Archana Saxena

Inspirational Others

4.8  

Archana Saxena

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समझौता

समझौता

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स्वरा अपनी भाभी सुजाता को बडे़ चाव से पसंद करके आयी थी। वैसे तो सारा परिवार गया था लड़की देखने। अगर कोई नहीं गया था तो वह थे उसके भइया सोम। आजके जमाने में यह बात थोड़ी अजीब हो सकती है पर लड़की वालों को जब बताया गया कि लड़का बहुत सीधा है और उसे अपने घरवालों की पसन्द पर पूरा भरोसा है तो वह तो उसके संस्कारों पर ही बलिहारी हो गये थे। वैसे भी लड़की वाले स्वयं लड़के को देख ही चुके थे। बड़ी कम्पनी में मैनेजर के पद पर आसीन, ऊँचा कद, गेहुँआ रंग, आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक सोम बातचीत में भी सौम्य था।ऐसे लड़के तो किस्मत से ही मिलते हैं। इनकार कौन कर सकता था भला? अब अगर सुजाता ने लड़का नहीं भी देखा तो भी क्या? अपने घरवालों पर तो उसे विश्वास होना ही चाहिए आखिर माता पिता से बढ़कर हितैषी कोई होता है क्या?

दबी जुबान से उसने इच्छा जाहिर की भी थी पर माँ ने जवाब में फोटो पकड़ा कर कहा कि लड़का शरमीला है कहीं वह लोग सुजाता को बेशर्म न समझ बैठें। सोम सचमुच हैंडसम लगा सुजाता को, और वह चुप रह गयी। वैसे सुजाता भी कोई कम तो थी नहीं। भले ही छोटे शहर की थी परन्तु अपने कॉलेज की मिस फ्रेशर रह चुकी थी। उसकी सुन्दरता और सुरुचिपूर्ण रहनसहन के पूरे शहर में चर्चे थे। बहुत से परिवार उसे अपने घर की बहू बनाने को उत्सुक थे।

 स्वरा आजकल के जमाने की लड़की थी ऊपर से घर की इकलौती बेटी, उसकी पसन्द को भाई की पसन्द का मापदंड मान लिया गया था। और स्वरा तो लट्टू हो गयी थी सुजाता पर। हर कोई बस यही कह रहा था कि जोड़ी खूब जमेगी। 

 दो माह में विवाह था। स्वरा अक्सर ही भाभी से किसी न किसी बात को लेकर फोन पर बात करती थी। वह अच्छी तरह समझ भी गयी थी कि उसकी होने वाली भाभी समझदार और हँसमुख है। एक दो बार सुजाता ने सोम से बात करने की इच्छा जताई तो स्वरा ने बात कराई भी, परन्तु 'हैलो! कैसी हैं आप?' जैसी औपचारिक बातों के अतिरिक्त कुछ बात न हो सकी। सुजाता अक्सर स्वयं से ही पूछती

'दिल्ली जैसे बड़े शहर में रहने वाला आधुनिक युग का युवक है या कोई पुरातनपंथी है यह सोम? व्यवहार से तो ऐसा ही लगता है'

सब लोगों के हिसाब से जोड़ी एकदम कमाल की थी जैसे एक दूजे के लिए ही बने हों दोनों, परन्तु सुजाता को सोम की इतना कम बोलने की आदत कभी कभी आदत न लग कर उसकी बेरुखी लगती और उसका मन आहत अनुभव करता। 

एक दिन रितिका भाभी के पूछने पर उसने अपने दिल की बात कह डाली। रितिका सोम से मिल चुकी थी और उसे वह भला इन्सान लगा था। उसने सुजाता का संशय दूर करने के लिये एक योजना बनाई। दिल्ली में रहने वाली उसकी चचेरी बहन का प्रसिद्ध बुटीक था। उसने सुजाता के लिये कुछ आधुनिक ड्रेस वहाँ से दिल्ली के फैशन के अनुरूप लेने का सुझाव दिया जो घर में सभी को पसन्द आ गया। दोनों ड्राइवर के साथ दो दिन के लिए दिल्ली गयीं। रितिका ने ही अपने आने की सूचना सोम को देकर पूर्व निर्धारित स्थान पर सुजाता से मिलने का कार्यक्रम बनवा कर ड्राइवर के साथ उसे भेज दिया। सुजाता को तो मुँह माँगी मुराद मिल गयी थी, वह बहुत खुश थी। सोम नियत समय से पहले ही वहाँ पहुँच गया और सुजाता के आने पर खड़े होकर हल्की मुस्कान से सुजाता का स्वागत किया। सुजाता को यह बात बहुत भायी, परन्तु जैसी कि उसे उम्मीद थी कि वह उसकी सुंदरता पर रीझ कर उसकी तारीफ के कसीदे पढ़ेगा वैसा कुछ नहीं हुआ।उसकी बातचीत भी बेहद सीमित शब्दों में थी। 

'ओह कितना अनरोमांटिक है। कोई बात नहीं एक बार शादी हो जाने दो बच्चू तुम्हें तो मैं राह पर ले आऊँगी' 

ऐसा मन में सोचकर सुजाता मुस्करा पड़ी पर सोम ने मुस्कराहट का कारण भी नहीं पूछा।इस एक बात को छोड़ दें तो सोम सुजाता को बहुत अच्छा लगा था। वह खुशी खुशी वापस लौट आई। रितिका भी खुश थी कि उसकी प्यारी ननद का संदेह दूर हो चुका था।

विवाह की मंगल बेला आयी सब कारज विधिवत सम्पन्न हुये और सुजाता ससुराल की दहलीज पर खड़ी थी। जहाँ उसकी चंचल सी प्यारी सी इकलौती ननद स्वरा गृहप्रवेश के रास्ते में आड़े आ गयी थी। उसे सोम से नेग में मोटी रकम चाहिए थी। सोम ने भी थोड़ी हँसी ठिठोली के बाद उसकी माँग पूरी कर दी। सुजाता ने पहली बार सोम को खुल कर हँसते हुए देखा और चैन की साँस ली 'ओह चलो हँसना तो आता है जनाब को'।

दिन भर अनेक रस्मों के साथ मुँह दिखाई की रस्म भी चलती रही। साँझ ढले स्वरा ने अपनी भाभी को बड़े प्यार से तैयार किया। सुजाता तो वैसे भी अप्रितम सुन्दरी थी।

 "आज तो भइया घायल ही हो जायेंगे भाभी! ध्यान रखना ज्यादा न सताना मेरे भाई को।"

स्वरा ने हँस कर कहा तो सुजाता शरमा गयी। अनगिनत ख्वाब आँखों में बसा कर वह सुहाग सेज पर बैठ कर प्रियतम की प्रतीक्षा कर रही थी।

सोम कमरे में आया तो रोमांच से दिल जोर जोर से धड़कने लगा उसका। पर यह क्या ? सोम पास आकर बोला

"विवाह की रस्में कितनी थकाने वाली होती हैं न? मैं तो सो रहा हूँ, तुम भी तो कल फेरों पर रात भर जगी थीं, कुछ आरामदायक सा पहन लो और सो जाओ।"

कह कर वह बिस्तर के किनारे पर करवट लेकर सोने का अभिनय करने लगा।सुजाता हैरान रह गई। यह कैसी सुहाग रात है? थका है पर कम से कम दो बोल प्यार के तो बोल ही सकता था। ये तो सुहाग सेज पर बैठी विवाहिता का सरासर अपमान है जो उसके लिये सोलह श्रृंगार किये बैठी है।

 क्रोध और अपमान से भर उसने न ही कपड़े बदले और न ही कुछ पूछा सोम से। दूसरे किनारे लेट कर चुपचाप आँसू बहाते हुये पता नहीं कब सो गयी वह।

दूसरे दिन नहा धोकर कमरे से निकली तो तैयार तो थी पर चेहरे पर उदासी की परत चढ़ चुकी थी। सोम उसके बाहर आने के बाद उठ कर आया था और पूरी तरह सहज लग रहा था। आज बहू के हाथों खाना बनाने की रस्म थी। मेहमान अधिकतर जा ही चुके थे। कुछ ही लोग शेष थे जिन्हें आज जाना था। सोम का छोटा भाई अंबर भी स्वरा की तरह ही चंचल स्वभाव का था और भाभी के साथ कल से ही हँसी मजाक कर रहा था। कल सुजाता भी उसकी बातों से आनंदित थी परन्तु आज तो गम्भीरता की चादर सी ओढ़ ली थी उसने। स्वरा और सुजाता की सास से उसकी यह उदासी छुप न सकी। पर मेहमानों की उपस्थिति में कुछ पूछना उचित नहीं था। सोम तो सबके सामने इतना सामान्य था कि सुजाता को लगने लगा कि कहीं वह सचमुच इतना थका तो नहीं था कि सहज भाव से सो गया? शायद वह इतना सीधा सरल है कि उसे नवविवाहिता से व्यवहार करना ही नहीं आया।

उसका विश्वास पुनः सोम पर कायम होता कि फिर रात्रि आ गयी। 

आज भी उसने कुछ वैसा ही करने का प्रयास किया तो सुजाता के सब्र का बाँध टूट गया और उसने सोम को झिंझोड़ दिया। सोम उठ कर बैठ गया और बोला"मुझे तुम्हारे लिए बुरा लग रहा है पर मुझे टाइम चाहिए।"

"कैसा टाइम?" बहुत मुश्किल से इतना कहा सुजाता ने।

"ये विवाह मेरी मर्जी के खिलाफ हुआ है। और मैं इतनी जल्दी उसे नहीं भुला सकता हूँ।" सीधे सपाट शब्दों में कह दिया सोम ने।

"तो किया क्यों? और अब बताने से क्या लाभ? मेरी जिन्दगी क्यों बरबाद कर दी?" सुजाता ने क्रोधित होकर पूछा।

"किसी से तो विवाह करना ही था, और कोई जिन्दगी बरबाद नहीं हुयी है तुम्हारी। तुम्हें इस घर की बहू होने का पूरा सम्मान मिलेगा। और कितना लाड़प्यार हासिल करोगी यह तुम्हारे व्यवहार पर भी निर्भर करेगा। रही मेरी बात तो मैं समय ही तो माँग रहा हूँ बस। मैंने कब कहा तुमसे पति पत्नी का रिश्ता नहीं रखूँगा।" इस बार सोम का स्वर कुछ ऊँचा था।

"ओह बड़ी मेहरबानी आपकी। कितने अहसान किये हैं आपने ये सब सुख मुझे देकर। यही बात अगर आप मुझे विवाह से पहले बता देते तो मेरी निगाहों में आपका सम्मान होता। विवाह तो मैं तब भी कर लेती और आपको पिछले रिश्ते से उबरने का समय भी खुशी से देती बल्कि खुद उसमें आपकी मदद करती। पर आप तो ऐसे जता रहे हैं कि आपने कुछ गलत किया ही नहीं है।" इस बार क्रोध कम और दुख अधिक था सुजाता के स्वर में।

"गलत मैंने नहीं मेरे पापा ने किया है। कितना समझाया था मैंने उन्हें, कितना मनाया पर उनकी एक ही जिद रही कि अपनी जाति में ही विवाह होगा।"

"तो कोर्ट मैरिज कर लेते। इतने ऊँचे ओहदे पर हो, कोई कमजोर तो नहीं थे आप?"

"हाँ वह भी कर लेता, पर श्रद्धा के पिता जब विवाह की बात करने आये तो मेरे पापा ने इतना अपमान किया उनका कि श्रद्धा ने मुझसे रिश्ते समाप्त कर जल्दी में किसी के साथ विवाह कर लिया।" सोम ने मजबूरी बताई।


उस रात तो वह सो ही नहीं सकी। उसके बाद वह और उदास हो गई थी। मम्मी जी,स्वरा और अंबर की समझ में सबकुछ आने लगा था परन्तु सुजाता से बात करने की हिम्मत वो नहीं जुटा पा रहे थे। हाँ सोम से बात करने का प्रयास उन्होंने अवश्य ही किया जिसके बदले उसने यही कहा 

"बहू आप लोगों को चाहिए थी। मैंने लाकर देदी। अब पत्नी बनाने में थोड़ा समय तो लगेगा।"

यह बात सुजाता के कानों में भी पड़ी तो वह और क्रोधित हुयी 'लाकर देदी क्या मतलब हुआ? मैं कोई बेजान वस्तु हूँ कि घर में चाहिए थी तो ले आये'।

पर उसने किसी से कुछ भी नहीं कहा। क्या कहती और किससे कहती? 

पापा भी सब देख रहे थे और सोम पर क्रोधित भी थे परन्तु सुजाता ने गौर किया कि दोनों के बीच बातचीत तक बंद थी। तीन दिन बाद सुजाता के पापा उसे लेने आये। शादी के बाद पहली बार मायके का पगफेरा था उसका। मम्मी जी ने उसे बड़े प्यार से गले लगा कर उसका सिर थपथपाया जैसे सांकेतिक भाषा में कह रही हों 'सब ठीक हो जायेगा बहू! बस इस घर की लाज अब तुम्हारे हाथ में है।'

स्वरा ने भी कस कर गले लगा कर कहा

"जल्दी आना भाभी! आपके बिना घर सूना हो जायेगा। पापा के चरणस्पर्श करे सुजाता ने तो उन्होंने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी। अंबर ने आगे बढ़ कर सुजाता के पाँव छुये। सुजाता के पापा तो बेटी का इतना लाड़प्यार और सम्मान देख कर अभिभूत हो गये थे। बस जिसे कुछ कहना चाहिए था उसने नजर भर कर पत्नी को देखा तक नहीं। पर सुजाता के पापा को तो यह उसके आँखों की शर्म और संस्कार ही लगने थे, उसकी छवि ही ऐसी थी।

सुजाता की विदाई के बाद उनके घर में एक तरह से युद्ध ही छिड़ गया।

मम्मी तो रो रोकर कह रही थीं इतनी सुन्दर बहू ढूँढ कर दी कि बेटा राह पर आ जायेगा। पर तूने तो उस बेचारी का मान तक नहीं रखा। पता नहीं क्या बतायेगी मायके में यहाँ के बारे में।"

"मुझे तो डर लग रहा है कि भाभी वापस आयेंगी भी या नहीं। सच कहूँ अगर मैं उनकी जगह होती न तो कभी नहीं आती।" स्वरा ने क्रोध मिश्रित चिन्तित स्वर में कहा। अंबर सोम से आयु में काफी छोटा था अतः चुप ही रहा।

पापा ने सोम को समझाने की चेष्टा की तो अब तक चुप सोम बोल पड़ा

"आप तो चुप ही रहिये पापा! इस सबके जिम्मेदार आप ही हो। आ तो गयी आपकी जाति की बहू। इसके आगे उम्मीद मत रखना मुझसे।" कहता हुआ वह अपने कमरे में चला गया।

पापा निढाल से कुर्सी पर पड़ गए। श्रद्धा से रिश्ते की बात जब उठी थी तो मम्मी,स्वरा व अंबर ने सोम का समर्थन किया था। यही वजह थी कि वह इन सबसे नाराज नहीं था। परन्तु पापा की वजह से रिश्ता नहीं हो सका तो पापा से उसने बात करना तक छोड़ दिया था।पर अब जो हुआ सो हुआ, श्रद्धा का तो वैसे भी विवाह अन्यत्र हो चुका है तो अब सुजाता के साथ इस तरह के व्यवहार को किसी सूरत में उचित नहीं ठहराया जा सकता था।


सुजाता ने मायके पहुँच कर सामान्य रहने का काफी प्रयास किया। उसके पापा ने जब उसके ससुराल वालों की तारीफों की झड़ी लगायी,वह शान्त रह कर फीकी सी हँसी हँस दी। जब तारीफ सोम की प्रारंभ हुयी तो सुजाता के चेहरे पर जो क्रोध उभरा वह उसकी भाभी रितिका से छुप न सका। वैसे तो माँ भी कहीं न कहीं समझ पा रही थी कि उसकी बेटी प्रसन्न नहीं है। अगले दिन जब घर के पुरुष काम पर चले गए तो रितिका ने सुजाता की उदासी का कारण पूछा। माँ भी वहीं आकर बैठ गयी थीं। पहले तो सुजाता ने टालने की कोशिश की पर अंततः सब बता दिया। उसके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। माँ को तो जैसे सदमा सा लगा। कुछ क्षण को मौन ही हो गयीं। रितिका ने प्रेम से उसके सिर पर हाथ फेर कर साँत्वना दी। कुछ क्षण के उपरांत जब वह शान्त हो गयी तो रितिका ने पूछा

"आगे क्या करने का सोचा है?"

"सोचने समझने की शक्ति ही नहीं बची है भाभी! बहुत उपेक्षित अनुभव किया स्वयं को। जी तो कर रहा है वापस ही न जाऊँ।"सुजाता के यह कहते ही माँ जैसे होश में आईं

"न न बेटा! इतने कठोर निर्णय बिना सोचे समझे नहीं लिए जाते। अच्छी बात यह है कि उस लड़की का विवाह हो चुका है। दामाद जी कब तक उसकी याद में जी पायेंगे? आना तो उन्हें तुम्हारे ही पास है।"

सुजाता को यह बात अच्छी नहीं लगी,परंतु उसके कुछ बोलने से पहले ही रितिका बोल पड़ी

"यह क्या बात हुयी? गलती सरासर सोम जी की है। एक तो पहले उन्होंने या परिवार के किसी भी अन्य सदस्य ने कुछ बताया नहीं, चलो इसको भी नजरअंदाज कर दिया जाये पर विवाह के बाद इस तरह की हरकत को सही कैसे ठहरा सकते हैं। अगर उन्होंने अपने पिता को गलत ठहराने को ही यह विवाह किया था तो भी हमारी सुजाता के मन को तो घाव दिये हैं न?"

"अब जो है सो है। इस बात को लेकर घर तो नहीं तोड़ा जा सकता? दामाद जी तो कभी न कभी सुधर ही जायेंगे लेकिन घर अगर टूटा तो बाद में कितनी ही तरह की और परेशानियाँ मुँह उठाये आयेंगी। दुनिया तो सदा औरत को ही दोष देती है।"

"लेकिन माँजी इसकी वजह से सुजाता के आत्मसम्मान को जो चोट पहुँची है उसका क्या?"

रितिका ने समझाना चाहा।

"नहीं रितिका! इतनी सी बात पर घर टूट जाये मुझे बिल्कुल उचित नहीं लगता। और फिर दामाद जी का व्यवहार तो सुजाता के प्रति खराब नहीं है, वक्त ही तो माँगा है उन्होंने? यदि वो भी नहीं दिया तो यह तो सोचो कि लोग क्या कहेंगे? अभी पिछले सप्ताह ही इतने धूमधाम से विवाह किया है। छोटे से कस्बे में रहते हैं हम। छोटी जगह में जंगल की आग की तरह बात फैल जाती है। सब सुजाता की ही गलती निकालेंगे। बेहतर होगा कि इस बात को यहीं समाप्त करो। घर के पुरुषों तक भी नहीं जानी चाहिये। तुम्हारे पापा सहन नहीं कर पायेंगे। वैसे भी अब वही सुजाता का घर है। उसका मान सम्मान बचाना इसका कत्तर्व्य है।" इतना कह कर वह तो वहाँ से उठ कर चली गयीं, साथ ही ये जतला गयीं कि अब इस घर पर सुजाता का हक नहीं रहा है। टूटे आत्मसम्मान के साथ भी सुजाता का कर्त्तव्य अपनी ससुराल का सम्मान बचाना ही है। लोग क्या कहेंगे जैसा सदा का ज्वलंत प्रश्न एक स्त्री के आत्मसम्मान पर हावी था।

रितिका ने कुछ कहने के लिये माँजी को आवाज़ लगानी चाही परन्तु सुजाता ने रोक दिया। वह समझ चुकी थी बेटी सचमुच पराया धन है, और अब वह परायी हो ही चुकी है तो जन्म देने वाली माँ भी उसको नहीं समझ सकती।

स्वरा और मम्मी जी रोज फोन करते थे सुजाता को। वह लोग स्वयं को उसका अपराधी समझते थे। सुजाता भी जानती थी कि इस घटनाक्रम में उनका कोई दोष कहीं है ही नहीं और फिर रहना भी उसी घर में है तो उनसे शिकायत करे भी तो क्या? हाँ यदि वो ही यह सत्य पहले बता देती तो अच्छा होता, परंतु उन्होंने सोचा नहीं होगा शायद कि सोम ऐसा व्यवहार करेगा।

एक सप्ताह रहकर सुजाता वापस लौट गयी। अंबर और स्वरा के साथ सोम भी आया था लेने। व्यवहार इतना सामान्य जैसे कि सब कुछ ठीक था।माँ को तो उसके इस व्यवहार से सुजाता का भविष्य सुरक्षित दिखा। रितिका ने अवश्य कहा कि कोई भी परेशानी हो तो वह साथ खड़ी है।


ससुराल वापस पहुँची सुजाता तो मम्मी जी ने गले लगा कर माथा चूम लिया। पापा जी ने भी प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिये। सबको बहुत तसल्ली सी मिली थी कि वह वापस आ गयी है और शायद उसने मायके में कुछ बताया भी नहीं है क्योंकि वहाँ पर किसी ने ऐसा कोई जिक्र नहीं किया था।बाहर से देखने में सब ठीक था, बस कुछ ठीक नहीं था तो वह था सुजाता का टूटा दिल। पहले की तरह हँसना खिलखिलाना भूल चुकी थी वह।

सोम का व्यवहार उसके प्रति कभी भी बुरा नहीं कहा जा सकता था, बस उसमें उपेक्षा का भाव विद्यमान था। एक दिन रितिका ने सुजाता को फोन पर समझाया कि हालात से समझौता उतना ही करो कि तुम्हें कोई परिस्थिति तोड़ न सके। जिसे तुम्हारी परवाह नहीं बस उसकी परवाह करना छोड़ना होगा। सुजाता ने भी ऐसा ही करने की ठान ली। उसने एक नौकरी ज्वाइन करली। उसे खुश देखने के लिये सभी ने इस फैसले का स्वागत किया। नतीजा यह हुआ कि धीरे धीरे सोम उपेक्षा का शिकार होने लगा। सबके मृदुल व्यवहार से वैसे भी धीरे धीरे सुजाता सामान्य होने लगी थी। सबका प्रेम उस पर ही बरसता था, सोम के व्यवहार को तो सब गलत ही मानते थे। 

एक दिन सोम ऑफिस के काम से आगरा जा रहा था। पता नहीं क्या आया दिमाग में कि सुजाता को ताजमहल दिखाने के लिये चलने को पूछ बैठा।सुजाता ने हैरानी से उसे देखा और बोली

"प्यार की निशानी ताजमहल को देखना तो जरूर चाहती हूँ मैं,परन्तु आपके साथ नहीं"

"फिर किसके साथ जाओगी?" सोम ने हैरानी से पूछा

"तो नहीं जाऊँगी। अगले जन्म तक प्रतीक्षा कर लूँगी। पर जो पति प्यार ही नहीं करता उसके साथ क्यों ऐसी जगह जाना?वैसे भी छुट्टी नहीं है मुझे।"

सोम को कोई जवाब नहीं सूझा और वह दो दिनों के लिए चला गया।

ऑफिस का काम समाप्त करके वह अकेला ही घूमने निकल पड़ा। ताजमहल देखने के बाद वहीं एक बेंच पर बैठ गया। इधर उधर बिखरी खूबसूरती निहार रहा था कि अचानक जानी पहचानी खिलखिलाहट कानों में पड़ी। चौंक कर उधर देखा श्रद्धा पति की बाँहों में बाँहें डाले रोमांटिक पोज देकर किसी फोटोग्राफर से फोटो खिंचवा रही थी। दोनों अपने में ही मस्त थे। कहीं और उनका ध्यान ही नहीं था। सोम को बड़ी खीझ हुयी। साल भर हो गया विवाह को और व्यवहार तो ऐसे कर रहे हैं जैसे हनीमून पर आये हों। वह श्रद्धा का ध्यान खींचने को स्वयं ही उठ कर चला गया उधर। उसे देखते ही श्रद्धा के चेहरे पर कड़वाहट आ गयी 

"ओह तुम यहाँ? अकेले हो? पत्नी कहाँ है? मैंने तो सुना था कि विवाह हो गया था तुम्हारा?"

एक साथ कई प्रश्न दाग दिये उसने।

उसका पति जो सोम को पहचानता नहीं था हँस कर बोला"शादी हो चुकी हो फिर यहाँ अकेले कौन आता है?"

"यह सोम हैं। यह कुछ भी कर सकते हैं।" श्रद्धा ने व्यंग से कहा

"ओह तो यह हैं सोम? चलो श्रद्धा मैं नहीं चाहता कि ये अपनी किसी बात से तुम्हें दुख पहुँचायें।" 

श्रद्धा का पति श्रद्धा को हाथ पकड़ कर वहाँ से ले गया। सोम तो देखता ही रह गया। जिसके लिये अपनी इतनी प्यारी और खूबसूरत पत्नी की इतनी उपेक्षा की वह उसको ही नीचा दिखा कर चली गई। काश कि सुजाता आ गयी होती उसके साथ तो श्रद्धा को दिखाता कि मेरी पत्नी लाखों में एक है।

आज सोम आहत अनुभव कर रहा था। पहली बार उसे सुजाता से मिलने की बेचैनी हो रही थी। काम खत्म करके वह आगरा से दिल्ली पहुँच गया। आज उसका दिल चाह रहा था कि सुजाता को बाँहों में भर कर क्षमा माँग ले। काम समाप्त करके जब सुजाता कमरे में आई तो आज पहली बार सोम ने उसे बाँहों में भर लिया, लेकिन यह क्या? सुजाता ने उसे जोर से परे धकेल दिया। उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि सुजाता ऐसा कुछ कर सकती है। उसने सुजाता से क्षमा माँगते हुये सारी बात बता दी। सुजाता का क्रोध कम होने के स्थान पर और बढ़ गया। उसने कहा

"ओह तो आज यह प्यार इसलिये उमड़ रहा है कि पहले प्यार ने तिरस्कार कर दिया आपका। यदि उसकी आँखों में आज भी प्यार होता तो तो आप हमेशा की तरह मुझे तिरस्कृत करते।"

"ऐसा नहीं है, उसके ऐसा करने से मुझे लगा कि जब वह अपनी जिन्दगी में आगे बढ़ गयी तो मैं क्यों नहीं बढ़ सकता?"

"वह तो तब ही आगे बढ़ गयी होगी जब उसने आपके विवाह से छः माह पहले विवाह कर लिया था। और अब हमारे विवाह को भी इतना ही समय हो गया है पर आप उसी रिश्ते को पकड़े बैठे रहे।"

"मान तो रहा हूँ कि गलती हुयी। अब आगे बढ़ने को तैयार हूँ न?"उसने सुजाता का हाथ थामते हुये कहा।

"लेकिन अब मैं तैयार नहीं हूँ। आप खुद को समझते क्या हो? जब आपका मन करेगा मेरी उपेक्षा करोगे, जब मन करेगा आगे बढ़ जाओगे? मैं कोई बेजान गुड़िया नहीं हूँ जो जैसे चाहो खेल लोगे। अब आपकी मेरी नजरों में वह अहमियत नहीं रही है जैसी एक पति की अपनी पत्नी के लिये होती है।"

"तो अब तक मेरे साथ रह क्यों रही हो?" सोम ने अविश्वास से पूछा

" अपने पैरों पर खड़े होने के बाद जाना तो चाहती थी, लेकिन किसी ने जाने नहीं दिया। घर के बाकी सदस्यों से भी रिश्ता जुड़ा है मेरा। उनकी खातिर नहीं गयी। और मायके ने तो विवाह के बाद मुझे पराया ही मान लिया तो वहाँ भी नहीं जाना चाहती थी।"

सुजाता ने उत्तर दिया।

सोम फिर से क्षमा माँगने लगा तो सुजाता का जवाब था कि उसे सब कुछ भूलने में समय लगेगा। यदि सोम यह समय दे सकता है तो ठीक है अन्यथा तलाक ले सकता है। इतने सीधे सपाट उत्तर से सोम सहम गया। अब वह किसी भी कीमत पर सुजाता को नहीं खोना चाहता था।

रितिका और स्वरा दोनों से सुजाता का सखियों का सा रिश्ता था। एक की वह ननद थी तो दूसरी उसकी ननद। उसने उन दोनों को इस घटनाक्रम के बारे में बताया तो रितिका ने तो उसकी प्रशंसा की ही साथ ही स्वरा ने भी सुजाता की पीठ थपथपाई। यद्यपि वह सोम की बहन थी परन्तु सही के साथ खड़ी थी। अब तो नजारा देखने वाला था, सोम सारा दिन सुजाता के आगे पीछे डोलता हुआ पाया जाता। हर बात पर उसकी प्रशंसा करता अब वह। धीरे धीरे सुजाता का गुस्सा पिघलने लगा था परन्तु वह ऊपर से कठोर बनी हुयी थी। दरअसल अब उसे सोम की हालत पर तरस तो आता था परन्तु मिन्नतें करवाने में आनंद भी मिलता था। जब गुस्सा पिघल ही चुका था तो प्यार कब तक नहीं उमड़ता। एक दिन सुजाता ने सोम को माफ कर ही दिया। 

धीरे धीरे उनके रिश्ते सामान्य हो गये। घर में सबने राहत की साँस ली। समय गुजरता गया। स्वरा विवाह करके अपने ससुराल चली गयी। सुजाता भी दो बच्चों की माँ बन चुकी थी और अब अंबर विवाह योग्य हो गया था। 

जब उसके लिये रिश्ते आने लगे तो उसने एकदिन साफ कह दिया कि उसे अपनी मनपसंद लड़की से ही विवाह करना है। इतिहास फिर अपनेआप को दोहराना चाहता था। मम्मी को तो सूझ ही नहीं रहा था कि क्या करें। सोम के विवाह का घटनाक्रम आँखों के आगे नाचने लगा। पापा अपनी उसी जिद पर कायम थे। सोम तटस्थ था। परन्तु सुजाता चुप नहीं रह सकी। उसने साफ साफ कह दिया कि अंबर के इस फैसले में वह पूरी तरह उसके साथ है। मम्मी को भी बल मिला। पापा सुजाता को बहुत मानते थे परन्तु इस बात पर सहमत नहीं थे, तब सुजाता ने कहा

"यदि अंबर विवाह अपने पसंद की लड़की से नहीं कर सकता तो उसे कभी विवाह करना ही नहीं चाहिए। हर बार विवाह विवाह न होकर समझौता क्यों बने?"

 "ये क्या कह रही हो सुजाता बहू? सोम ने भी मेरा फैसला माना था और आज वह खुश है। अंबर को भी मानना होगा, तभी भविष्य में वह खुश रह सकेगा।" पापा ने समझाया।

"बस पापा जी! यही तो आपकी भूल है। माता पिता को क्यों लगता है कि उनसे बेहतर निर्णय बेटे के लिये कोई नहीं ले सकता? जबकि सच यह है कि जीवन बेटे को गुजारना होता है। और उस लड़की के जीवन का क्या जो जबर्दस्ती की शादी में बरबाद होकर रह जाता है?"

"तुम कहना चाहती हो तुम्हारा जीवन बरबाद हो गया?"

इस बार वह तनिक क्रोध से बोले।

"हो ही गया था एक तरह से। जब पहली विदा में मायके गयी थी तो सोचकर गयी थी कि अब नहीं आऊँगी वापस। परन्तु वहाँ जाकर लगा कि यहीं रुक गई तो बोझ ही समझी जाऊँगी। अतः किस्मत से समझौता किया और वापस आकर नौकरी की। तब भी जाना चाहती थी पर आप सबके प्यार ने रोक लिया। उस दौरान मेरे आत्मसम्मान को जो रोज एक नयी चोट लगती थी उसका दर्द मैंने अकेले झेला है। वह तो मेरी किस्मत ठीक थी कि सोम राह पर आ गये, अन्यथा कभी न कभी रिश्ता टूट ही जाता। हमारा रिश्ता भले ही सुधर गया परन्तु तब जो फाँस दिल में चुभी थी वह आज भी टीस देती है। क्या आप चाहते हैं ये सब फिर इस घर में दोहराया जाये?"

सुजाता ने बात खत्म की पर पापा सोच में पड़ गये। धीरे से बोले"कह तो ठीक रही हो सुजाता बहू!" फिर वह अंबर की ओर मुड़े

"अंबर कल ही लड़की से मिलवाओ। उसके माँ बाप राजी हैं या नहीं? नहीं भी हैं तो मैं मनाऊँगा उन्हें।"

अचानक पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गयी।

  

  


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