स्वाभिमान
स्वाभिमान
रागिनी की उमर कोई 13 साल की रही होगी जब उसकी माँ उसके पिता के अत्याचारों के चलते घर छोड़ के अनजानी राह निकल गई थी एक पत्र अपने पति के नाम लिख कर उसी आशय का। रागिनी उसकी एक मात्र सन्तान थी सो अपनी निशानी के रुप में उसको उसने अपने पति के पास छोड़ दिया था चूंकि अब वो इतनी समझदार तो हो ही चुकी थी के अपना भला बुरा पहचान सके उस समय वो 9 नवम कक्षा की छात्रा थी आज वो कालेज के अन्तिम सत्र में है।
इस घटना को 5 साल बीत गए तबसे उसकी माँ का कोई अता पता नहीं और ना ही उसके पिता ने उसकी कोई खोज बीन करी , उसके लिए वो अब मर चुकी थी , लेकिन रागिनी के लिए वो सदा से एक आदर्श रही थी क्युकी वो जानती थी उसकी माँ बहुत पढ़ी लिखी स्वाभिमान वाली स्त्री थी और आज भी वो जहाँ भी होगी स्वाभिमान से जी रही होगी।
उसकी सबसे बड़ी मजबूरी बस यही थी के वो स्त्री थी और आज के मार्डन जमाने में भी स्त्री को अपना स्थान पुरुषों के समकक्ष तो कोई देता ही नहीं हाँ कोई कोई विरली होती होगी। जिसको कोई विनम्र पुरुष मिल जाता होगा तो उसको उतना प्रताड़ित नहीं होना पड़ता होगा।
रागिनी का वैसे तो कोई व्यक्तिगत पुरुष मित्र था नहीं वैसे भी उसने अपनी माँ के साथ् अपने पिता का व्यवहार जो देखा था , उसको पुरुष जाति से घृणा हो गई थी वैसे उसका कालेज को.एड था तो उसके सहपाठी मित्र जरूर थे लेकिन वो उनमें से किसी को घास नहीं डालती थी। एक दिन वो अपनी साइकिल से घर आ रही थी तो उसके बराबर एक साइकिल वाला आया और उसको नाम लेकर रुकने को कहा। उसने देखा अरे ये तो मोहन है उसकी क्लास का मेधावी छात्र। उसने साइकिल रोकी। तो वो बोला मुझे तुमसे बात करनी है यदि दिक्कत न हो तो क्या हम पास के पार्क में 5 मिनट बैठ सकते हैं। रागिनी उसके स्वभाव से परिचित थी सो उसने उसकी इस रेक्वेस्ट को मान लिया।
वो बोला अभी 2 माह में एक्साम के बाद हम सब अपने अपने स्थान चले जायेंगे उसके बाद हम सब मात्र एक्स क्लास फेलो ही रह जायेंगे। मैं तुम्हारे आचरण से अत्यन्त प्रभावित हूँ, सो सदा के लिए तुम्हें अपना सच्चा साथी बनाना चाहता हूँ यदि कोई आपत्ति न हो तो। वो उसकी स्पष्टवादिता से प्रभावित हुई बोली एक शर्त पर , यदि तुम मेरी माँ से परमीशन ले लो तो ऐसा हो सकता है वो बोला अरे राम ये तो बहुत मुश्किल काम है। रागिनी बोली फिर तो ऐसा न हो पायेगा।
मोहन मुंह लटका के वैठ गया फिर बोला मुझे उनका मोबाइल नम्बर दो कोशिश करूंगा। रागिनी ने तब उसको सारी कहानी बताई। तो वो चिन्ता में पड़ गया फिर जैसे कोई निर्णय लेकर बोला ठीक है अब मैं तुमसे तुम्हारी माँ की आज्ञा लेकर ही मिलूँगा ठीक।
रागिनी के चेहरे पर चमक आ गई बोली ठीक , अभी फाइनल परीक्षा को 2 माह थे कोई 20 दिन बाद मोहन कोलेज की लाइब्रेरी में उसको मिला और उसने उसे एक चित्र अपने मोबाइल से दिखाया रागिनी के तो होश उड़ गए , वो चित्र मोहन और उसकी माँ का था और वो दोनों दिल्ली शहर के हंसराज कोलेज की लाइब्रेरी में बैठे बतिया रहे थे।
उसको यकीन ही न आया लेकिन वो मोहन की बुधिमता से परिचित थी फिर भी उसने पुछा अरे ये सब कैसे कब् हुआ। मोहन ने उसको विस्तार से सब बात बताई फिर बोला चलोगी मिलने उनसे अभी तक मैंने उन्हें तुम्हारे अपने बारे में कोई बात नही बताई , रागिनी झट से तैयार हो गई।
अगले दिन सुबह का प्रोग्राम बना सो वो दोनों मोहन की बाइक से हंसराज कोलेज पहुँचे , श्रीमती विद्या शर्मा प्रोफेसर केमिस्ट्री से मिले और उसके आगे तो आप सब समझते ही हो क्या हुआ होगा - लेकिन सबसे बड़ी बात एक बेटी को खोयी हुई माँ का मिलना प्रभु की अनुपम दया ही थी वो भी कोई ५ साल बाद।
रागिनी के जीवन में एक साथ दो बहुत बड़ी खुशियाँ आई हर लड़की उतनी सौभाग्य शाली कहाँ होती है किसी न किसी चीज़ की कमी रह ही जाती है विशेष कर लड़कियों के जीवन में और इसी विशिष्टता के चलते उन्हें जीवन में समझौता करना अच्छे से आता है।
विद्या प्रोफेसर विद्या ने कभी नहीं सोचा था की एक साथ उनको भी बेटी और दामाद अचानक से एक साथ अर्थात एक के साथ एक फ्री बो भी बोनस के स्वरूप, वह अपने दुर्भाग्य के लिए हमेशा भगवान को कोसती थी अब अपने सौभाग्य के लिए उनकी कृतज्ञता प्रकट करते नहीं थक रही थी उसके घोर कष्ट के दिन अब लद चुके थे।
मेरा इस कथा के माध्यम से कहने का अर्थ यही था - भगवान की सोच कभी गलत नहीं हो सकती हाँ देर हो सकती है और उस देर का कुछ अंदाजा हम इंसानों को नहीं होता।
