Akshat Shahi

Abstract

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Akshat Shahi

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सोने की लंका

सोने की लंका

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ग्राम पुहार राजधानी से कुछ मील दूरी पर ही था। पूरे राज्य में शायद ही किसी ने पहले इस गांव का नाम तक सुना था। आज तक ना किसी दरबारी ने इसे याद किया और ना किसी गांव वाले ने दरबार देखा था। आज ऐसा लग रहा था महाराज का पूरा दरबार गांव के पीपल के नीचे आ बैठा है। गांव वाले दरबारीओं के कपडे आभूषण और तेज से भरे चेहरे देख कर उत्साहित हो रहे थे। दरबारिओं को ना गांव उत्साहित कर रहा था और ना ही गांव के लोग। उनका पूरा ध्यान लोहे की उन दस संदूको पर केंद्रित था। ये सन्दूकें गांव के कुल देवता ने गांव को भेंट दी थी। हफ्ता भर चली बेवक्त बारिश से गांव में लगभग सारी फसल ख़त्म हो गयी थी। विद्वान पुजारी भीमसेन का कहना था की कुल देवता भूखे थे। मासिक कुल पूजा में कई गांव वालों ने १ सेर तक आटा चावल दाल देवता को भेंट नहीं करी। इस समस्या का हल करने को एक और पूजा रखी गयी और गांव के हर घर को कम से कम १ सेर भेंट देने की हिदायत थी। दो दिन पहले पूजा सम्पन हुयी और उसी रात धरती यूँ हिली जैसे एक पल में सब भरभरा कर बिखर जायेगा। सुबह हुयी तो पता लगा कुल देवता गांव पर नहीं पुजारी भीमसेन और व्यापारी दीनगुप्त पर नाराज़ हुए थे। मंदिर के आँगन की ज़मीन धंस गयी थी । पुजारी व्यापारी और भेंट का सारा माल धरती के गर्भ में गिर गए। गांव वाले जब लाशें निकालने गड्ढे में उतरे तो वहां एक लोहे की संदूक मिली। संदूक के ताले पर कुछ अजीब सी मोहर लगी थी। बहरहाल मोहर की परवाह ना करते हुए ताला तोडा गया। इतना सोना देख कर हर किसी के हाथ पाओं फूल गए। बहुत विचार के बाद भी सोने के बटवारे और इस्तेमाल पर कोई सहमती नहीं बन पाई। ऐसे हाल में महाराज से दरबार में न्यायपूर्ण बटवारे की अर्ज़ी भेजी गयी। अर्ज़ी मंज़ूर हुई और गांव के कुल पाँच प्रतिनिधि दरबार में बुलाये गए। संदूक को भी दरबार के हवाले कर दिया गया। फैसले से पहले तहसीलदार के साथ सैनिकों की एक टुकड़ी को मंदिर की ज़मीन देखने भेजा गया। देखते ही देखते कुछ दिनों में सैनिको ने मंदिर और आस पास की ज़मीन पूरी खोद डाली। नीचे से निकली वैसी ही दस और सन्दूकें। सब संदूकों को दरबार ले जाने की व्यवस्था की गयी पर इस बार गांव वाले सैनिकों का सामना करने के लिए डट गए। इन सोने से भरी संदूको ने गांव वालों को कुछ और ही बना दिया था। उनकी लाल आँखें सैनिकों के लिए चेतावनी थी। सन्दूकें गांव में ही रोक ली गयी और दरबारियों को गांव आना ही पड़ा।

दरबारिओं ने हर गांव वाले के बयान दर्ज किये। संदूकों पर लगी मोहर को समझने की कोशिश की जा रही थी। इतनी पुरानी संदूक और मोहर को पहचानने के लिए किसी इतने पुराने इंसान को ढूंढ़ना जरूरी था। राज्य के सबसे बूढ़े आदमी या औरत की तलाश शुरू हुई। कुछ महीने भर की खोज के बाद सीमान्त प्रान्त में १०२ वर्षीय एक औरत ने उस मोहर को पहचान लिया। वो मोहर उसकी दादी की कुल देवी के मंदिर की थी। प्रमाण के तौर पर उसके पास कुछ सिक्के थे जिन पर वही मोहर लगी थी। उसकी दादी सन्धव राज में कुल देवी के मंदिर में दासी थी। औरत ने बताया सन्धव राजा भी उसी कुल देवी को मानते थे। लिहाज़ा इस कुल देवी के मंदिर जगह जगह पाए जाते थे। सन्धव राज ख़तम हुए लगभग १५० साल हो गये थे और देवी मंदिर कम से कम अब इस दिव्यध्वज राज्य में तो नहीं बचे थे। दामिनी देवी के कुछ थोड़े से पूजक आज भी ज़िंदा थे जो खुद को दामिन पुकारते थे पर दामिनी देवी को सब भूल चुके थे। महाराज के दरबार तक ये खबर पहुंची तो आपसी सलह से ये मान लिया गया कि सारा खज़ाना राजकोष में जमा किया जायेगा। मौजूदा राजा के दादा ने सन्धव राज पर विजय पा कर दिव्यध्वज राज स्थापित किया तो सन्धव राज के सब ख़ज़ानों पर राज्य का पूर्ण अधिकार है। गांव वालों को ये निष्कर्ष स्वाभिक तौर पर बिलकुल नहीं भाया। ये खज़ाना उनके कुल देवता की भेंट थी और उनके गांव का उस पर अधिकार था। स्तिथि को सँभालते हुए महाराज ने न्यायपूर्ण अंतिम फैसला दिया। इस ख़ज़ाने से सबसे पहले गांव के कुल देवता का मंदिर दुबारा बनाया जायेगा जिस में सोने के कुल देवता विराजमान रहेंगे। फिर हर गांव वाले को कुल देवता को दी गयी भेंट के बराबर भार की स्वर्ण मुद्राएं दी जाएँगी। फिर कुछ बचा तो उसे राजकोष में जमा कर दिया जायेगा। गांव में जैसे ख़ुशी लौट आयी थी। इतने सोने से वो आस पास के सभी गांव से ज्यादा अमीर हो जायेंगे। पर ये ख़ुशी जल्दी ही समझ के हाथों क़त्ल हो गयी। व्यापारी के बेटे ने गांव वालो को गणित समझाया। ये सब एक संदूक के दसवें हिस्से से भी कम में हो जायेगा। राजा कुल देवता की दी हुयी सारी दौलत अपने कब्ज़े में कर लेगा और कुछ ही सालों में लगान के रूप में सब कुछ वापिस ले लेगा। व्यापारी के बेटे की सरदारी में राजा के सामने गांव वालों ने अपनी मांग रखी। वो पेहली संदूक जो उन्हें मिली थी उस पर सिर्फ़ गांव वालो का हक़ होगा साथ ही जीवन भर के लिए हर कर और लगान से मुक्ति। दरबार में अफरातफरी सी मच गयी। कुछ दरबारीओं का कहना था इन शर्तों को मान लिया गया तो वो गांव एक दिन महाराज के राज्य पर काबिज़ हो जायेगा। जब बहुत बात चीत के बाद इस समस्या का कोई हल नहीं निकला तो गांव को गांव वालों के साथ ख़त्म कर देना ही आखरी रास्ता बचता था। सेनापति एक हुक्म पर गांव ख़तम कर देने को तैयार था। 


ऐसा हो ही जाता अगर राज्य भर के दामिन अपनी मांग ले कर दरबार ना पहुँचते। उस बूढ़ी औरत की सुनाई कहानी पूरे राज्य में आग की तरह फ़ैल गयी। महीने भर में पूरे राज्य में फैले कुल पांच सौ दामिन अपनी मांग लिए दरबार के बाहर आ बैठ गए। उनकी समझ से ये सारे संदूक दामिनी देवी की सम्पदा थी और दामिन होने के नाते उनकी धरोहर। वो ना ही सारे ११ संदूक मांग रहे थे बल्कि पुलहार गांव पर स्वाधीन अधिकार भी चाहते थे। दामिनी देवी का मंदिर तोड़ कर और उस पर अपने कुल देवता का मंदिर बना कर पुलहार गांव ने उनका अपमान किया था। ज़मीन का हिलना और ख़ज़ाने का निकलना दामिनी देवी के वापिस आने का समाचार था और दामिन समाज के लिए पुकार थी। इस नयी मुसीबत से राजा ने अपना सर पीट लिया। ऐसा लग रहा था संदूक उसकी राज्य का पतन करने के लिए धरती के गर्भ से निकले थे। कुशल राजनीतिज्ञों से भरा दरबार और राजा ऐसे हार मान ले ये संभव नहीं था। योजना बनायीं गयी और राजा ने गांव और दामिन समाज के प्रतिनिधिओं से मिलना मंज़ूर किया। गांव वालों ने व्यापारी के बेटे को अपना प्रतिनिधि चुना और दामिनों ने उस बूढी औरत के बेटे को। निर्धारित दिन और समय से एक रात पहले गांव पर हमला हुआ। सेना के संरक्षण में सन्दूकें तो बचा ली गयी पर तीन गाँव वाले और एक सैनिक मारे गए। हमले को देखते हुए और सबकी जान की सलामती का सोचते हुए सभी संदूको को किले में रखा जाना मंजूर हुआ और कोई भी फैसला होने तक संदूको के धन को इस्तेमाल न किया जाए। सभी मंत्रिओं ने मिल कर उन दोनों को समझाया कि इतना धन थोड़े से लोगों में बाँट देना राज्य कि प्रजा से धोखा होगा। राजा के प्रस्ताव में उन दोनों को इस धन का खज़ांची बनाने और माहसिक ३०० मुद्राओं का वेतन भी था। धन को कैसे और कब खर्च किया जायेगा उसका फैसला वो दोनों करेंगे मगर कोई भी फैसला दरबार की सम्मति से लिया जायेगा। साथ ही दामिनी देवी और गांव के कुल देवता के मंदिर बनाये जाएंगे। मंदिर कहाँ और कैसे बनेगे उसका प्रस्ताव भी प्रतिनिधिओं को देना होगा। दोनों प्रतिनिधि राजा के प्रस्ताव को ध्यान से सुनते रहे। संदूकों के धन के वितरण के सुझाए हुए तरीके से दोनों उलझन महसूस कर रहे थे। ३०० मुद्राओं की नौकरी और धन खर्च करने की ज़िम्मेदारी छोड़ देना मूर्खतापूर्ण बात होगी मगर गांव वालों और दामिनो को संदूको के धन की इच्छा थी। दोनों प्रतिनिधि इस उलझन का जवाब नहीं खोज पा रहे थे लिहाज़ा तीन दिन की मोहलत ले कर वापिस चले आये। अपने लोगों के पास वापिस जा कर दोनों ने राजा का प्रस्ताव कुछ फेर बदल कर सुनाया। राजा के प्रस्ताव का अनुवाद करते हुए लोगों को बताया गया "महाराजा हमारे कुल देवता के चरणों में नत मस्तक होना चाहते हैं। वो चाहते हैं हमारे कुल देवता का भव्य मंदिर जल्द से जल्द बने और वो कुल देव को अपार धन देने के लिए धन्यवाद कर सकें। संदूकों के धन पर हमारा और प्रतिवादिओं का बराबर अधिकार होगा। धन का अपार मूल्य देखते हुए वो हमसे पूरे राज्य के हित में धन खर्च करने की उम्मीद रखते हैं।" गांव वाले और दामिन दोनों कम से कम एक संदूक का धन लिए बिना मानने वाले नहीं थे। मंदिर को ले कर उन में बहुत उत्साह था और दोनों चाहते थे मंदिर वहीँ बने जहाँ सन्दूकें मिली थी।


दोनों प्रतिनिधि जनता का प्रस्ताव ले कर दरबार वापिस पहुंचे तो राजा उनकी बात से ज़्यादा उनके हाव भाव समझ गया। गम्भीरता से सवाल पुछा प्रतिनिधि होने के नाते तुम्हारा क्या प्रस्ताव है। राजा के सवाल पर पूरे दरबार में सन्नाटा हो गया। दरबारियों की आंखें उन दोनों पर टिकी थी जैसे वो किसी दूर देश से मँगवाए हुए नायाब जानवर थे। दोनों ने उलझन भरी आँखों से एक दुसरे की ओर देखा और जैसे आखों आखों में कुछ फैसला कर लिया। दोनों का विचार था गांव वालों और दामिनो को कुछ तो देना होगा और मंदिर भी जरूरी था मगर कहाँ इस पर वो असहमत थे। राजा ने उन दरबारिओं को दरबार से जाने का आदेश दिया जिनके पास इस समस्या का हल नहीं था। कुछ ही पल में दरबार में राजा के सम्मुख महामंत्री और राज पुरोहित रह गए। दरबार से वापिस जा कर दोनों प्रतिनिधि अपने समाज के सन्मुख गए। पूरे विस्तार से दरबार में की गयी बातें लोगो को बताई गयी। संदूको के धन की गिनती के मुताबिक एक संदूक से हर किसी के हिस्से में आती १ हज़्ज़ार मुदारों के बारे में बताया गया। सबको प्रतिवादी पक्ष द्वारा लगाए गए लालच के आरोप का पता दिया गया। बताया गया प्रतिपक्ष अपने निजी स्वार्थ को कुल देव से ऊपर रखता रहा। अपने गांव और समाज के उच्च विचारों का परिचय देते हुए ली गयी प्रतिज्ञा भी सुनाई गयी। राजा के सामने ली गयी प्रतिज्ञा के मुताबिक हर कोई अपनी हज़्ज़ार मुद्राएं कुल मंदिर की चौखट पर ही ग्रहण करेगा। मंदिर वहीं उसी ज़मीन पर बनेगा जहाँ कुल देव ने अपनी लीला दिखाई थी फिर चाहे इस सपने को पूरा करने के लिए प्रतिपक्ष की आहूति ही क्यों ना देनी पड़े। जब तक इस बात का फैसला नहीं हो जाता उनका प्रतिनिधि बन कर वो देव धन की रक्षा करेंगे। जब तक उनके हिस्से की हज़्ज़ार मुद्राएं उन्हें मिल नहीं जाती राजा उनके कर में हर माह १ मुद्रा की बराबर छूट देंगे।


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