Sudha Adesh

Tragedy

5.0  

Sudha Adesh

Tragedy

सजा किसे मिली ...?

सजा किसे मिली ...?

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अल्पना की आँखें खुलीं तो खुद को अस्पताल के बेड पर पाया। माँ फौरन उस के पास आ कर बोलीं, ‘‘कैसी है, बेटी ? इतनी बड़ी बात तूने हमसे छिपाई। मैं मानती हूँ कि अच्छी परवरिश न कर पाने के कारण तू अपने माता-पिता को दोषी मानती है पर हैं तो हम तेरे माता -पिता ही। तुझे दुखी देख कर भला हम खुश कैसे रह सकते हैं…?’’ ‘‘प्लीज, आप इन से ज्यादा बातें मत कीजिए…. इन्हें आराम की सख़्त जरूरत है।" उसी समय राउंड पर आई डाक्टर ने मरीज़ से बातें करते देख कर कहा तथा नर्स को कुछ जरूरी हिदायत देती हुई चली गई। अल्पना कुछ कह पाती उस से पहले ही नर्स आ गई तथा उस ने उस के मम्मी-पापा से कहा, ‘‘इन की क्लीनिंग करनी है, कृपया थोड़ी देर के लिए आप लोग बाहर चले जाएं।’’ नर्स साफ-सफाई कर रही थी पर अल्पना के मन में उथल पुथल मची हुई थी। वह समझ नहीं पा रही कि उस से कब और कहाँ गलती हुई…!! आज उसे लग रहा था कि माता-पिता को दुख पहुँचाने के लिए उनकी इच्छा के विरूद्ध काम करते-करते उसने खुद के जीवन को दाँव पर लगा दिया है। अतीत की घटनाओं के खौफनाक मंजर उस की आँखों के सामने से किताब के एक एक पन्ने की तरह आ- जा रहे थे...


वह एक संपन्न परिवार से थी। माता-पिता दोनों के नौकरी करने के कारण उसे उनका संग साथ जैसा वह चाहती थी, नहीं मिल पाया था। जब उसे माँ के हाथों का पालना चाहिए था, दादी की गोद में उस ने आँखें खोलीं, बोलना और चलना सीखा। वह डेढ़ साल की थी कि दादी का साया उसके ऊपर से उठ गया। अब उसे लेकर मम्मी-पापा में खींचतान चलने लगी। तब एक आया का प्रबंध किया गया। एक दिन ममा ने आया को दूध में पानी मिलाकर उसे पिलाते तथा बचा दूध स्वयं पीते देख लिया। उसकी ग़लती पर उसे डांटा तो उसने दूसरे दिन से आना ही बंद कर दिया…अब उस की समस्या उन के सामने फिर मुँह बाए खड़ी थी। दूसरी आया मिली तो वह पहली से भी ज्यादा तेज़ और चालाक निकली। उसे अकेला छोड़ कर वह अपने प्रेमी के साथ गप लड़ाती रहती…पता लगने पर ममा ने उसे भी निकाल दिया। वह 2 साल की थी, फिर भी उस के ज़हन में आज भी क्रेच की आया का बरताव अंकित है। उसके स्वयं खाना न खा पाने पर डांटना, झल्लाना, यहाँ तक कि मारना…पता नहीं और भी क्या क्या…!! दहशत इतनी थी कि जब भी माँ उसे क्रेच में छोड़ने के लिए जातीं, वह पहले से ही रोने लगती थी पर ममा को समय से आँफिस पहुँचना होता था अत: वह उसके रोने की परवाह न कर उसे आया को सौंप कर चली जाती थीं। जब वह पढ़ने लायक हुई तब स्कूल में उस का नाम लिखवा दिया गया। स्कूल की छुट्टी होती तो कभी ममा तो कभी पापा उसे स्कूल से लाकर घर छोड़ देते तथा उस से कहते कि उन के अलावा कोई भी आए तो दरवाज़ा मत खोलना और न ही बाहर निकलना। देखने के लिए दरवाज़े में आई पीस लगवा दिया था। एक दिन वह पड़ोस में रहने वाले सोनू की आवाज़ सुन कर बाहर चली गई तथा खेलने लगी। तभी ममा आ गईं। खुला घर तथा उसे बाहर खेलते देख वह क्रोधित हो गईं…दूसरे दिन से वह उसे बाहर से बंद कर के जाने लगीं। एक दिन उसे न जाने क्या सूझा कि घर की पूरी चीजें जो उस के दायरे में थीं, उसने नीचे फेंक दीं। उस दिन उस की खूब पिटाई हुई और मम्मी पापा में भी जम कर झगड़ा हुआ।


ममा की परेशानी देख कर सोनू की मम्मी ने स्कूल के बाद उसे अपने घर छोड़कर जाने के लिए कहा तो वह बहुत खुश हुई…साथ ही मम्मी पापा की समस्या भी हल हो गई। चार साल ऐसे ही निकल गए। पर तभी सोनू के पापा का तबादला हो गया। बड़ी होने के कारण अब उस के स्कूल का समय बढ़ गया था तथा अब वह पहले से भी ज्यादा समझदार हो गई थी। उसने अपनी स्थिति से समझौता कर लिया था। ममा के आदेशानुसार वह उनके या पापा के आँफिस से आने पर उनकी आवाज़ सुनकर ही दरवाज़ा खोलती, किसी अन्य की आवाज़ पर नहीं। एकांत की विभीषिका उसे तब भी परेशान करती पर जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई उसने स्थिति से समझौता कर लिया। अब उसे पढ़ाने और होम वर्क कराने को ले कर मम्मी-पापा में तकरार होने लगी। अभी वह 10 वर्ष की ही थी कि उसे बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया। मम्मी-पापा हर महीने उस से मिलने आते, उस के लिए अच्छी-अच्छी गिफ्ट लाते, पूरा दिन उस के साथ गुजारते पर शाम को उसे जब होस्टल छोड़ कर जाने लगते तो वह रो पड़ती थी। तब ममा आँखों में आँसू भर कर कहतीं, "बेटा, मजबूरी है, मैं जो कर रही हूं वह तेरे भविष्य के लिए ही तो कर रही हूँ।" वह उस समय समझ नहीं पाती थी कि यह कैसी मजबूरी है। सबके बच्चे अपने मम्मी-पापा के पास रहते हैं फिर वह क्यों नहीं…!! धीरे-धीरे वह अपनी हमउम्र साथियों के साथ घुलने मिलने लगी। धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि सबकी एक ही जैसी 

कहानी है…वहाँ अधिकांशत: बच्चों को इसलिए होस्टल में डाला गया था क्योंकि किसी की माँ नहीं थी तो किसी के घर का माहौल अच्छा नहीं था। किसी के माता-पिता उसके माता-पिता की तरह ही कामकाजी थे तो कोई अपने बच्चों के उन्नत भविष्य के लिए उन्हें वहाँ दाखिल करवा गए थे।


छुट्टी में घर जाती तो मम्मी-पापा की व्यस्तता देख उसे लगता था कि इस से तो वह होस्टल में ही अच्छी थी। कम से कम वहाँ बात करने वाला कोई तो रहता है। धीरे-धीरे उस के मन में विद्रोह पैदा होता गया। उसे मम्मी-पापा स्वार्थी लगने लगे जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए उसे पैदा तो कर दिया पर उस की जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहते हैं। आखिर एक बच्चे को अच्छे कपड़ों, अच्छे खिलौनों के साथ-साथ और भी तो कुछ चाहिए, यह साधारण सी बात वह क्यों नहीं समझ पा रहे हैं या जानते बूझते हुए भी समझना नहीं चाहते हैं। एक बार उस ने पूछ ही लिया, ‘मैं आप की ही बेटी हूँ या आप कहीं से मुझे उठा तो नहीं लाए हैं"’ उस की मनोस्थिति समझे बिना ही ममा भड़क कर बोलीं, "कैसी बातें कर रही है…कौन तेरे मन में जहर घोल रहा है?" मम्मा आशंकित मन से पापा की ओर देखने लगीं। पापा भी चुप कहाँ रहने वाले थे। बोल उठे, "शक क्यों नहीं करेगी। कभी प्यार के दो बोल बोले हैं। कभी उस के पास बैठ कर उस की समस्याएं जानने की कोशिश की है…तुम्हें तो बस, हर समय काम ही काम सूझता रहता है।" "तो तुम क्यों नहीं उस से समस्याएं पूछते…तुम भी तो उस के पिता हो। क्या बच्चे को पालने की सारी जिम्मेदारी माँ को ही निभानी पड़ती है।"


दोनों में तकरार इतनी बढ़ी कि उस दिन घर में खाना ही नहीं बना। ममा गुस्से में चली गईं। लगभग 10 बजे पापा हाथ में दूध तथा ब्रैड लेकर आए और आग्रह पूर्वक उसे खाने के लिए कहने लगे पर उसे भूख कहाँ थी। मन की बात जबान पर आ ही गई, "पापा, अगर किसी को मेरी आवश्यकता नहीं थी तो मुझे इस दुनिया में लेकर ही क्यों आए? मेरी वजह से आप और ममा में झगड़ा होता है…मुझे कल ही होस्टल छोड़ दीजिए, मेरा यहां मन नहीं लगता।"

पापा ने प्यार से उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "ऐसा नहीं कहते बेटा, यह तेरा घर है।" "घर, कैसा घर, पापा…मैं पूरे दिन अकेली रहती हूँ। आप और ममा आते भी हैं तो सिर्फ अपनी-अपनी समस्याएं लेकर, मेरे लिए आप दोनों के पास समय ही नहीं है।" पापा उदास मन से आँफिस चले गए थे पर उस दिन उसे अपने मन में बार-बार उमड़ती बात कहने पर बहुत संतोष मिला था…। 


इस अकेलेपन के बावजूद उस के पास कुछ खुश नुमा पल थे…गरमियों की छुट्टियों में जब वे 15 दिन किसी हिल स्टेशन पर घूमने जाते। उस के जन्मदिन पर उस की मनपसंद ड्रेस के साथ उस को उपहार भी खरीदवाया जाता। यहाँ तक कि होस्टल में वार्डन से इजाज़त लेकर उसके जन्मदिन पर एक छोटी सी पार्टी आयोजित की जाती तथा उस के सभी दोस्तों को गिफ्ट भी दी जाती। इस सबके बावजूद जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई अपनों के प्यार से तरसते मन में विद्रोह का अंकुर पनपने लगा…। यही कारण था कि पहले जहाँ वह चुप रहा करती थी, अब अपने मन की भड़ास निकालने लगी थी तथा उनकी इच्छा के खिलाफ काम करने लगी थी। ऐसा कर के वह न केवल सहज हो जाया करती थी वरन मम्मी-पापा के लटके चेहरे देख कर उसे असीम आनंद मिलने लगा था । जाने क्यों उसे लगने लगा था, जब इन्हें ही मेरी परवाह नहीं है तो मैं ही इन की परवाह क्यों करूँ?


इसी मनोस्थिति के चलते एक बार वह छुट्टियों में अपने घर न आ कर अपनी मित्र स्नेहा के घर चली गई। वहाँ उसकी मम्मी के प्यार और अपनत्व ने उस के सूने मन में उत्साह का संचार कर दिया…। वहीं उस ने जाना कि घर ऊँची-ऊँची दीवारों से नहीं, उस में रहने वाले लोगों के प्यार और विश्वास से बनता है। उसका घर तो इन के घर से भी बड़ा था, सुख सुविधाएँ भी ज्यादा थीं पर नहीं थे तो प्यार के दो मीठे बोल, एक दूसरे के लिए समय…प्यार और विश्वास का सुरक्षित कवच…। वास्तव में प्यार से बनाए माँ के हाथ के खाने का स्वाद कैसा होता है, उस ने वहीं जाना। स्नेहा की माँ को स्नेहा की एक-एक फरमाइश पूरी करते देख, एक बार उसने पूछा था, "आंटी, आप ने स्नेहा को खुद से दूर क्यों किया?"

उन्होंने तब सहज उत्तर दिया था, "बेटा, यहाँ कोई अच्छा स्कूल नहीं है…स्नेहा के भविष्य के लिए हमें यह निर्णय करना पड़ा । स्नेहा इस बात को जानती है अत: इस ने इसे सहजता से लिया।"


घर न आने के लिए माँ का फोन आने पर उसने रूखे स्वर में उत्तर दिया, ‘मैं नहीं आऊँगी। आप और पापा ही घूम आओ…मैं नहीं जाऊँगी क्योंकि लौटकर आने के बाद तो आप और पापा फिर नौकरी पर जाने लगोगे और मुझे अकेले ही घर में रहना पडे़गा। मैं यहाँ स्नेहा के पास ही अच्छी हूँ, कम से कम यहाँ मुझे घर होने का एहसास तो हो रहा है।" अल्पना का ऐसा व्यवहार देख कर स्नेहा की माँ ने अवसर पाकर उसे समझाते हुए कहा, "बेटा, तुम मेरी बेटी जैसी हो, मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाना…। एक बात मैं तुम से कहना चाहती हूँ, अपने माता-पिता को तुम कभी गलत मत समझना…शायद उन की भी कोई मजबूरी रही होगी जिसे तुम समझ नहीं पा रही हो। "

"आंटी, अपने बच्चे की परवरिश से ज्यादा एक माता-पिता के लिए और भी कुछ जरूरी है?"

"बेटा, सब की प्राथमिकताएं अलगअलग होती हैं…कोई घर परिवार के लिए सब कुछ त्याग देता है तो कोई अपने कैरियर को भी जीवन का ध्येय मानते हुए घर परिवार को सहेजना चाहता है। तुम्हारी माँ कैरियर वुमन हैं। उन्हें अपने कैरियर से प्यार है पर इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि वह तुम से प्यार नहीं करतीं। मैं जानती हूँ कि वह तुम्हें ज्यादा समय नहीं दे पातीं पर क्या उन्होंने तुम्हें किसी बात की कमी होने दी?’ स्नेहा की मम्मी की बात मान कर अल्पना घर आई तो माँ उसे अपने सीने से लगा कर रो पड़ीं। पापा का भी यही हाल था। हफ्ते भर माँ छुट्टी लेकर उस के पास ही रहीं…उस से पूछ-पूछ कर खाना बनाती और खिलाती रहीं।

तब अचानक उस का सारा क्रोध आँखों के रास्ते बह निकला था। तब उसे एहसास हुआ था कि माँ की बराबरी कोई नहीं कर सकता…पर जैसे ही उन्होंने आँफिस जाना शुरू किया, घर का सूनापन उस के दिलो-दिमाग पर फिर से हावी होता गया। अभी छुट्टी के 15 दिन बाकी थे पर लग रहा था जैसे उसे आए हुए वर्षों हो गए हैं। शाम को मम्मी-पापा के आने पर उन के पास बैठकर वह ढेरों बातें करना चाहती थी पर कभी फोन की घंटी बज उठती तो कभी कोई आ जाता…। कभी मम्मी-पापा ही उस की उपस्थिति से बेखबर किसी बात पर झल्ला उठते जिस से घर का माहौल तनावपूर्ण हो उठता। यह सब देख कर मन में विद्रोह फिर पनपने लगा।

वह होस्टल जाने लगी तो ममा ने उस के लिए के नई ड्रेस खरीदवाने के साथ जरूरत का अन्य सामान खरीदवाया। यहाँ तक कि उसकी पसंद की खाने की कई तरह की चीजें ख़रीद कर रखीं। फिर भी न जाने क्यों इन चीजों में उसे माँ का प्यार नजर नहीं आया। उसने सोच लिया जब उन्हें उस से प्यार ही नहीं है, तो वही उन की परवाह क्यों करे?

अब फोन आने पर वह ममा से ढंग से बातें नहीं करना चाहती थी…। वह कुछ पूछतीं तो बस, हाँ या हूँ में उत्तर देती। उस का रुख देख कर एक बार उस की ममा उससे मिलने भी आईं तो भी पता नहीं क्यों उनका उनसे बात करने का मन ही नहीं किया…। मानो वह अपने मन के बंद दरवाज़े से बाहर निकलना ही नहीं चाह रही हो । धीरे-धीरे छुट्टियाँ आ गई। उसने अपनी वार्डन से होस्टल में ही रहने का आग्रह किया। पहले तो वह मानी नहीं पर जब उस ने उन्हें अपनी व्यथा बताई तो उन्होंने उसके मम्मी-पापा को सूचना देकर रहने की इजाज़त दे दी। उसका यह रुख देख कर मम्मी-पापा ने आकर उसे समझाना चाहा तो उस ने साफ शब्दों में कह दिया, "घर से तो मुझे यहीं अच्छा लगता है…कम से कम यहाँ मुझे अपनापन तो मिलता है…। मैं यहीं रह कर कोचिंग करना चाहती हूँ।"

बुझे मन से वे दोनों वार्डन को उस का खयाल रखने के लिए कहकर लौट गए।


कुछ दिन तो वह होस्टल में रही किंतु सूना होस्टल उसके मन के सूनेपन को और बढ़ाने लगा। अब उसे किसी से मिलना भी अच्छा नहीं लगता था क्योंकि वह जिस से भी मिलती वही उस के घर के बारे में पूछता और वह अपने घर के बारे में किसी को क्या बताती? अब न उसका पढ़ने में मन लगता और न ही किसी अन्य काम में। यहाँ तक कि वह क्लास भी मिस करने लगी…।नतीजा यह हुआ कि वह फर्स्ट टर्म में फेल हो गई । अल्पना की यह दशा देख कर एक दिन मिस सुजाता ने उसे बुलाकर कहा…

"बेटा, तुम्हें देख कर मुझे अपना बचपन याद आता है। यही अकेलापन, यही सूनापन…मैं ने भी सब कुछ भोगा है…। अपने माता-पिता के मरने के बाद चाचा -चाची के ताने, चचेरे भाई-बहनों की नफरत…सब झेली है मैं ने पर मैं कभी जीवन से निराश नहीं हुई। बल्कि जितनी भी मन में चोटें पड़ती गईं, उतनी ही विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का साहस मन में पैदा होता गया। जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद कठिन…। पर तुम ने तो आसान राह ढूँढ ली है…। न जाने तुम ने यह कैसी ग्रंथि पाल ली है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें प्यार नहीं करते हैं। हो सकता है उन की कुछ मजबूरी रही हो जिसे तुम अभी समझ नहीं पा रही हो। तुम्हारे माता-पिता तो हैं पर जरा उन बच्चों के बारे में सोचो जो अनाथ हैं, बेसहारा हैं या दूसरों की दया पर पल रहे हैं…फिर ऐसा कर के तुम किसे कष्ट दे रही हो, अपने माता-पिता को या खुद को। जीवन तो तुम्हारा ही बर्बाद होगा। जीवन बहुत बहुमूल्य है बेटा, इसे व्यर्थ न होने दो।"

दूसरों की तरह वार्डन का समझाना भी उसे बेहद नागवार गुजरा था। किन्तु फिर भी उनकी एक बात उस के दिमाग में रह-रह कर गूँज रही थी…जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, पर कुछ सार्थक करना बेहद कठिन। उस ने सोच लिया था कि अब से वह दूसरों के बारे में न कुछ कहेगी और न ही कुछ सोचेगी…जीएगी तो सिर्फ अपने लिए…आखिर जिंदगी उस की है।


सब तरफ से ध्यान हटा कर उस ने पढ़ने में मन लगा लिया। पहले जहाँ वह ऐसे ही पास होती रही थी अब मेरिट में आने लगी। सभी उस में परिवर्तन देखकर चकित थे। हायर सेकेंड्री में उस ने अपने स्कूल में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली आई। कंप्यूटर साइंस में बी.एससी. करने के बाद वहीं से एम.एससी. करने लगी पर तब भी वह अपने घर नहीं गई। इस दौरान उस के माता-पिता ही मिलने आते रहे पर वह निर्विकार ही रही। एक बार उस की माँ ने कहा, "बेटा, 1-2 अच्छे लड़के मेरी निगाह में हैं, अगर तू देख कर पसंद कर ले तो हमारी एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी। "

"किस जिम्मेदारी की बात कर रही हैं आप? अब तक आप ने कौन सी जिम्मेदारी निभाई है? जब बच्चे को माँ का आंचल चाहिए तब आप ने मुझे क्रेच में डाल दिया, जब एक बेटी को माँ के प्यार और अपनेपन की जरूरत थी तब होस्टल में डाल दिया…यह भी नहीं सोचा कि आप की मासूम बेटी अपने नन्हे-नन्हे हाथों से खाना कैसे खाती होगी, कैसे स्कूल के लिए तैयार होती होगी…?

"आप को मुझ से नहीं, अपने कैरियर से ही प्यार था। बार-बार आप क्यों आकर मेरे दंश को और गहरा कर देती हैं? मैंने तो मान लिया कि मेरा कोई नहीं है…आप भी यही मान लीजिए। जहाँ तक विवाह का प्रश्न है, मुझे विवाह के नाम से नफरत है। ऐसे बंधन से क्या लाभ जिस में 2 इनसान जकड़े तो रहें पर प्यार का नामोनिशान ही न हो। दैहिक सुख से उत्पन्न संतान के प्रति जिम्मेदारी का एहसास तक न हो।"


पत्थर बनी वह माँ को जाते हुए देखती रही। उनकी आँखों से निकलते आँसू उसे सुकून दे रहे थे। मानो उस में दिल नाम की चीज ही नहीं रह गई थी। तभी तो उन्हें देखते ही न जाने उसे क्या हो जाता था कि वह जहर उगलने लगती थी। पर यह भी सच है कि उन के जाने के बाद वह घंटों अपने ही अंतर्कवच में कैद बैठी रह जाती थी ।एक ऐसे ही क्षण जब वह अपने कमरे में अकेली बैठी थी तब राहुल ने अंदर आते हुए उस से कहा, "अंधेरे में क्यों बैठी हो, अल्पना…याद नहीं है प्रोजेक्ट के लिए डाटा कलेक्ट करने जाना है"

"बस, एक मिनट रुको…ड्रेस चेंज कर लूँ।" अंतर्कवच से बाहर निकल कर उस ने कहा था।

राहुल उस का क्लासमेट था। पढ़ाई में जब-तब उस की मदद किया करता था। प्रोजेक्ट भी उन्हें एक ही मिला था अत: साथ-साथ आने जाने के कारण उन में मित्रता हो गई थी।

एक दिन वे प्रोजेक्ट कर के लौट रहे थे, राहुल को परेशान देखकर उस ने परेशानी का कारण पूछा तो राहुल ने कहा, "मेरा मकान मालिक घर खाली करने को कह रहा है, समझ में नहीं आता कि क्या करूँ, कहां जाऊँ? 1-2 जगह पता किया तो किराया बहुत माँगते हैं और उतना दे पाने की मेरी हैसियत नहीं है।"

"तुम मेरा रूम शेयर कर लो ।हम दोनों साथ पढ़ते हैं, साथ-साथ जाते हैं…एक जगह रहने से सुविधा हो जाएगी।"

"पर…."

"पर क्या? मैं किसी की परवाह नहीं करती…जो मुझे अच्छा लगता है वही करती हूँ ।"


दूसरे दिन ही राहुल शिफ्ट हो गया था। उसकी मित्र बीना ने उस के इस फैसले पर विरोध करते हुए उसे चेतावनी भी दी थी पर उस का यही कहना था कि उसे किसी की परवाह नहीं है। उस की जिंदगी है, जैसे चाहे जीए, किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है।

बीना ने यह सब कुछ अल्पना की माँ को बता दिया तो वह उसे समझाने आईं। फिर भी वह अपनी ज़िद पर अड़ी रही तो माँ ने पैसा न भेजने का निर्णय सुना दिया। इस पर उस ने भी क्रोध में कह दिया था, "आज तक आप ने दिया ही क्या है…सिर्फ पैसा ही न, अगर वह भी नहीं देना चाहतीं तो मत दीजिए, मुझे उस की भी कोई परवाह नहीं है।" माँ रोते हुए और पापा क्रोधित हो कर चले गए थे। उस दिन उसे बेहद सुकून मिला था। पता नहीं क्यों जब-जब वह माँ को रोते हुए देखती, उसे लगता जैसे उस के दुखते घावों में किसी ने मरहम लगा दिया हो।


उसी दिन न जाने उसे क्या हुआ कि उस ने राहुल के सामने समर्पण कर दिया। राहुल ने आना कानी भी की तो वह बोली, "जब मुझे कोई परेशानी नहीं है तो तुम्हें क्यों है? फिर मैं विवाह के लिए तो कह नहीं रही हूँ, हम जब चाहेंगे अलग हो जाएंगे।" पढ़ाई पूरी होते ही उन की नौकरी लग गई, किंतु एक ही शहर में होने के कारण उन का संबंध कायम रहा ।

पूरी सावधानी बरतने के बावजूद एक दिन अल्पना को लगा जैसे उस के शरीर में कुछ ऐसा हो रहा है जो वह पहली बार महसूस कर रही है। वह राहुल को इस बारे में बताना चाहती ही थी कि उस ने कहा, ‘अल्पना, माँ-पिताजी विवाह के लिए ज़ोर डाल रहे हैं, अब मुझे दूसरा घर ढूँढना होगा।"

राहुल की बात सुन कर अल्पना चौक गई और बोली, "तुम ऐसा कैसे कर सकते हो ? मुझे ऐसी हालत में छोड़ कर तुम कैसे जा सकते हो?"

"कैसी हालत?" राहुल ने पूछा।

"मैं तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ।'’

"यह तुम्हारी प्रोब्लम है, इस में मैं क्या कर सकता हूँ ?"

"सहयोगी तो तुम भी रहे हो"

"वह तो तुम्हारी वजह से…तुम्हीं ने कहा था कि जब मुझे एतराज नहीं है तो तुम्हें क्यों है…अब तुम भुगतो?"

"ऐसा तुम कैसे कह सकते हो…? तुम तो मेरे मित्र, हमदर्द रहे हो"

"देखो अल्पना, पिताजी मेरा विवाह तय कर चुके हैं और उन्हें मना करना मेरे लिए संभव नहीं है। फिर मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूँ जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो और विवाह से पहले ही अपना शरीर किसी को दे देने में उसे कुछ आपत्तिजनक नहीं लगता हो।'’


"परंपराओं की दुहाई मत दो, राहुल। तुम भी विवाह से पहले संबंध बना चुके हो। क्या तुम उस लड़की के साथ अन्याय नहीं करोगे जिस के साथ तुम विवाह कर रहे हो?"

"मेरी बात और है। मैं पुरुष हूं… फिर तुम्हारे पास प्रमाण क्या है?"

प्रमाण की बात सुनते ही अल्पना गुस्से से थरथराती हुई राहुल को मारने के लिए झपटी। वह तेजी से हटा तो सामने रखी टेबल से अल्पना टकरा कर ज़मीन पर गिर गई।असहनीय दर्द से पेट पकड़ कर वह वहीं बैठ गई।

राहुल ने उसे उठाना चाहा तो उस ने चिल्ला कर कहा, "मुझे छूना मत…तुम ने मुझे धोखा दिया है…तुम मेरी जिंदगी में न कभी थे, न हो और न ही रहोगे…चले जाओ मेरे घर से। "


राहुल अपना सामान समेट कर चला गया…। पूरी रात वह रोती रही। पेट दर्द सहा नहीं गया तो उठ कर उस ने पेन किलर खा लिया। अल्पना को बार-बार यही लगता रहा कि क्यों उसे किसी का प्यार और विश्वास नहीं मिलता। पहले माता-पिता और अब राहुल…खैर सुबह तक पेट दर्द तो ठीक हो गया था पर मन अभी भी ठीक नहीं हुआ था। क्या करे इस बच्चे का…माना कि यह बच्चा उसकी जिंदगी में जबरदस्ती आ गया है पर है तो उस का अपना अंश ही न, वह अकेली कैसे इस बच्चे की परवरिश कर पाएगी…? क्या अपने बच्चे को वह प्यार दुलार और अपनत्व दे पाएगी जिस के लिए वह अपने माता पिता को दोष देती रही थी ?


मन में अजीब सी कशमकश चल रही थी। अपने कैरियर के लिए जहां वह बच्चे का बलिदान देना चाहती थी वहीं उस के प्रति स्नेह भी जागने लगा था। वह जानती थी कि बिना विवाह के माँ बनना समाज सह नहीं पाएगा। उस के माता-पिता सुनेंगे तो जीते जी ही मर जाएंगे। आज न जाने क्यों माँ के शब्द उस के कानों में गूंज रहे थे, जो उन्होंने उसे राहुल के साथ रहते देख कहे थे, "बेटा, माना कि मैं तुझे उतना प्यार, दुलार नहीं दे पाई जिस की तू आकांक्षी थी, मैं अपराधिनी हूं तेरी…पर मेरे किए की सजा तू खुद को तो न दे। आज भी हमारा समाज विवाह पूर्व संबंधों को मान्यता नहीं देता है। ऐसे संबंध अवैध ही कहलाएंगे। "

उस समय तो वह सिर्फ वही करना चाहती थी जिस से उस के माता पिता को चोट पहुंचे। राहुल, जिस पर उस ने विश्वास किया उस से ऐसी उम्मीद नहीं थी। बार- बार राहुल के शब्द उस के दिलो दिमाग में गूंज कर उस के अस्तित्व को नकारने लगते कि मैं तुम्हारी जैसी लड़की के साथ संबंध कैसे बना सकता हूँ जो विवाह जैसी संस्था में विश्वास ही न करती हो। कभी मन करता कि आत्महत्या कर ले पर तभी मन उसे धिक्कारने लगता…उसे अपनी वार्डन के शब्द याद आते कि जीवन से भागना बेहद आसान है बेटा, लेकिन कुछ सार्थक करना बेहद ही कठिन, पर तुम ने तो आसान राह ढूँढ ली है ।

वह कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी, आँफिस में छुट्टी की अर्जी भिजवा दी थी। कशमकश इतनी ज्यादा थी कि उस का न बाहर निकलने का मन कर रहा था और न ही किसी से मिलने का, पेट में दर्द उठता पर वह डाक्टर को दिखाने के बजाय दर्दनाशक दवा खा कर दबाने की कोशिश करती रहती।

एक दिन जब वह ऐसे ही दर्द से तड़प रही थी तभी बीना मिलने आ पहुँची । उस की ऐसी दशा देख कर वह अचंभित रह गई तथा उसे जबरन अपनी गाड़ी में बिठा कर डाक्टर के पास ले गई।


डाक्टर ने उसे चेकअप करवाने के लिए कहा ।

सोनोग्राफी की रिपोर्ट देख कर डाक्टर उस पर बहुत गुस्सा हुई तथा बोली, "तुम ने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम गर्भवती हो।"

उसको कोई उत्तर न देते देख वह फिर बोली, "तुम लड़कियों की यही तो समस्या है…जरा भी सावधानी नहीं बरततीं…। क्या पेट में तुम्हें कोई चोट लगी थी…अपने पति को बुलवा लो, क्योंकि तुम्हारा शीघ्र आपरेशन करना पड़ेगा। लगता है किसी चोट के कारण तुम्हारा बच्चा मर गया है और उसी के इन्फेक्शन से पेट में दर्द हो रहा है।"

डाक्टर की बात सुनकर वह दोनों चौक गईं। बीना ने बात बनाते हुए कहा, "डाक्टर, आपरेशन कब करना पडे़गा, दरअसल इन के पति कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं, उन का इतनी जल्दी आना संभव नहीं है।"

"आपरेशन अभी, तुरंत ही करना पड़ेगा, कोई तो रिश्तेदार होंगे…उन्हें जल्द बुलवा लो…। हम इन्हें एडमिट कर सारी प्रक्रियाएं प्रारम्भ कर देते हैं।"

बीना ने अल्पना को देखा फिर डाक्टर की ओर मुखातिब होती हुई बोली, "डाक्टर, मैं ही इन की जिम्मेदारी लेती हूँ क्योंकि इन का कोई भी रिश्तेदार इतनी जल्दी नहीं आ सकता।"


अल्पना के मना करने पर भी बीना ने उस के माता-पिता को फोन कर दिया था। उन्होंने तुरंत आने की बात कही। उन के आने से पहले ही वह आपरेशन थिएटर में जा चुकी थी। बेहोशी की हालत में भी डाक्टर के शब्द उस के कानों में पड़ ही गए... "इस के यूट्रस में इन्फेक्शन इतना फैल गया है कि अगर निकाला नहीं गया तो जान जाने का ख़तरा है अतः बाहर जा कर इन के रिश्तेदारों से इजाज़त ले लो। "

उस के बाद क्या हुआ पता नहीं। सुबह जब आँख खुली तो मम्मी-पापा को अपने पास बैठा पाया। उनको देखते ही उसकी नफरत फिर से भड़क उठी थी। अगर उसे उन का प्यार और अपनत्व मिलता तो उस के साथ ऐसे हादसे ही क्यों होते? अगर उस समय नर्स नहीं आती तो वह पता नहीं क्या-क्या कह बैठती।

‘‘बेटा, कुछ खा ले वरना ताकत कैसे आएगी?’’ आवाज़ सुनते ही अल्पना अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गई। नर्स पता नहीं कब चली गई थी। माँ हाथ में फलों की प्लेट लिए खाने का इसरार कर रही थीं तथा उन के पास ही बैठे पापा आशा भरी नजरों से उसे देख रहे थे। उसने बिना कुछ कहे ही मुँह फेर लिया क्योंकि वह जानती थी कि माँ की आँखों से आँसू बह रहे होंगे पर वह अपने दिल के हाथों विवश थी ।

बार-बार एक ही विचार उस के मन में आ रहा था कि माना माता-पिता उसकी उचित परवरिश न कर पाने के लिए दोषी थे पर हर सुविधा मिलने के बावजूद उस ने भी कौन सा अच्छा काम किया। दूसरों को दोष देना तो बहुत आसान है पर जिंदगी बनाना बिगाड़ना तो इनसान के अपने हाथ में है ।

अल्पना समझ नहीं पा रही थी कि कुदरत ने औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है कि एक छोटा सा आँधी का झोंका उस के सारे वजूद को हिला कर रख देता है। सब से ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि हादसे में उस के गर्भाशय को निकाल देना पड़ा…अपूर्ण औरत बन कर वह कैसे जीएगी?


माँ ने तो अपने कैरियर के लिए उस की तरफ ध्यान नहीं दिया पर उस ने तो उन्हें दुख देने के लिए ही यह सब किया…उस का तो यही हश्र होना था। पर वह अभी भी नहीं समझ पा रही थी कि सजा किसे मिली? 



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