स्मृति कबूतर

स्मृति कबूतर

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अजनबी


वो अब वाबस्ता किसी से मुखातिब नहीं होता है। 

पिछली बार मुझे उस नदी के पुल के किनारे बने बैंक में मिल गया था। उस रोज़ उसने कुरता और जीन्स पेहन रखा था। देखकर मुस्कुराया था, पास आकर मुझे छू भी लिया था। फिर अपना काम ख़तम कर बिना कुछ कहे चला गया। मैंने उसके बाद उसे कई SMS किये, पर कोई जवाब न आया। ऐसे शख्स से जो अपनी ख़ामोशी से इतना गहरा जान पड़ता है, मैं बड़ी आकर्षित होती रही हूँ। 

अभी हाल ही में मुझे फिर दिख गया था। इस बार शहर के बीचों बीच बने शमशान के बाहर खड़ा ज़िन्दा फूलों की तस्वीरें उतार रहा था। आँख की पुतलियों के रंग का कुर्ता और काली जीन्स। मैं गुज़री तो देखकर मुस्कुरा दिया। 

इस बार अगर मिला तो उसे पकड़ लूँगी, अपने पास बिठाकर हाल चाल पूछ लूँगी। कहाँ ग़ायब रहता है वो। यही सोचते सोचते मैं घर पहुंची। घर की हालत वैसी ही थी जैसा मैं सुबह छोड़कर गयी थी। अपने को न सही, अपने घर को आपको अच्छे से जानना चाहिए। घर के मिजाज़ से आप वाकिफ़ हैं, तो घर भी आपको भाँप लेता है। वैसे मुझे मर्दों से ज़्यादा बात-चीत का शौक नहीं है। अजीब ही बात है कि मैं गाहे बगाहे उसके बारे में सोच ही लेती हूँ और इत्तफाकन वो मुझे कहीं न कहीं टकरा भी जाता है। 

फिर ऐसी ही किसी छुट्टी का दिन था। मैं अपनी एक सहेली के घर से अपनी एक पुरानी किताब वापस लेकर लौट रही थी कि अचानक वो फिर दिख गया। इस बार सड़क किनारे रखे एक बड़े से कैरमबोर्ड के पास में खड़ा बेचैन-सा अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई लड़का उठे और उसे कैरम खेलने का मौका मिल जाए।

मैंने सड़क पार किया और उसके बगल में खड़ी उसको देखने लगी। वो हल्का सा पीछे हट रहा था कि मेरा हैंडबैग उससे टकरा गया, वो घबराया, फिर मुझे देखकर कुछ शंकित भाव से पूछा - आप यहाँ ? क्यों आप यहाँ हो सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं ? वो धीरे से मुस्कुराया और बोला, क्या आप कैरम खेलती हैं ? मैंने कहा, जी पहले ज़रूर खेलती थी, बहुत सालों से नहीं खेला। तभी तो आपको देखकर इधर चली आयी। खेलिए, मैं भी देखूँ। वो हँसा और फिर कहने लगा, यहाँ पास में एक मशहूर कॉफी, चाय की दुकान है, चलेंगी ?

हमने वहाँ पहुँचकर चाय मँगाई और ईरानी बिस्कुट। दुकान एक सराय के सामने वाला हिस्सा था। सराय में रहने वालों की भीड़ थी, किसी दूसरे, तीसरे शहर से आये हुए लोग मालूम होते थे। चाय ख़तम होते मैं उठ रही थी कि उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोला कुछ देर और बैठते हैं। वो यहाँ काफ़ी दिनों बाद आया है। हम वहाँ कुछ देर और बैठने के बाद चले आये।

उसने मुझे मेरे घर तक छोड़ा, फिर ग़ायब हो गया। आज कुछ छह महीने हो गए हैं, वो मुझे नज़र नहीं आया।

अब की बार मिल गया तो जाने नहीं दूँगी, पकड़ के बाँध लूंगी, अपने पास।

कोई बात हुई भला इतने दिनों से कोई खोज खबर नहीं।  


अब हम होली नहीं मनाते।


मैं अपने गाँव के उस चबूतरे पे बैठा हूँ जहां पास में एक कुआँ है और मिल्लू की दुकान जो अभी बंद है। सामने ढलान पर हरी राम की ढाबली खुली हुई है। हरी राम की ढाबली पिछले २५ वर्षो से वहां है। हम दोपहर में नारंगी टॉफी लेने जाया करते थे उसकी दुकान पर। ताज्जुब की बात ये है कि हरी राम का चेहरा अभी भी बिलकुल वैसा ही है जैसा बीस साल पहले हुआ करता था। गंभीर और दायीं ओर झुका हुआ।

चबूतरे से मुझे वो सफ़ेद रंग से रंगा प्राइमरी स्कूल भी दिख रहा है जहां हम बारिश में उसके बरामदे में बैठकर नाव बना बना तैराया करते थे और फिर नाव को पास के तालाब में ढूँढने जाते थे। स्कूल में वो एक बरामदा और माटी की फर्श आज भी है। अब स्कूल बंद रहता है। जब चुनाव होते हैं, तो पीठासीन अधिकारी यहाँ ठहरते हैं और चुनाव पड़वाते हैं।

चबूतरे के चारों ओर आम के बड़े बड़े पेड़ हैं। मुझे याद है हम गर्मियों में आम के टिकोरे तोड़ने आया करते थे। और माँ कहती थी उस बगिया में मत जाया करो। वहाँ इंस्पेक्टर बाबा की आत्मा घूमती है। अगर कोई पत्थर उसको लग गया तो तुमको उठा ले जायेगी अपने साथ। पर हम कहाँ मानने वाले थे। वैसे धुरुप वाकई में ग़ायब हो गया एक दोपहर। बहुत तलाश हुई पर नहीं मिला। इन्स्पेक्टर बाबा की आत्मा उठा ले गयी। फिर एक दिन धुरुप कहीं से लौट आया। पता चला वो पल्ली वाले गाँव के डाकिया की साइकिल पे बैठ उसके गाँव चला गया था। फिर कई गाँव घूमता रहा। जब सारा ख़र्चा पानी ख़त्म हो गया, तो वापस आ गया।

चबूतरे से दायीं ओर देखता हूँ तो वो पुलिया नज़र आती है जो सर्दियों में कोहरे से ढक जाती है। पानी कहीं नज़र नहीं आता। बस सांस लेता, दम भरता कोहरा। पुलिया के बगल में मुक्तियार बाबा का घर है। मुक्तियार बाबा हमारे घर पिछले चालीस सालों से काम कर रहे हैं। धान बोना, काटना, पैरा पीटना ,गेहूं का भूसा इकट्ठा करना,चारा काटना, भेइसों और गायों का नादा भरना, दूध दुहना और न जाने क्या क्या। गर्मियों में सुबह सुबह मैं खलिहान जाता तो वो पैरा पीट रहे होते और मुख्तारायिन गेहूं बटोर रही होती। मुझे उस खलिहान में लगे कटहल के पेड़ के नीचे बैठना, मुक्तियार बाबा से न जाने किस दुनिया की बातें करना और उनसे कहकर एक बड़ा कटहल तोड़वा के घर लाना याद आता है। मुक्तियार बाबा बूढ़े हो गए हैं अब। उनका लड़का अशोक अपनी मर्ज़ी का मालिक है। उसे किसी के घर काम करना पसंद नहीं है।

इस बार गाँव गया तो पता चला मुक्तियार बाबा गुज़र गए पिछली सर्दी में।

इस चबूतरे से वो पुराना बरगद का पेड़ भी दिखाई देता है। माँ वहाँ बरसाईत पूजने जाती थी। हम पास के तालाब से दौड़कर बरगद तक पहुँच जाते थे। वो तालाब हमारे घर और बरगद के बीच में है। बैशाख के महीने तक तालाब सूख जाता है। तो हम उसी में गिरते पड़ते वहां पहुँच जाते थे। माँ और सारी औरतें पगडण्डी से होती ,पूजा का सब सामान बरगद पे बाँधने वाला धागा , रंग, रोली, चन्दन, सूप, धूप, अगरबत्ती, बताशे इत्यादि लेकर पहुँचती थीं।

मुझे याद है पूजा होने के बाद हम बरगद पे चढ़कर गोदे तोड़ते थे। फिर माँ गोदे लीलकर अपना व्रत तोड़ती थी। चबूतरा वहीं है। होली, दिवाली में गाँव वाले खूब जुआ खेलते हैं। मैं भी कभी कभी पहुँच जाता हूँ। पर जुआ नहीं खेलता। घर में मनाही है। घर में कई चीज़ों की मनाही है। होली में पहले फगुआ गाने घर के सब लोग गाँव के दूसरे घरों को जाया करते थे। फगुआ और गुझिया। माँ बताती है हमारी एक बुआ को आग लगा के फूँक दिया गया था चैत के महीने में। बुआ बोलती बहुत थीं। बात बात पर लड़ने को उतारू हो जाती थीं इसीलिए उनको जला दिया गया। उनके घर वालों पे मुकदमा चल रहा था। अभी भी चल रहा है शायद। अब हमारे घर से कोई सुनवाई के लिए कोर्ट नहीं जाता है। मुकदमा फिर भी चलता है और फैसले की तारीख बढ़ती जाती है । अब हम होली नहीं मनाते।

 

 खिड़की


मेरे तुम्हारे होने न होने के दरमियाँ एक खिड़की है। जब खिड़की खुलती है, तो तुम होती हो, जब बन्द हो जाती है, तो तुम नहीं होती हो। खिड़की का खुलना मेरे सपनों का खुलना है, जहाँ तुम हो, पहाड़ हैं, एक रंग -बिरंगा देस है, पखेरू हैं, रूबी है, एक लेखक की लाइब्रेरी है, अक्षर हैं, पंख हैं , मित्र हैं, प्रकृति के बच्चे हैं, आम के पेड़ हैं, तोते हैं, नदी है । खिड़की खुलते ही तुम नज़र आने लगती हो। मैं खुश होता हूँ। 

कल रात की बताता हूँ, मेरी खिड़की बंद थी और मैं कुछ देख नहीं पा रहा था। मैं खिड़की खोलने को उठता, जतन करता, मगर खिड़की खुल नहीं रही थी। मैं हाँफने लगा, साँस तेज़ हो गयी, मैंने इस बार और तेज़ी से ज़ोर लगाया, मगर मैं थक के गिर गया। खिड़की न खुल पाने से मुझे बेचैनी सी होने लगी, मेरी साँस फूलने लगी, मैं टेक लगाकर खिड़की तक पहुँचता, कुछ देखने की कोशिश करता, मगर कुछ नज़र नहीं आ रहा था। मैं तड़प रहा था कई कुछ नज़र आ जाए , मैं खिड़की खोल सकूँ, मगर साँस फूलने से मुझे लगने लगा कि मैं धुएँ से भरे एक कमरे में हूँ और धीरे धीरे खिड़की नज़र आना बंद होती गयी। मैं धड़ाम से नीचे पड़ा और मर गया। 

अब मैं खिड़की के उस पर चला गया हूँ, जहां से तुम मुझे साफ़ नज़र आती हो हमेशा।


प्लैटफार्म


वो फिर जाके बैठा था रेलवे स्टेशन पर। स्टेशन का नाम मनकापुर। वहाँ कोई बड़ा आदमी शायद कम ही उतरता हो ट्रेन से। छोटा सा स्टेशन जिसे देखकर लगता ही नहीं कि इसके पीछे कोई बाज़ार या बस्ती होगी जहां लोग रहते हैं। गाँव बसते हैं, किसी राजा की कोठी है। चाट के ठेले और पान की ढाबली है उस रोज़ शाम धुंधली, संतरी रंग लिए हुए। स्टेशन की बेंचों पर लोग बैठे थे। वो भी एक बेंच पर जाके बैठ गया। रेलगाड़ी का आना, उफ़क तक पहुँचता धुआँ और रेलगाड़ी के डिब्बों का चलता संगीत, सब अनोखा सा, अपना सा लगता था उसको। तभी तो साहब स्टेशन पर ही पाए जाते थे शाम को उसे एक बूढ़ा आदमी दिखता है, सत्तर का होगा, पतला, लम्बा सा चेहरा। प्लेटफार्म पे खड़ा बीड़ी पी रहा था। उसके हाथ में एक थैला है। अभी पाँच बजे की पैसेंजर ट्रेन से गोंडा जा रहा होगा। वो वहीं पास की बेंच पर बैठकर उस बूढ़े को देखता रहता है वो ट्रेन की आवाज़ से इतना क्यों आकर्षित होता है ? एक वाकया जो याद आता है। वो इसी ट्रेन की पटरी पर टिकरी जंगल के पीछे भाई के साथ दौड़ लगा रहा था। उसका पैर फिसला और वो मुंह के बल गिर पड़ा। जहां आज मूंछ है, वहाँ चार टाँके लगे दो लौंडे भी आकर खड़े हो गए। गोल्ड फ्लैक पी रहे थे। ट्रेन उसे ऐसे समाज में ले जाती है जहाँ लोग साथ सफ़र कर रहे होते हैं। कुछ दरवाज़े से लटके, कुछ क्रासिंग के पास खड़े हरी लाइन होने का इंतज़ार करते, उस दिन वो उस प्लैटफार्म पर किसी को खोज रहा था। अपनी दोस्त को जिसे बाकी लोग रंडी बुलाते हैं। सुनते हैं वो मनकापुर के जो छुट पुट बड़े आदमी हैं उनके साथ सो चुकी है। लोगों को आश्चर्य इस बात का होता है कि वो इसकी दोस्त कैसे है। न तो ये धनी है, न बहुत बड़े घर वाला। बहरहाल, तो एक ट्रेन अभी आकर रुकी है स्टेशन पर। भीड़ ज्यादा नहीं है। भीड़ इस स्टेशन पर कम ही रहती है। एक वेटिंग रूम है जो आमतौर पर बंद रहता है। एक समोसे वाले की दुकान के अलावा स्टेशन मास्टर का छोटा सा कमरा और टिकेट खिड़की। एक पुल भी है जो प्लैटफार्म एक को दो से जोड़ता है, वो बेंच पे बैठा अपने पास बैठे बूढ़े आदमी को देख रहा था। बूढ़ा काला लम्बा कोट पहने था जो नीचे एक, दो जगहों पर छिदा हुआ था। नीचे सफ़ेद पैजामा और काले बूट पैरों में। मौसम सर्दियों का था नहीं , फिर भी बूढ़ा ऊपर से नीचे तक कपड़ों से भरा था। उसके माथे पे पसीने की बूँदें थी वो बूढ़े के पास जाकर उसे और गौर से देखता है। बूढ़ा अपनी जेब से लम्बी चाकू निकालकर उसे दूर हटने को कहता है। फिर ट्रेन में लपककर चढ़ जाता है। नीचे गाँजे की एक पुड़िया गिरती है जो बूढ़े की जेब में थी, पीछे से उसकी दोस्त आकर उसे टीप मारती है। दोनों गले मिलते हैं और पटरी पटरी जंगल की ओर निकल जाते हैं। पीछे से आवाज़ आती है, वो देखो रंडी का नया शिकार।


टुल्लू


टुल्लू मेरा दोस्त मेरे मौसा का लड़का। उसकी श्रृंगारघाट में कंप्यूटर कोचिंग की दुकान है। दुकान का नाम है ‘ श्री सूर्य नारायण त्रिपाठी कंप्यूटर कोचिंग सेंटर’। नाम उसके दादा जी के नाम पर है। टुल्लू के दादा जी भारतीय रेल में टी टी रहे। रिटायरमेंट के बाद वो यहीं अयोध्या में रहने लगे थे। उनकी पेंशन से ही घर का हिसाब किताब चलत रहा।

टुल्लू का कोचिंग सेंटर दर असल एक बहुत पुरानी हवेली के सामने वाले हिस्से में है। श्रृंगारघाट से छावनी की तरफ जाते हुए एक पतली गली में घुसते हैं, तो बिलकुल पहले ही दायें तरफ आपको लाल पत्थरों वाली हवेली दिखती है। सीढ़ियाँ चढ़ के ऊपर जाओ और बहुत बड़े से बरामदे से सटा टुल्लू का कोचिंग सेंटर। फर्श कच्ची मिटटी की है और दरवाज़ा नीले पेंट से पुता हुआ। सामने दीवार पर विवेकानंद की तस्वीर। वो हवेली उसकी दादी की थी। जो शादी के कुछ साल बाद उस हवेली में लौट आई थीं और फिर कभी वापिस नहीं गयीं। हवेली अब विवादित है। कई आस पड़ोस के रिश्तेदार अपना हक़ जमाते हैं। तो हवेली पर मुक़दमा चल रहा है।

टुल्लू फैज़ाबाद से कंप्यूटर के मॉनिटर ले आया, वो सफ़ेद वाले डब्बे और CPU जो पेंटियम 4 में चलते हैं। आप कोचिंग सेंटर में घुसते हैं, चार पाँच सफ़ेद डब्बे , कुछ स्टूल और कुर्सियाँ जिसपे लौंडे लिख रहे हैं। और दरवाज़े से लगे एक टेबल चेयर में टुल्लू बैठा। मैं जब भी जाता हूँ, मुझे अपनी कुर्सी पर बैठा देता है। लौंडे देखकर चकित ! ये तो गुरु जी का भी गुरु है ।

लम्बे क़द का पतला सा लड़का, बिलकुल टीप टाप कपड़े, चमचमाते काले जूते। रोज़ शाम हनुमान गढ़ी जाना और लम्बा चन्दन वाला टीका सुबह सुबह नहाने के बाद। टीका दिन भर लगा रहता है। मिटता नहीं। साला पता नहीं कहाँ से एक लमरेटआ जुगाड़ लिया है। दिन रात अयोध्या की गलियों में लिए टहलता रहता है। कभी साकेत विश्वविद्यालय के सामने खड़ी रहती है उसकी लमरेटआ, तो कभी जलेबी की दुकान पर।

जब भी मिलने जाता हूँ उससे तो जलेबी खाने जरूर जाते हैं। भाई साहेब पिछले पचास सालों से चल रही है वो जलेबी की दुकान। कुल्हड़ में गरम गरम जलेबी और दही के ठंडे टुकड़े। कसम से मुंह में पड़ते ही मज़ा आई जात है।

तो टुल्लू की दादी जी जो हैं हवेली छोड़कर अपने ससुराल गयी ही नहीं। बेचारे उनके शौहर टी टी साहब बस रेल गाड़ियों में ही घूमते रह गए। थक हार कर रिटायरमेंट के बाद वो भी हवेली में ही आकर रहने लगे। अब गजब बात ये थी की उनको किसी ने कभी बोलते नहीं सुना। बिलकुल चुप रहते थे। मगर एक लाचार वाला चुप नहीं ,खूँखार चुप्पी कि अगर मुंह खुला तो जमाने भर का गुबार बाहर आ जायेगा।

इस बार मिला टुल्लू तो पता चला उसकी माँ यानी की मेरी मौसी मर गईं। इतने बच्चों को जना था कि अब जान ही नहीं बची थी उनमें। टुल्लू के टुल्लू को मिलाकर कुछ दस भाई बेहन थे। उसकी माँ को खाने को मुश्किल से मिलता था। दिन भर खाना बनाने और इतने बड़े परिवार को खिलाने में ही चला जाता था। अपने ऊपर कभी ध्यान नहीं जाता था। टुल्लू की माँ को पता ही नहीं चला कि वो अब मर रही हैं। और एक दिन सही में मर गईं। टुल्लू लाचार सा अपनी कंप्यूटर की दुकान पे बैठा रो रहा था और मुझे ये सब सुना रहा था। फिर थोड़ा चुप हुआ और बोला कि मुक़दमा जीत गए हैं और हवेली फिर से हमारी हो गयी है पूरी की पूरी ।

वो गली जहां हवेली है और टुल्लू का कंप्यूटर कोचिंग सेंटर है ,उस गली के बाहर एक पीपल का पेड़ है जो रात के वक़्त भुतहा लगता है। हम और टुल्लू कई रातें उस भुतहा पेड़ के इर्द गिर्द लमरेटा लिए चक्कर लगाते पाए जाते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे टुल्लू चक्कर लगाता है उन कंप्यूटर के सफ़ेद डिब्बों और हनुमान चालीसा के बीच। हनुमान चालीसा की सॉफ्ट कॉपीस बनाता है और प्रिंट करके सप्लाई करता है मंदिरों में। धरम और बिजनेस। है न गजब की बात ।


बादलों वाली गली


दोनों चले। रात के कुछ नौ बजे होंगे। मैं पीछे बैठा आस पास दीवारों पे लगे पोस्टर और चमकते बल्ब देख रहा था। एक वक़्त के लिए लगा मैं वैन गोग के उस कैनवस से होकर गुजर रहा हूँ जहाँ उन्होंने सड़क के दोनों ओर घर चित्रित किये हैं। बारिश से सड़क पर फैली लैंप पोस्टों की रौशनी की परछाइयाँ पिघलकर एक दूसरे में मिलती नज़र आती हैं। मैं पीछे बैठा ये सब देख रहा था, वो अचानक पूछ बैठती है ,“दुकान याद है न , हम बिलकुल भूल गए हैं।" अरसा हुआ इधर आये। उसकी आवाज़ के साथ कुछ और आवाजें सुनाई दे रही हैं मुझे। पास में खड़ी एक बच्ची की आवाज़ ,जो बारिश रुकने के बाद अब सड़क पर आकर खड़ी है, दो रिक्शे वाले जो शायद घर लौट रहे हैं और पी रक्खी है सालों हम आगे से दाहिना मोड़ मुड़ गए। कपास की खट्टी सी गर्म बू भरी थी उस गली में। मेरी ज़ुबान कुछ कहते कहते रुक गयी और मैं बस एक टक रुई के फाहों को आस पास उड़ता देखता रह । ऐसा लगता था मानो बादलों के टुकड़े नोच लाया हो कोई उस गली में। मैंने उसके कंधे पे अपना सिर रख दिया और बस उस मद्धम पीली रौशनी में बादलों वाले फाहों के दरमियाँ बढ़ता गया ।

आखिरी दुकान अब्द्दुल की थी। हम वहाँ रुके। उसने सड़क पर से आवाज़ लगाई , “अब्दुल मियाँ कमीज़ तैयार है?? अर्जेंट है। ” अब्दुल भागता हुआ नीचे सड़क पे आया और उसने कमीज़ मेरे हाथों में पकड़ा दी जो हफ्ते भर वो सिलने को ले गया था घर से। अब्दुल कहने लगा बीबी जी इधर से मत जाना। सालों ने रास्ता अब तक जाम कर दिया होगा। कल फिर से जुलूस निकलेगा। यूनिवर्सिटी के सामने। आप तो वहाँ पढ़ाती भी हैं। कब तक चलेगा ये मार काट। अल्ला जाने। आगे से एक दूसरा रास्ता है जो सीधे क्रासिंग पे जाके निकलता है। उधर से चली उसने गाड़ी झट से आगे बढ़ाई। मैं अब्दुल को देखता रहा। उसके चेहरे पे हलकी सी हँसी फूट पड़ी थी।  

 

ऊटपटांग


रूह अनमोल है। कलेश क्यों है ? सागर के पार सतरंगी संसार। नाच रे मेरो मन। धर्म क्या है ? सोचा नहीं बहुत। चाक सी सुफ़ैद बनावट वाला बदन। मैं चढ़ूँ तो चढ़ूँ कैसे रंग भी तो हैं। तोहमतें भी, किसने सोचा था गुड्डू भाग जायेगा , पर भाग गया ।

यथार्थ मेरा हो या तुम्हारा ,क्या फरक पड़ता है ? चाँद यथार्थ है या चांदनी। बंगले की खिड़की से कूद गया मैं। हाथ पैर सलामत हैं । बस दिमाग पतंग हो गया। उसने चाकू गरम किया और बीड़ी जलाई। रात दिन आते जाते हैं , मैं खुश हूँ कि वो आते जाते हैं। आदमी बस जाते हैं , चले जाते हैं।

घड़ी की सुई का संगीत है, संगीत तो गिलहरी का भी है। रेल का भी संगीत है। हवा उसकी ज़ुल्फ़ की हरकत से चलती है और वो चलती है। चलता तो सारा संसार है , फिर संसार रुका हुआ क्यों है ? 

एक दिन माँ मर जायेगी। एक दिन मैं मर जाऊँगा। दूसरे लोग जो मुझे नहीं जानते हैं ,चलते रहेंगे। जो जानते हैं वो भी चलते रहेंगे।

स्मृतियाँ कबूतर हैं। कबूतर जो स्वर्ग के हैं। कबूतर मेरी पलकों के उठने बैठने से आते जाते हैं।

मंदिर में घंटी बजती है और मस्जिद में नमाज़ अदा होती है मुल्ला की आँखें मेढक जैसी हैं।

मुल्ला के पास लमरेटा है, मुल्ला की बीवी भाग गई।

किताबों में पन्ने होते हैं। पन्ने तो ज़िन्दगी में भी होते हैं। उसे अंग्रेजी नहीं आती। पर्स में अठन्नी है। मैं पूछता हूँ ये ग्रीटिंग कार्ड अब क्यों नहीं भेजते हैं लोग ?

नाखून बड़े हो जाएँ तो काट लो , बच्चे बड़े हो जाएँ तो मछलियां तैरती हैं तालाब में। पेड़ के नीचे आदमी खड़ा है। गोली चला दी दिलीप ने। दिलीप जेल में है। कोई मरा नहीं। मधुमखियाँ फूलों में और मैं फूलों पे मंडराता हूँ ।

पुराना जन्म है तो है, मुझे याद नहीं।

शतरंज की गोटियाँ हैं। गोटियाँ तो गुलेल से भी निकलती हैं ।

भरम सच है। फिर सच क्या है ? पंछी का उड़ना और आसमान का नीला होना शायद सच है। खिड़की भी है ,आँखें भी। चलो कूद जाते हैं,

वहां लड़के कंचे खेल रहे हैं ,चलो कंचे खेलते हैं ।


कसक


उस रात जब मैं उस शख्स पर चिल्लाया था, वो वहीं पास में खड़ी थी। उसकी आँखों में देख सकता था मैं। उसका चेहरा पढ़ सकता था। “ भला ये कैसे चिल्ला सकता है। कैसे इतना खफा हो सकता है। मेरे साथ तो कभी ऐसा नहीं करता। अलबत्ता मैं ही उसपे चिल्लाती रहती हूँ। “उसने मद्धम काही रंग का पूरी बाँह वाला सूट पहेन रखा था। मेरे पीछे स्कूटी पर बैठी और हम घर पहुंचे। रात को करीब ग्यारा बज रहे होंगे। वो वहीं ज़मीन पर बैठी और हाथ पकड़कर मुझे भी बिठाया था। उस रात सन्नाटा था। उस रात न झींगरों की मंडली कहीं बज रही थी , न किसी रेलगाड़ी की आहट पीछे रेल की पटरी पर वो रात जैसे थम गयी थी। मेरी आँखों और उसके चेहरे के बीच। जिसमें झिलमिलाते कई चराग तितलियाँ बन उड़ रहे थे। मेरी आँखों से पैदा होते वो तितलियों वाले चराग और उसके चेहरे के अनगिनत कोनो में जाके बैठ जाते। तितलियाँ उड़ती उड़ती उस दायरे को भर देतीं जो हम दोनों के दरमियाँ था वो बोल रही थी। अपनी आँखों से। आँखें जो लाल थीं, कुछ तो नींद के मारे और कुछ किसी अपने की चुभी किसी बात से। मैं पास पास जाता गया। वो वहीं बैठी रही । तितलियाँ चरागों की उड़ती रहीं। मैं और पास जाता गया। अब वो कहना चाह रही है। कुछ ऐसा या फिर बहुत कुछ ऐसा जो रात को और रोक देता। वो मुझसे आज रात बोल देना चाहती थी अपना सच ,हमारा सच। हमारे बीच जिया हुआ वो सच जो प्यार भी था और प्यार को जनम देने वाला वो बीज भी। जो सम्पूर्ण भी था और नवजात भ ।

मैं उठकर किसी को बाहर तक छोड़ने गया। लौटकर आया तो वो जा चुकी थी। ऊपर के कमरे की लाइट बंद थी। बस दरवाज़े के कोने से सुई नुमा आकार की एक रौशनी उसकी नाक को छूती गुज़र रही थी। मैं उसके पैरों को टटोलता हूँ। वो स्थिर है। अब वो शांत है मैं रात गँवा चूका हूँ। लाचार सा अपना सा मुंह लिए मैं सीढ़ियों से नीचे उतर आता हूँ। तखत पे पड़ा अपने आप को उसे एक पल के लिए अकेला छोड़ने को कोसता हूँ। नींद आ जाती है मुझे ।



बाबा


मैं सोचता हूँ कि अपने मरने के वक़्त मैं अपने गाँव वाले घर के दुआरे एक खटिया पर पड़ा रहूँ। रात हो और खटिया के चारों ओर एक मच्छरदानी लगी हो और मैं जाली से ऊपर सितारों को देख सकूँ। फिर मुझे नींद आ जाये । कभी न जागने वाली नींद। मैं सोचता हूँ मेरे बाबा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक दिन वो घर के बाहर लगे ‘हैण्डपम्प ’ से एक बाल्टी में पानी भर रहे थे। अचानक उनका पैर फिसला और वो गिर गए। उनके दाहिने हाथ में चोट आई । तब से वो मुझे उस खटिया पर दिखते थे। आसमान के नीचे ।

इस हाथ की बीमारी के पहले बाबा अनुवाद किया करते थे। उर्दू से इंग्लिश ,हिंदी से इंग्लिश। कोई पोस्ट ऑफिस से अपनी पदोन्नति की अर्ज़ी लिखवाने ,कोई अपना तबादला रुकवाने। कोई कचहरी की किसी ‘नोटिस’ को अंग्रेजी में लिखवाने। ऐसे बहुत से लोग चले आते थे। बच्चा मिश्रा ने तो अपना निलंबन यानी की "सस्पेंशन ऑर्डर" रुकवाने के लिए तीनों भाषाओँ में अर्ज़ी द । पोस्ट ऑफिस के बड़े बाबू ब्रहामण थे। शुद्ध हिन्दी में वार्तालाप करते थे। और डिस्ट्रिक्ट में बैठे साहब थे मुसलमान ,काफी अदब से उर्दू में गुफतगू करते थे और अंग्रेजी तो ‘ऑफिसियल’ भाषा है ही । तो सबको खुश करने को बच्चा मिश्रा लगातार तीन चार हफ्ते तक आते रहे । फिर उन्होंने आना छोड़ दिया । बाबा से पूछा तो पता चला उनकी अचानक हार्ट अटैक से मौत हो गयी, एक दिन देखा बाबा बरामदे में लटकते बिजली के तारों पे बैठे दो कबूतरों से कुछ कह रहे थे। वो कबूतर रोज़ दोपहर में बरामदे में आकर बैठ जाते थे । मानो ‘सिएस्टा’ ले रहे हों दिन के खाने के बाद। बाबा किसी ख़ास किताब की या अपनी लिखी किसी फाइल की बात कर रहे थे। भला कबूतरों से ऐसी ऐसी बात का क्या सबब। भगवान जाने। मैं बस चुपचाप बरामदे के पास वाले कमरे में खड़ा ये सब देखता रहता। पहले पहल तो दोनों कबूतर डर जाते और कोनों में जाकर दुबक जाते। पर धीरे धीरे उन्हें बाबा की आदत हो गयी और वो बिना किसी हरकत के उनको सुनते रहते। फिर बाबा अपनी खाट पर जाके लेट जाते और दैनिक जागरण पढ़ते पढ़ते सो जाते, बाबा ऊँची नीची जाती वालों में कोई फरक नहीं समझते थे। पंडित हो या चमार ,सबको रोक के हाल चाल पूछ लिया करते थे। “और राम बचन, का हाल चाल है ? धान बोई दिहो ? अबकी पानी तो अच्छा बरिस रहा है जल्दी बोई डारो। अच्छी फसल होई, जी बाबू बस सब किरपा है आपकी। “ बाबा दरअसल ऊँचा सुनते थे। कहानी ये है कि मिलिट्री से रिटायर होने के बाद उन्हें एक दिन बुखार होई गवा। वो खटिया पर पड़े रहे और बुखार मस्तिष्क पर चढ़ गया। जिससे उनकी सुनने की शक्ति कम हो गयी। वो ऊँचा सुनने लगे। मैं जब भी उनसे बात करता तो पेट से आवाज़ निकलता जिससे मेरी बात उन तक पहुँच सके उनके अंतिम दिनों में जब उनके हाथ में इन्फेक्शन हो गया था और वो कुछ भी उल्टा पुल्टा बकने लगे थे। एक दिन मुझे अपने पास बुलाया और कहा ‘मैं तुम्हे अपनी ये फाइल सौप रहा हूँ। इसमें उन सारे लोगों के नाम हैं जिनकी मैंने मदद की ह । चाहे नौकरी लगवाने में अंग्रेज़ी में अर्ज़ी दी हो , या फिर उर्दू में तरक्की की अर्ज़ी का पत्र या फिर छोटी मोटी सिफारिश की चिट्ठियाँ। सबका लेखा जोखा है इस फाइल में । मैं ये तुम्हे सौप रहा हूँ। कभी किसी से एक पैसा नहीं लिया मैंने। ले लेता तो ये हालत न होती मेरी। इलाज के पैसे होते और मैं ऐसे मर न रहा होता। ये फाइल ले लो बेटा और इन सबसे हिसाब कर लेना। मेरी फ़ीस वसूल लेना। मैं थोड़ा हिचकिचाया ,फिर हामी भर दी बाबा रात के ख़त्म होते सुबह की पौ फटने के आस पास उस खटिया पर ही मर गए। उनकी मुर्दनी पर कुल दस हजार लोग थे। लम्बी लम्बी बसों में भर के गए थे लोग सरजू जी। उसमें आधे से ज़्यादा चमार थे ।



स्वप्न

हि केपट प्लेयिंग एंड वास इम्प्रोवाएसिंग

आई सी यू इन म्यूजिक

तुम यहीं हो मेरे पास ,उस छत की मुंडेर पर जहां पिछले साल पतंगे उड़ाईं थीं दोनों ने। तुम आज भी मेरे अनगिनत खयालों की गहराई में तैरती हो। मेरी सपनों भरी आँखों के सामने तुम बादल बन गुज़रती हो। सफ़ेद उजले बादल जो पलकों पर पड़ते हैं और पलकें नाम कर जाते हैं।

मेरी जीभ पर अब भी तुम्हारी आवाज़ के टुकड़े जमे हुए हैं। जो तुम हमारी चाँद रातों में सजा दिया करती थी। एक करवट मेरी ओर लेकर अपनी पलकों के सिरहाने से कुछ सपने मेरी पलकों पर उतार दिया करती थी। साथ चलने के सपने वो संगीत बजाता रहा। हि वास प्लेयिंग पोइस ओन हिज गिटार, तुम संगीत बनती गयी। संगीत जो मुझसे होकर गुज़रता है,मेरे कानों में गुनगुनाता है। मैं उस कमरे में बने रौशनदान से तुम्हे झाँक रहा हूँ। वहां ढेर सारी किताबों के अलग अलग झुरमुट हैं। किताबों के जंगल से तुम्हें गुज़रते देखा है। तुम लाल सलवार सूट पहने ,बाल गीले और खुले मानो अभी अभी नहाकर निकली हो और मैं बस तुम्हारे इंतज़ार में इस कमरे के रौशनदान के पीछे बैठा। तुम गुज़रती हो और संगीत गुजरता है एक जाना पहचाना सुर-ताल लिए। आस पास का खयाल अब तुम में तब्दील होने लगता है।

सब संगीत में तब्दील होने लगता है। तुम्हें पंख देता संगीत। घर के दीवार पर कुछ पंख छूट जाते, मैं अपने कमरे की खिड़की से तुम्हें उड़ता हुआ देख सकता हूँ ।

छल्लेदार मुस्कान लिए तुम मुझसे कुछ पूछ रही हो । गिटार के तार अपनी ज़बान में वही कुछ पूछ रहे हैं। मैं अपनी खिड़की से तुम्हें दूर जाता देख रहा हूँ । अपना हाथ बढ़ाकर तुम्हे रोक लेना चाहता हूँ । तुम उड़ती जा रही हो । उजले बादामी आकाश में । गिटार के तार पर हरकत तेज़ हो गयी है। संगीत तेज़ हो गया है। अब मेरे कमरे में जो संगीत सुनाई दे रहा है ,वो दूर जाता संगीत । भागता ,तेज़ मैं आँखें मूँदें खिड़की के पास खड़ा रहता हूँ। तुम मेरे पास , मुझसे दूर ,समय के बोध को भंग करती ,मेरे कल ,आज और कल में एक साथ नज़र आती हो। मैं किवाड़ पर गिरे पंख बटोर रहा हूँ। उनपर लिखा है –

निज घट तर लिहो तो

मोहे सुहागिन का पा लिहो



भयँकर 

कब से वो देख रहा है शाम के लाल सूरज के आगे उस बिजली के देवदार के आकार के टावर को जिसपर तमाम गिद्ध आकर ठहरे हुए हैं। 

क्या पता इतने सारे गिद्ध आये कहाँ से थे। एक दूसरे में ठुसे हुए उस दिसम्बर की एक शाम में। 

एक कटे पेड़ का आधा तना और तीन शाखाएँ ज़मीन को चूमतीं ,आलिंगन में थीं। 

आगे कैंसर इंस्टिट्यूट से एक रास्ता ढलान की ओर जाता जहां ढेर सारे पेड़ों से लटकते रंग बिरंगे चिथड़े।

वहीँ नीचे बैठा एक जिम इंस्ट्रक्टर जो पास के "गोल्ड जिम" में काम करता था , कुछ कसरत कर रहा था। उसकी छाती फूली हुई थी ,भुजाएं कसीं ,डम्बल नुमा। अब वो सिगरेट पी रहा था। पास के अपार्सेटमेंट दो महिलायें एक कार में बैठीं ,कार कहीं जा रही थी। 

उस सुनसान काम्प्लेक्स में एक सबवे किसी मरुभूमि में उगे मरुद्यान जैसा लगता था। 

उसे एक स्त्री नज़र आयी जिससे उसने कभी प्रेम किया था। कहाँ से अकस्मात् वो यहाँ आ गयी ,गले लगाया और वो जाने लगी। बहुत जल्दी में थी शायद। 

 ऊपर रात हो रही थी ,वो एक सन्यासी सा घूमता वहाँ पहुंचा जहां एक बड़ी -बड़ी मूंछ वाला आदमी सबका हिसाब मांग रहा था। 

क्या जाने कैसा हिसाब ? ये पूछो तो कोई जवाब नहीं मिलता। वो बड़ी मूंछ वाला आदमी बात बात पर गुस्सा जाता था। फिर कहने लगा ‘फाइनली आई गोट रीड ऑफ़ हर , माय वाइफ '

वो वहाँ से भागता एक बार में पहुँचा जहां एक लड़की उसे अपनी निगाह-ए-पाश में बाँध रही थी। वो उसमें फंसता गया और खूब शराब पी। उस लड़की ने उसे चूमा ,प्यार किया ,फिर गायब हो गयी। 

रात के धुत्त नशे में वो कहीं पड़ा रहा। सुबह चार लोग आकर उसे उस मूंछ वाले के पास ले गए। वो चिल्लाया ,नाराज़ हुआ ,आखिर बिना हिसाब दिए वो कहाँ गायब था। कैसा हिसाब ? इस पर मूँछ वाला हँसा और चार लोगों ने पास के बड़े से पुराने पत्थर पर रखकर उसका गला रेती से रेत दिया। 

पत्थर पर लाल खून था और गिद्ध उस टावर से उड़कर पत्थर पर मंडरा रहे थे।

 

आवारापन 


वो पहाड़ी पर चढ़ता जा रहा था,ऊपर तक सांस तेज़ ,ऑक्सीजन की कमी ,ऊपर वहाँ एक शांति थी, एक सन्नाटा जहाँ सिर्फ एक जमी हुई नदी की बर्फ़ के चटकने की आवाज़।ये दोनों कितने दिन पहले इस पहाड़ी प्रदेश में आये थे। और चलते ही जा रहे थे। दूर तक कुछ नहीं दीखता ,कहीं से कोई पहाड़ी शेरपा हँस देता ,फिर आगे कई मील पहाड़ के पत्थर ,उनके आगे क्या होगा ? के कौतूहल में बढ़ते जाते।  

वो वहीँ रह गया ,अकेले अब आस-पास के लोगों में गुम-रम गया।  

वो ऐसा कई बार कर चुका है। जगह कोई जो उसको भा जाती थी। वो वहीँ कोई छोटा मोटा काम करके रह जाता था। जैसे वहीँ छूट जाता था।  

बाकी दुनिया कितनी आगे चली जाती ,क्या पता। 

बस रुक गया ,ठिठक गया ,कुछ चल गया उसमें। वो अब इस पहाड़ी देस छूट जाएगा क्या ? आवारेपन से उसके सारे जाने तंग हो गए थे। उसको पकड़कर कहीं से लाये और उसकी शादी कर दी।  

उसका दम घुट गया दाम्पत्य में और वो नदी में डूबकर मर गया।  

नदी की सतह पर फिर बर्फ़ जम गयी थी। उसका शरीर भीतर बहकर हिलता रहा। उसकी पत्नी यह देखकर खूब हँसी ,चीखी ,दाँत से अपने नाखून काट लिए और पागल हो गयी।  

 


बुद्ध


रात को जब सोया तो एक सपने ने परेशान कर दिया।  

अजीब सी जगह कुछ लोग इकट्ठा हुए थे। एक आदमी अचानक कहीं चला गया था। क्या पता कहाँ गया ?

जो लोग वहाँ थे ,उनमें से कुछ उस आदमी के मोहल्ले के थे , कुछ साथी और शायद उसके माँ -बाप। बीवी और बच्चे अभी आ रहे हैं।  

उसको आखिरी बार झील के किनारे बत्तखों से बात करते सुना गया था। वो पास के एक पत्थर पे बैठा गा रहा था। पेड़ से पत्ते जहर रहे थे। 

झील से दो बत्तख तैरते उसके पास आते हैं ,बाहर निकलते हैं ,उसके पास आकर पँख से पानी झाड़ते हैं। फिर उससे गीतों की भाषा में बात करते हैं। फिर वापस पानी में तैरते उस छोर की तरफ़ चले जाते हैं। वो उनको देखता रहता ,खुश होकर कुछ जाता रहता ,'कजरी', चलता रहता।  

ऐसे ही चलते चलते वो चला गया उस रोज़।  नहीं कोई जानता कहाँ गया वो।  

बहुत सालों बाद किसी ने देखा उसको एक पुलिया पे बैठा। एक रौशनी दिव्य से उसका माथा धधक रहा था।  

वो बुद्ध था ।   









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