समझदारी
समझदारी
"क्यों ,तुमने बबलू को क्यों मारा।"
"इसने मुझे काट लिया था।"
"वो छोटा है,नासमझ है। तुम तो समझदार हो।"
बस यही पांच साल की उम्र से मेरी समझदारी का सफर शुरु हो गया। हर गलत बात को स्वीकार लेने की समझदारी। स्कूल में सभी टीचर मेरी कुशाग्र बुद्धि के कायल थे पर परीक्षा में टॉप टेन की लिस्ट में मेरा दूसरा नम्बर ही रहा। प्रथम स्थान सहपाठी राजीव का ही रहता था। वो स्कूल संचालक का बेटा था। इतना तो समझता था मैं।
मैं बहुत अच्छा लिखता था, कहानी, कविता, लेख सभी मेरी तारीफ करते थे पर इन प्रतियोगिताओं में सफल न हो पाया जो सफल हुआ वो निर्णयात्मक जूरी में किसी एक का रिश्तेदार था। विवाह के लायक हुआ, मुझे जो लड़की पसंद थी। माँ-पिता ने कहा वो विजातीय है। उनकी दलील थी की इस सम्बंध से बहिन के रिश्ते में रुकावट होगी। त्याग जीवन का आवश्यक अंग है। समझ गया मैं।
नौकरी में प्रमोशन की लिस्ट जारी होनी थी। मैं इलेजिबल भी था। लिस्ट में मैं नहीं था। मेरी जगह वो बन्दा था जो बॉस के हर काम, हर जरुरत के लिये हाज़िर रहता था। अपनी गलती समझ गया था मैं। दूसरी बार फिर प्रमोशन लिस्ट बनी। मेरे प्रमोटेड साथियों की शहर में या आस पास ही पोस्टिंग हुई और दूर दराज इलाके में फेंका गया। मैं लेन देन का गणित नहीं समझ पाया मैं। आज मेरे बच्चे, मेट्रोस में खुद के घर में व्यवस्थित है। मैं पत्नी के साथ किराये के घर में,अपने छोटे शहर में।
बच्चों का मानना है उनके पिता ने समय की नब्ज नहीं पहचानी। मैं सोचता हूँ मैंने जीवन ईमानदारी और आत्मसम्मान के साथ बिताया है और अपनी नासमझी पर कोई अफसोस नहीं है मुझे।