वैराग्य
वैराग्य
"रे वटोही किधर चला?"
"माते - हम तो वैरागी हैं कोई दिशा कोई स्थान कोई जीव इन सब से विरक्त। जिधर से अन्तर्मन में अकुलाहट प्रेरणा जगी उसी धाम जा धमके!"
"ओह - मैं जानती हूँ तुमसे चर्चा के अन्तर्गत नहीं जीत पाऊंगी , जीतना भी नहीं है तुमसे क्या किसी से भी , मैं भी वैरागन हुँ , पहचाना ?"
"अरे रे माते ये क्या कह रहीं हैं आप आप तो किधर से भी वैरागन नहीं लगती।"
" जोगी - बोला न, मैं जानती हूँ तुमसे चर्चा के अन्तर्गत नहीं जीत पाऊंगी , जीतना भी नहीं है तुमसे, अब ये तुम्हारी बुद्धि व विवेक के उपर छोड दिया - जब समझ आ जाए तो बता देना | (अब वैरागी को मोह उत्त्पन्न हो गया सब कुछ ज्ञान ध्यान भूल वो उस स्त्री के भाव को समझने के लिए जिज्ञासु हो उठा , आज तक हजारों मिले ऐसा तर्क न रे बाबा न किसी ने न दिया ) | वो सब कुछ भूल कर उसके घर से कुछ दूर एक वृक्ष की स्थली चत्वर धर पर आसन लगा के अन्न जल से विमुक्त जा बैठा।"
"धी धृति मति से साधु , मन आत्मा प्राण से जिज्ञासु व जन्म से नर , उसकी सारी चपलता लुप्त हो गई बस एक ही बात हिय में स्पंदित हो रही , ऐसा कैसे हो सकता है जो बात इस सामन्य गृहस्थी स्त्री को पता , उसे नही पता, मेरा तो अब तक का सम्पूर्ण वैराग्य तिरोहित होने को है , गुरु जी ने ये बात मुझ से क्युं छुपाई ।
अब उसकी सारी तन्द्रा उस स्त्री के गृह द्वार पर केन्द्रित थी , और वो स्त्री उसकी बैचैनी को भांप मन ही मन विचित्र अल्हाद से भरी अपने गृह कार्यों में लगी अपने को उसकी इस स्पन्दित जिज्ञासा से अनभिज्ञ दिखाती नारि सुलभ छवि बिखेरती अपने कार्य का सदा की भान्ति संचालन करती जा रही थी |
आखिर जब उसका पति , बच्चे अपने अपने रोज मर्रा के कार्य से स्कूल आदि चले गए व उसका सभी नित्य प्रातः कालीन कर्म पूरा हुआ व स्नान आदि कर वो वैरागी के लिए भोजन फल पुष्प व नैवेद्य आदि एक थाली में लेकर आई तो उसने झूठ मूठ उनको न लेने का स्वांग किया | वो स्त्री , स्त्री कम मातृत्व से भरपूर सुमंगला विदुषी संस्कारी ज्यादा थी सो कुछ न बोली चुपचाप जाने को तत्पर हुइ , अब तो उसका रहा सहा धैर्य (वैराग्य ) भी छूट गया आसन से उठ , उसके चरण पकड़ लिए बोला "माते, कृपया मुझे बालक को ज्ञान दिजिए।"
वो स्त्री तुरन्त पिघल गई वो यही तो चाहती थी , सम्पूर्ण ममत्व की दृष्टि से उस को देखते हुए उसके सर पर वात्सल्य का हाँथ फिराती हुई बोली ," सुनो वैरागी - तुम ही सच्चे वैरागी हो लेकिन वैराग अर्थ संसार का त्याग नही - अपितु संसार में रहते हुए अपने सम्पूर्ण प्रभु प्रद्द्त कर्म के निर्वहन करना ही उसकी प्रासंगिकता व समग्रता को अभिप्रेरित करता है ये रास्ता तो बहुत आसान है - कहने को वैरागी व तन की सभी जरुरतों के लिए अनुरागी अर्थात - गृहस्थ पर निर्भर - पुरुष हो तुम इश्वर की महती कृपा है युवा भी हो जब समय रहते ईश्वर की इस अनमोल देन का संसार को लाभ नही दिया तो फिर कब।"
वो वैरागी जो अभी तक उस स्त्री के चरण पकड कर भूमि पर बैठा था , साष्टांग मुद्रा में लेटता हुआ अश्रुपूर्ण नयनो से उस ममत्व के ज्ञान का रसास्वादन कर रहा था और प्रभु से स्त्री के प्रथम / आखरी गुरु तत्व का आभारी महसूस कर धन्य धन्य हो रहा था |
