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ritesh deo

Tragedy

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ritesh deo

Tragedy

समर्पण

समर्पण

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कितनी शांत होकर सो रही है सुरभि, आज उठने का नाम भी नही ले रही ,जितना झंझोड़ता हूँ उतनी ही शांत दिखती है ।

जब कभी भी हमारी बहस होती और मैं रूठ जाया करता था ,तब कहती थी मुझसे ,"अब रूठा न करो ,मुझसे बर्दाश्त नहीं होता, बुढ़ापा आ रहा है ;यदि कभी मैं रूठ गई तब मनाने से भी न मानूँगी ।" 

मैंने उसके द्वारा सुलह के लिए समर्पित की गई एक और भावना पर पाँव रखकर एक सीढ़ी चढ़ते हुए कहा," जाओ न, रूठो तुम भी ,किसने मना किया है ?" 


और सच में , इस बार वह दो दिन वह चुप रही व आज डॉक्टर ने कहा," इनको साइलेंट अटैक आया है शायद बहुत तनाव में रहती होंगी ।

पिछले तीस सालों में पता नहीं, ऐसी कितनी अनगिनत सीढियां मैंने बनाई हैं।

आज मैंने पहली बार मुझे टटोला और पाया कि मै बहुत ऊंचाई पर खड़ा हूँ ,मेरे नीचे अनगिनत पत्थर है और सामने सुरभि बैठी है एक गहरे गड्ढे में ,शायद अपने हिस्से के सब मुझे समर्पित कर दिए ।

जब भी मैं नाराज होता ,वह कभी तेल लेकर कहती ,"चलो आपके बालों में मालिश कर देती हूँ जिससे आपका मूड फ्रेश हो जाये ।"

मेरा अभिमान पोषित होता हुआ उसे उसी क्षण झटक कर मुँह फेर लेता ।

फिर वह हथौड़े से अपने स्वाभिमान का एक और टुकड़ा करती ,स्वादिष्ट खाने के रूप में मेरी थाली में परोस कर आँखों पर जम गए नमकीन पानी को नकारते हुए हँसने की असफल चेष्टा के साथ मुझे हँसाने की कोशिश करती लेकिन मैं उसे भी पत्थर समझ ,अपने ढेर को और बड़ा कर लेता ।


कभी बच्चों के चेहरों पर खुशियां देने के लिए ,कभी खुद के प्यार को हासिल करने के लिए न जाने वह कितनी बार पत्थर बन बन कर मेरे अहंकार के लिए सीढियां बनती गई और मैं मद में चूर उनके ऊपर पांव रखकर ऊपर चढ़ता गया ।अब शायद उसके समर्पण के लिए सारे भाव खत्म हो गए इसलिए वह कल से निश्चल भाव से लेटी हुई है ।मौन है परन्तु निःशब्द नहीं...


"जैसे कह रही हो ,"आत्मा के अनन्त भावों को तुम पत्थर समझ कर सीढ़िया बना चुके हो ,अब केवल यह शरीर बचा है जिसे भी तुम्हें सौंप रही हूँ अंतिम सीढी के लिए ।"



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