तीन मुसाफ़िर
तीन मुसाफ़िर
एक समय की बात है एक बार कोई व्यक्ति किसी सड़क से गुजर रहा था तभी इतने में अचानक पीछे से कोई पत्थर उसके माथे से जोर से टकराई सामने देखा तो एक पागल व्यक्ति कई सारे पत्थरों को अपने एक हाथ से दूसरे हाथ में उछाल रहा था ।यह व्यक्ति उससे भी पागल निकला इसने आव देखी न ताव और तमतमाते हुए बढ़कर लात - घूसों से बेचारे की मरम्मत कर दी और तो और भद्दी- भद्दी गालियाँ भी बकते बड़बड़ाता हुआ बढ़ चला ।
कुछ देर के बाद एक और व्यक्ति उसी रास्ते से गुजरा उसको भी ये पागल व्यक्ति अपने पत्थरों के प्रहार पीछे से करता है , वह व्यक्ति इधर- उधर देखता है ,फिर पीछे जैसे ही एक पागल को उसके और देखते हुए पत्थर नचाता हुआ पाता है । वह बेचारा डरकर भाग जाता है की कहीं ये पागल हमें फिर से न मार दे ।
उसी रास्ते से कुछ देर बाद तीसरा व्यक्ति गुजरता है उसपर भी पागल का यही व्यवहार उजागर होता है । वह व्यक्ति इधर- उधर देखे तो फिर उनकी नजर एक पागल पर पड़ी तो वह उसकी ओर लपके और उस पागल को प्यार से समझाने लगे हालांकि उनमें इतनी शक्ति एवं सामर्थ्य थी कि उस सिरफिरे को अच्छी धुनाई कर उसे सबक दें सकें लेकिन उन्होंने तीसरा रास्ता चुना उसे प्रेम से सारी बात बताई और वो बात बहुत हद तक उस पागल को जच गई और उस दिन से वह व्यर्थ में पत्थर मारना छोड़ दिया और अब उन्हीं पत्थरों को जिसको उसने जहाँ- तहाँ किसी- किसी पे फेंका था वो चुनकर इकट्ठा करने लगा और अंतत: वह सुखी जीवन बिताने लगा ।
इस कहानी में सड़क से गुजरा पहला व्यक्ति अकड़ और रौब भरी अभिमानी किस्म का था । दूसरा एकदम डरपोक और कायर था और तीसरा और आखिरी बंदे का नाम था ' अहिंसा ' जो शक्ति एवं सामर्थ्य होते हुए भी सद्भाव को चलने और शांति को बुना।