स्वयंसिद्धा
स्वयंसिद्धा
"अब तो हम बिटिया के लिये दवाखाना यहीं खोल देंगे..."
"हमारे गाँव के दिन फिर गए, अब शहर के चक्कर नहीं लगाने होंगे.." गाँव वालों की खुशी का पारावार न था।
हो भी क्यों ना... आखिर गाँव भर के इतिहास मे श्यामा ही है, जिसनें डॉक्टरी की परीक्षा पास की। लड़की तो दूर कोई लड़का गाँव भर में उसके मुकाबले का नहीं है।
टीचर दीदी स्नेह से उसके सर पर हाथ फेरते हुए सोच रही थी ..
"श्यामा के सपनों को आसमान मिल चुका है। सुनहरी सुबह श्यामा की बाट जोह रही है। श्यामा के दृढ़ संकल्प ने उसे त्याज्य से ग्राह्य बना दिया है।"
आँखों में खुशी के आँसू भरे श्यामा की माँ अखबार वालों को बता रही थी..
"यदि श्यामा भी और लड़कियों की तरह खेत में काम करती, पानी या लकड़ियाँ जुटाती घूमती, तो कभी अपना सपना पूरा नहीं कर पाती। हमारी तो मती मारी गयी थी, जो दिन भर उसे कोसते रहते थे...
वो एक पैर से लाचार है ना, सो किताबों में ही सर घुसाये बैठी रहती थी। भला हो सरकार का जो दिव्यांग खाते में पैसे जमा करती रही और मेरी श्यामा अपने बूते पर डॉक्टरी की तैयारी कर पायी।"
