स्वतंत्रता सेनानी
स्वतंत्रता सेनानी
जब अंग्रेजी फौज जनता पर अत्याचार और जुल्म ढा रही थी तथा गांधीवादी टोपी वाले सत्याग्रहियों को चुन-चुन कर जेलों में डाल रही थी,तब पूर्णतः प्रतिबंधित कांग्रेस का ध्वज मजबूती से थामने वाले हाथ श्री हुकुम सिंह परिहार जी के थे। उनका जन्म 7 जनवरी 1925 को जिला आगरा की तहसील फतेहाबाद के गाँव बांगुरी में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था।
चार साल से भी कम उम्र में माँ का देहांत हो गया तथा पिताजी श्रीयोगानन्द जी संन्यासी हो गये। घर में एक बड़े भाई थे।वह खेती बाड़ी से अपनी गृहस्थी चला रहे थे। वे नहीं चाहते थे कि उनका छोटा भाई अपने गाँव घर को छोड़ अंग्रेजों से बगावत करें।
उन्होंने समझाया," अगर तुम घर छोड़ दोगे तो खेतों में काम कौन करेगा हुकुम ! अब तो तुम्हारा विवाह भी होना है। "
" भाई साहब घर देखने के लिए आप हैं। मुझे क्या फिक्र करनी है। खेती से ही पहले खाना मिल रहा था। अब भी मिलता रहेगा।"
" पर हुकुम ! जो पारिवारिक जिम्मेदारियां नहीं उठा सकते ,वे देश के प्रति अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा
करेंगे ?"
" भाई साहब मेरी निजी बहुत जरूरतें नहीं हैं। एक जोड़ी कपड़े में काम चल जाएगा। पेट तो पक्षी भी भर लेते हैं। मैं तो फिर भी मनुष्य हूँ। आप चिंता मत करिए। देश को मेरी जरूरत है।"
" मुझे तुम्हारे खेतों में करने की चिंता नहीं है। डर तो तुम्हारे लिए है। घर में माँ नहीं,पिता का साया भी नहीं और अब तुम भी घर छोड़ना चाहते हो। आंदोलन में बड़े घरों के लोग जा रहे हैं। जो विदेशों में पढ़ें हैं। खाते पीते परिवारों से हैं। "
" नहीं भाई साहब! ऐसा नहीं है। अंग्रेजों से आजादी पाने के लिए महात्मा गांधी जी के साथ जहाँ बड़े घरों के लोग हैं वहीं आम लोग भी जुड़ रहे हैं। सोचिए जब इतिहास लिखा जाएगा तो क्या हमें शरम नहीं आएगी ? लोगों ने अपने सीने पर गोलियां खाईं और हम यहाँ सुख की नींद सो रहे थे। नहीं भैया! मेरा मन गवाही नहीं देता।"
"ऐसा नहीं है कि मेरा मन देश के लिए कुछ करना नहीं चाहता। लेकिन सबसे पहले घर की जिम्मेदारी भी तो है। पलायन का दोष नहीं लगेगा क्या मुझ पर और ये छोटे-छोटे बच्चे मुझे बड़े होकर दोषी नहीं ठहराएंगे ?"
"इसीलिए भाई साहब! आप घर देखिए , मैं देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा लेता हूँ।"
" जब तुमने फैसला कर ही लिया है तो मैं कौन होता हूंँ तुम्हें रोकने वाला। हरि की जैसी इच्छा होगी ,वह तो होकर ही रहेगा। जाओ अपने कर्तव्य निभाओ। घर की तरफ से बेफिक्र रहना। सब काम हो जाएंगे।"
ऐसी विषम परिस्थितियों में देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के प्रति उनके सीने में जब विरोध का ज्वार उठा रहा था तब श्री प्रेम दत्त पालीवाल जी कांग्रेस के जिलाध्यक्ष थे। उन्होंने आपको सत्याग्रहियों की सूची में शामिल किया। उस समय 14 वर्ष की उम्र में ही सत्याग्रहियों का नेतृत्व करते हुए इंकलाब जिन्दाबाद के नारे लगाते हुए कोतवाली का दो बार घेराव किया। पुलिस की लाठियों की मार झेली। परन्तु कम उम्र के कारण कोतवाल ने समझाया कि अभी पढ़ाई करने की उम्र है और गिरफ्तार न कर छोड़ दिया। लेकिन उनका प्रण था–
जब तक इस भारत से नहीं फिरंगी जाएंगे।
नहीं पढ़ेंगे नही लिखेंगे,न ही व्याह रचाएंगे।।
अँग्रेजी सरकार के विरुद्ध बगावत करते हुए 9 फरवरी 1943 को झण्डा लेकर सत्याग्रहियों का नेतृत्व करते हुए कोतवाली के सामने से इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए आगे बढ़े तो फुलट्टी बाजार के पास पुलिस ने लाठीचार्ज किया। सत्याग्रही बिखर गए ।श्री परिहार अकेले ही इंकलाब जिंदाबाद करते हुए गिरफ्तार कर लिये तथा जेल भेज दिए। 15 माह बाद जेल से रिहा हुए तो पुनः आंदोलन में कूद पड़े। उस समय उनकी उम्र मात्र 16 वर्ष थी।
वे सत्यवादी एवं ईमानदार व्यक्ति थे। ईमानदारी उनका भूषण था। 9 अप्रैल 2004 को दैनिक जागरण को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि 'हम लोग मेहनत और ईमानदारी से जनता की सेवा के लिए राजनीति में आए थे। परन्तु आज का शासन अंग्रेजों से भी बदतर है। हमारे लिए देश की सेवा ही मकसद था।आजादी के कुछ सालों तक तो ठीक रहा परन्तु उसके बाद स्तर गिरता चला गया और अब तो सत्ता का व्यवसायीकरण हो गया है। राजनीति में भ्रष्टाचारियों और अपराधियों का बर्चस्व बढता जा रहा है जो देश के लिए और भी अधिक घातक होगा।'
प्रसंगवश चर्चा में उन्होंने कहा था कि " जब संविधान की शपथ लेने वाले सांसद एवं विधायक ही संविधान की धज्जियां उड़ा रहे हैं,तब देश के भविष्य के प्रति चिंता उत्पन्न होती है। इसी प्रकार सांसद निधि एवं विधायक निधि में तो निर्माण कम कमीशन खोरी ज्यादा हो रही है इसमें खुली लूट मची हुई है। यदि यही हाल रहा तो देश का दिवाला निकल जाएगा।"
वह वास्तव में समाज सुधारक थे। दहेज विरोधी पंचायतों में एक-एक रुपये से विवाह की पंचायत करवाते थे। मृत्यु भोज के भी विरोधी थे। उनका कहना था कि मृत्यु भोज एक सामाजिक बुराई है एक तो परिवार के सदस्य के चले जाने पर परिवार पर आर्थिक संकट आ जाता है। उस पर भी उसे भोज देना पड़े। अनेक लोग तो मजबूरी में मृत्यु भोज करते हैं जिससे वे कर्ज में डूब जाते हैं।
उन्होंने ने मृत्यु पर्यंत जनता की सेवा की।साइकिल से ही गांव-गांव जाकर उनकी समस्याएं जानते थे और उन्हीं के बीच अपनी सभाएं किया करते थे। अपनी पेंशन का अधिकांश भाग गरीबों एवं बे -सहारा लोगों की मदद पर खर्च किया करते थे। आदर्शों, सिद्धान्तों,सत्य और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति तथा आदर्शो की राजनीति के पुरोधा श्री हुकम सिंह परिहार जी 16अगस्त 2006 को चिरनिंद्रा में लीन हो गए।
उनकी स्मृति को सादर नमन करते हुए,स्वतन्त्रता आंदोलन का पूरा चित्र सामने प्रस्तुत हो हो जाता है और अब यह सिलसिला थमता ही जाएगा ,क्योंकि अब स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी में बहुत कम लोग शेष बचे हैं ,जिनके लिए आदर्श और ईमानदारी ही उनकी धरोहर थीं और हैं। क्षेत्र के लोग उन्हें आज भी उनके मूल्यों और आमजन के प्रति समर्पित भाव के लिए सम्मान से याद करते हैं।
