ashar ahmed

Abstract

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सवाल

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बड़े मियां अपने बेटे का एडमीशन जिस स्कूल में चाह रहे थे वहां दाख़िले का खर्च पांच हजार रुपये था, जो उनके लिए एक बड़ी रक़म थी, इसलिए मेरे पास मदद की आस में आए थे। उस ज़माने में पांच हजार रुपये मेरी आधी तनख़्वाह हुआ करती थी, मगर मामला एक बच्चे की पढ़ाई का था, सो मैं इंकार न कर सका। बड़े मियां पैसे पाकर बेहद जज़्बाती हो गए और मुझ पर दुआओं की ऐसी बारिश की कि मुझे अपने माँ बाप याद आ गए।

उस दिन के बाद जब भी पैसों की ज़रूरत होती बड़े मियां सीधा मेरा रुख़ करते और अपने सहूलत के मुताबिक पैसे लौटा देते। मगर लेते दो तो लौटा एक ही पाते, इसलिए गुज़रते वक़्त के साथ उधार की रक़म भी बढ़ती जा रही थी।

बड़े मियां की नियत में खोट हो, ऐसा बिल्कुल नहीं था। बस मुझसे आसानी से कर्ज़ पाकर उनकी हसरतें बढ़ती जा रहीं थीं जबकि आमदनी थी कि एक मुस्तक़िल हद से आगे बढ़ ही नहीं पा रही थी, इसलिए कर्ज़ लौटा पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। मगर मैं बिल्कुल मायूस नहीं था, मुझे पक्का यकीन था कि आज नहीं तो कल, पैसे वापस ज़रूर आ जाएंगे।

वैसे भी उनके लिए उधार लेना आखिरी उपाय ही था। उन्होंने अपने खर्चों में उम्मीद से ज्यादा कटौती कर रखी थी। सादे खाने को तरजीह देते थे तो जब तक पुराने कपड़े फट न जाए नए नहीं बनते थे। और भी जहां- जहां से हो सकता था परिवार ने अपने खर्चों में कटौती कर रखी थी या यूं कहिये कि अपनी सारी ख़्वाहिशों और हाजत (ज़रूरत) को पूरी तरह दबा रखा था, इस उम्मीद से कि जिस दिन बेटा कमाने लगेगा तो वे लोग खूब ऐश करेंगे, खूब दुनिया घूमेंगे"

इधर मैं भी पैसे उधार देकर किसी बड़े सवाब (पुण्य/परोपकार) का काम कर रहा होऊं, ऐसा बिल्कुल नहीं था। दरअस्ल बचपन में अब्बा जी के गुज़र जाने के बाद जब मेरे परिवार पर आफत आई थी तो समाज ने मेरे परिवार को भी ऐसे ही सम्भाला था। इसलिए मुझे समाज से जो मिला था वही मैं समाज को वापस लौटा रहा था। किसी को परेशान देख कर मुझे अपने पुराने दिन याद आने लगते थे और मैं चाहकर भी अपने आप को उसकी मदद करने से नहीं रोक पाता था।

बडे मियां को बार बार कर्ज़ देने की एक वजह और थी। जिस शिद्दत और ईमानदारी से वे अपनेे बच्चे के लिए मेहनत कर रहे थे वैसा कोई और नहीं करता है इतनी मुश्किलात के बावजूद, बेटे को फाउंडेशन कोर्स कराया ताकि आगे चलकर IIT के सिलेक्शन में आसानी हो। उसे बाइक खरीद कर दी ताकि स्कूल/कोचिंग से आने जाने में उसका वक़्त बर्बाद न हो। उसके लिए घर में एक नया कमरा बनवा दिया ताकि उसकी पढ़ाई में कोई खलल न पड़े। उसके कमरे में कूलर भी लगवा दिया ताकि पढ़ते वक़्त उसे गर्मी न सताए। इसी तरह जो भी उनसे हो सकता था, बेटे के लिए वे कर रहे थे घर में गुरबत थी तो जाहिर है कि उसका कुछ असर बेटे पर भी पड़ना लाजिमी था मगर जहाँ तक हो सकता था मियां बीवी परेशानीे पहले खुद झेलते, उसके बाद ही गुरबत की आंच बेटे तक पहुँचने देते और जब बिल्कुल काम न चल पाता तो मेरा रुख़ करते थे। फिर भी तंगी की मार, कम ही सही, बेटे को भी झेलनी तो पड़ ही रही थी।

इसी तरह की लाख दुश्वारियों का सामना करते, धीरे-धीरे वह दिन भी आया जिसका ख्व़ाब वे बरसों से देखा करते थे। उनके बेटे को इंजीनियरिंग पूरी करते ही एक अच्छी सी नौकरी मिल गई थी।

बड़े मियां बेहद खुश थे साथ ही मैं भी, कि उस घर की खुशहाली लौटने में मैं भी एक वज़ह था, साथ ही साथ मुझे अब कर्ज़ वापसी की उम्मीद भी जग गई थी। बड़े मियां कुछ इसी तरह का इशारा भी दे रहे थे।

पर हुआ मेरी उम्मीद के ठीक उलट। उधार लौटाने के बजाय बड़े मियां ने धीरे-धीरे मुझसे बिल्कुल किनारा कर लिया। और जब साल भर में ही बेटे की शादी भी हो गई मगर मेरे पैसे नहीं मिले तो सच कहूँ तो मुझे बड़ा अफ़सोस ही नहीं हुआ बल्कि बड़े मियां पर गुस्सा भी आने लगा था।

"मुरव्वतों की भी एक हद होती है और बड़े मियां अब वो हद पार कर गए हैं। आपको उनसे थोड़ा सख़्ती से बात करनी चाहिए"

बेग़म की बात मेरे भी समझ में आ रही थी मगर फिर खुद ही ख़याल आया कि हो सकता है कि कमाऊ बेटे के बहक जाने का डर हो इसलिए उसकी शादी को तरजीह देनी पड़ गई हो वरना शरीफ़ लोग हैं पैसे आज नहीं तो कल ज़रूर लौटा देंगे। और इसी मुग़ालते में सालों और बीत गए पर पैसे तो दूर मियां जी तो लापता ही हो गए। इस बीच मेरा ट्रांसफर भी दूसरे शहर हो गया था इसलिए चाहकर भी मेरी उनसे मुलाकात नहीं हो पा रही थी।

इस बार जब मौका मिला तो मैं उनसे मिलने उनके घर जा पहुंचा। इस इरादा के साथ आज मैं उनसे कुछ सख़्त सवाल ज़रूर करूँगा। मगर जब उनके घर पहुंचा तो घर की हालत ने उलटा मुझेे ही झकझोर दिया।

एक सड़क हादसे ने बड़े मियां को बिस्तर पर ला पटका था और घर की हालत ऐसी लग रही थी मानो फांकाकशी हो रही हो,

" कमर साहब, आज आप मिलने आए तो हमें भी लगा कि कोई हमारी भी खोज खबर लेने वाला है। वरना हमारे लिए तो यह दुनिया बेग़ानी सी हो गई है" मुझे देखकर मियां-बीवी बिलबिला उठे तो मैं भी पिघल गया। ,

"आपके बेटे की तो नौकरी लग गई थी फिर आप की यह हालत। मैं कुछ समझा नहीं?"

"आजकल बैंगलोर में है अपनी बीवी के साथ बड़े मज़े में है"

"बेटा मज़े में है और आप इस हालत में ?"

"बस अपनी गलतियों का खामियाज़ा भुगत रहा हूँ"

"मैं अपने बेटे को कामयाब देखना चाहता था और रात दिन सिर्फ उसी के बारे सोंचता रहा। पर मेरा बेटा मेरे बारे में क्या सोंचता है, कभी ग़ौर ही नहीं किया। पता नहीं कैसे इतनी बड़ी बात की तरफ कभी मेरा ख़याल नहीं गया"

"आप क्या कह रहे हैं, मेरे कुछ समझ में नहीं आ रहा है?"

"बेटा बाग़ी हो गया है"

"मैं रात दिन जूझता रहा, बेटे की कामयाबी की खातिर, जो भी मेरे बस में था सब कुछ किया मगर बेटे की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया उसे लगता है कि हमने उसकी परवरिश ठीक से नहीं की। उसके ख्वाहिशात सही से पूरे नहीं किए। "

"आपका बेटा है, समझदार है, उससे कहकर तो देखते, मुझे पक्का यकीन है कि ऐसी हालत में वह आपको कभी मना नहीं करेगा, आपकी मदद ज़रूर करेगा"

"किया था फोन, कई बार किया था उसको। पर अब वह हमसे बात करना भी गंवारा नहीं करता, हर बार मोबाइल बहू को थमा देता है। अपनी हालत के बारे में बताया तो उसी से कहलवा दिया कि 'पैसा नहीं है' का रोना तो मेरे पास हमेशा रहा है। जब उसे जरूरत थी तो मैंने उसकी परवाह कभी नहीं की, तो अब वह मेरी क्यों करे"

" आप का बेटा। आप जैसे माँ-बाप को गुनहगार समझता है, मुझे उसकी ज़हानत पर बड़ा अफ़सोस हो रहा है"

"पर मुझे इस बात का बड़ा अफसोस है कि मैं आपके पैसे वक़्त पर नहीं लौटा पाया। "

"बहरहाल ये मेरे घर के कागज़ात हैं। इसे बेंचकर आप अपने पैसे वसूल कर सकते हैं"

"घर बिक जाएगा तो आप लोगों का क्या होगा ?"

"बेटे ने जिंदगी का ऐसा आइना दिखाया है कि अब कोई ख़्वाहिश बाक़ी ही नहीं रही। बाक़ी जिंदगी जैसे तैसे, जहाँ-तहाँ बिता ही लेंगे।"

रो बड़े मियां रहेे थे मगर टूट-फूट मेरे अंदर मच गई थी मेरा दिल बैठने लगा था। जिन्दगी यूँ भी अपनें रंग दिखाती है, कभी सोंचा ही नहीं था। मेरे भी बच्चे हैं और कल को मेरा भी खुदा न करे

अब मुझे अपने कर्ज़ वापसी में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी,। पर्स में जो भी पैसे थे बड़े मियां के तकिए के नीचे रख मैं उठ खड़ा हुआ। जो सवाल बड़े मियां को बदहाल किए हुए था अब मुझे भी परेशान करने लगा था।


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