे प्यार हो गया है। 

रात हो चुकी थी और मैं गाड़ी ले कर दुकान के बाहर खड़ा था। तभी मैंने देखा कि सामने से वो आ रही है अकेले।

 मैं अपना हुलिया सुधारने ही वाला था की उसने मेरा हाथ पकड़ के कहा, "तीन दिन बाद टंडन जी की रैली है यहां।" यह कहकर वह चली गई।"

राघव का गला सूख चुका था, उसने एक घूंट पानी पिया, थोड़ी देर रुका। उसने वैशाली के मुख पर ऐसा तेज देखा की जैसे ही उसकी कहानी खत्म होगी वैसे ही वह उसको डाँटेगी।

"मैंने किसी तरह के अपने मालिक से, परिवार वालो से, अपनी पूंजी से जमा करे और अंत में उस दिन तक मेरे पास पूरे पैसे इकट्ठा थे। अंत में वो दिन भी आ गया। मेरी उनसे फ़ोन पर भी रोज़ बात होती थी। मुझे आब यकीन था की उसे भी प्यार है। मैं अपने घर में उनके फ़ोन का इनतज़ार कर रहा था। मैंने उसके साथ सपनों  में सात फेरे तक ले लिए थे। मैं पूरी तरह से उसके प्यार में डूब चुका था। अचानक मेरा फ़ोन बजा, और एक व्यक्ति ने बोला, "इस नंबर के जो उपोभोकता है उनका मेजा रोड पे एक्सीडेंट हो गया है।" 

मैं बिना जूते के अपनी मोटरसाइकिल से जल्दी से वह पहुँचा तो पता चला कि टंडन जी एक्सीडेंट के अकस्मात स्वर्ग सिधार गए और ड्राइवर और उनकी महिला कर्मचारी अस्पताल में भर्ती है। मैं जल्दी से अस्पताल पहुंचा तो मैंने देखा कि दोनो की हालत गंभीर है। दो दिन तक मैं उस सरकारी अस्पताल में रहा। इसी बीच मैंने जैसे तैसे उन पचास हजार रुपयों को सही जगह पर पहुचा दिया। तीसरे दिन डॉक्टर ने कहा कि महिला कर्मचारी बच तोह गयी है लेकिन उसकी याददाश्त पूरी तरह से चली गयी है। उसे कुछ याद नहीं रहेगा, न मैं, न वो प्यार भरे लम्हे……"

वैशाली अब अपने आपको रोक न सकी और चिल्ला पड़ी , "कौनसा प्यार, वो बस तुमसे मदद मांग रही थी और तुमने उसको प्यार समझ लिया। अगर लड़की हाथ पकड़ ले तोह इसका मतलब प्यार हो गया। कितनी नीच सोच है तुम्हारी राघव।"

राघव भी अपने आप को न रोक सका और उसके आंसू बहने लगे। उसने रुमाल से अपने आंसू पाछे। वैशाली को भी एहसास हुआ की उसने कुछ ज़्यादा ही बोल दिया।

मोहोल को ठंडा करने के लिए वैशाली ने पूछा, "ये तस्वीर जो तुम छुपा रहे हो वो उसकी ही है?"

"ममम" राघव ने कहा और वो बिस्तर से उठ गया अपने बैग में बाकी ज़रूरी समान रखने। 

मौके का फायदा उठाते हुए वैशाली ने वह तस्वीर उठा ली। इससे पहले कि राघव उसे रोकता, बहुत देर हो चुकी थी।

"यही तो मेरी तस्वीर है," वैशाली ने आश्चर्य से कहा। 

राघव के आंसुओं ने ही सब बोल दिया।


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