Jiya Prasad

Tragedy

4.2  

Jiya Prasad

Tragedy

सुनो, मैं घर छोड़ कर भाग रही हू

सुनो, मैं घर छोड़ कर भाग रही हू

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घड़ी में दोपहर के दो बज गए हैं। घर के काम अभी-अभी ख़त्म हुए हैं, पर पूरे कभी नहीं होते। रोज़-रोज़ करती हूँ, पर पूरे कभी नहीं कर पाती। दो बज गए हैं पर मैं अभी नहाई भी नहीं हूँ। दोपहर का खाना भी नहीं खाया है। आज उकता गई हूँ। आज मैं घर छोड़ कर चली ही जाऊँगी। मैंने मन बना लिया है। अब नहीं रूक सकती। मैंने हल्की गुलाबी रंग वाली साड़ी पहनी है। इसके नीचे आसमानी बार्डर है। इसी बार्डर से यह साड़ी अच्छी लगती है। मैंने खुद ही खरीदी थी ये। हाथ में छः-छः चूड़ियाँ हैं काँच की। रंग लाल है। एक बिंदी है माथे पर और बालों के बीच की लकीर पर सिंदूर। पैरों में दो-दो बिछियां हैं। पतली-सी पायल है जो भारी कतई नहीं है। पर हर रोज़ मुझे भारीपन का अहसास दिलाती है। घुँघरू न जाने कब के टूट के गिर गए हैं। घर में ही गिरे हैं। बाहर आना-जाना होता ही नहीं अब। देखो न, घर में ही गिरे हैं पर मिले कभी नहीं। जाने दो रहते तो शोर ही मचाते। मुझे शोर अच्छा नहीं लगता। हल्की सी आवाज़ से भी सिर में भयानक दर्द होता है। सहा नहीं जाता शोर।

मुद्दे की बात पर आते हैं। मुझे पता है कि जब तुम काम से लौटकर आओगे और मेरे पीछे यह पत्र पाओगे तो बेहद नाराज़ हो जाओगे। तुम शादी के बाद से जल्दी नाराज़ होने लगे हो। हमेशा खराब मूड में रहते हो। लोग समय को बदनाम करते हैं कि वह रुकता नहीं। पर समर, सच कहती हूँ। समय हमेशा रहता है। उसकी यही ख़ासियत होती है। बस तुम और मैं ही नहीं रहते। गुज़र जाते हैं, बिना एक दूसरे को चौंकाए हुए। तुम्हें पता है कि हम एक दूसरे को इतना जान गए हैं कि हम एक दूसरे में नया कुछ भी नहीं खोज पाते। कितनी ऊब बैठती है हम दोनों के बीच में। मुझे इस ऊब से ऊब हो गई है इसलिए मैंने रोज़ की तरह आज भी यही फैसला लिया है कि मैं जा रही हूँ।

आज सुनो, मेरे जाने को लोग जब जानेंगे तब मेरे भाग जाने से ही जोड़ेंगे। पर क्या किया जा सकता है! मेरा किसी से कोई चक्कर नहीं है। कोई रिश्तेदार भी नहीं है जिसके यहाँ जाकर में रहने लग जाऊँगी। अकेले जाने में जोखिम है, पर मैं यह जोखिम उठाना चाहती हूँ। मैंने कुछ सालों से हर दिन यह भागने की हिम्मत जुटाई है। पर मैं इतनी कमजोर हो जाती हूँ कि कभी मिसेज़ समर तो कभी बच्चों की माँ बन जाती हूँ। हमारे बड़े हो रहे बच्चों को लोग देखेंगे तो कहेंगे- ‘देखो वे जो जा रहे हैं, उन्हीं की माँ इस उम्र में भाग गई। कैसी माँ है? माँ तो भगवान होती है। कैसा जिगर था जो छोड़ के भाग गई! हिम्मत न जाने कहाँ से आई।’ और भी बहुत कुछ कहेंगे। पर मुझे आशा है कि हमारे बच्चे नए ज़माने के हैं और मुझे समझ सकेंगे। ऐसे ही तुम्हारे दफ़्तर में जब पता चलेगा तो तुम्हारे आगे सब हमदर्दी जताएँगे, पर पीठ पीछे ताली मार कर हँसेंगे। पर मैं क्या कर सकती हूँ?

मेरा मन अब कहीं टिक नहीं पा रहा। मुझे रह रहकर समुद्र देखने की तलब होती है। उसकी लहरों के साथ बह जाने का भी दिल कर ही जाता है। किनारे पर जब लहरें आती हैं और पैरों के नीचे से रेत बहा ले जाती हैं, वह अहसास मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैं कैसे बताऊँ कि जब बारिश होती है तब अपने कमरे की शीशे वाली खिड़की पर पानी बहकर गिरता है, तब मुझे बहुत अच्छा लगता है। बारिश की बूंदों को हाथ में, आँखों में... पूरे शरीर पर पड़ने देने से ऐसा लगता है, यही जीवन है। सर्दियों में जब बच्चे और तुम चले जाते हो तब, धूप में बैठना मुझे बहुत अच्छा लगता है। चटाई पर लेटकर धूप में सींचते जाने का मज़ा मुझसे पूछे कोई तो मैं बताऊँ।

तुम कहोगे मैं पागल हूँ। मेरा मनोविज्ञान बिगड़ गया है। अच्छी ख़ासी शादीशुदा ज़िंदगी बिता रही हो। कोई कमी नहीं फिर यह हरकत। उफ़्फ़! शायद सच में मेरा मनोविज्ञान सड़ गया है। लेकिन मुझमें यह घर छोड़ने की बात आज अचानक तो आई नहीं है। मैंने बरसों की तैयारी से इसे अपने अंदर पाया है। जब मैं शादीशुदा नहीं थी। जब कॉलेज की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे कई घंटें गुज़ार दिया करती थी। जींस में जकड़ी मेरी टांगें किसी संगीत के साथ हिला करती थीं, मानो गाना गा रही हों। पर देखो न आज साड़ी के अंदर वे दोनों आज़ाद हैं फिर भी ऐसा लगता है कि बंधी हुई हैं। हाँ, तुम सही कहते हो कि मैं ज़रा पागल हूँ। खैर अब इस पागल से छुटकारा मिल जाएगा। मैं जा रही हूँ। और आखिर में मैं जा रही हूँ।

बीते दिनों से अपने अंदर के एक-एक टुकड़े को हर रोज़ भगा रही थी। आज आखिरी टुकड़ा है जिसे लेकर मैं पूरी तरह से भाग रही हूँ। घबराहट हो रही है कदम बाहर रखने में। लेकिन अगर आज इस घबराहट से रूक गई तो कभी खुद को नहीं पा सकूँगी।

(उसने इस चिट्ठी को लिख लेने के बाद बार-बार पढ़ा और तय कर के अपने गहने रखने की जगह के साथ लॉकर में रख दिया। वहाँ ऐसी ही बहुत सारी चिट्ठियाँ सांस ले रही थीं। हर चिट्ठी का विषय भागने पर ही था। उसने घड़ी पर नज़र टिकाई। तीन बजने को थे। बच्चे आ रहे होंगे। उसने लॉकर की चाभी लगा देने के बाद लंबी सांस ली और रसोई की ओर चल पड़ी।)


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