सिपाही

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जगतपाल बहुत उद्विग्न था। आज उसने ठीक से खाया भी नहीं था। वह अपनी खाट पर लेटा अपने खयालों में डूबा था।

कैसा समाज है ? बदलाव से इतना डरता है। क्या हर बदलाव बुरा है ? इतने सालों के इतिहास में ना जाने कितना बदला है। बदलाव तो प्रकृति का नियम है। पर जब भी कुछ बदला है तो पहले समाज में विरोध ज़रूर होता है। 

समाज इस मामले में अजगर की तरह होता है। जिस करवट लेट गया उसे ही सही मानता है। फिर कोई ज़रा भी इधर उधर करने का प्रयास करे तो बुरा लगता है। इसकी करवट बदलने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। बहुत कुछ सहना पड़ता है।


"दूध पी लो। तुमने तो ठीक से खाना भी नहीं खाया।"

जगतपाल आवाज़ सुन कर अपने खयालों से बाहर आया। पत्नी सरिता हाथ में दूध का गिलास लिए खड़ी थी। वह उठा और दूध का गिलास पकड़ लिया।

सरिता पास बैठ कर बोली।

"तुम परेशान ना हो। कोई बात नहीं। इत्ते साल तो ऐसे रह ली। आगे भी रह लूँगी।"

जगतपाल ने अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखा।

"नदिया सो गई ?"

"हाँ उसे सुला कर ही आई हूँ।"

"एक बात बता सरिता....तू कहती है कि जहाँ इत्ते साल रही वहाँ बाकी की जिंदगी भी गुजार देगी।"

"हाँ गुजार लूँगी। बस तुम परेशान ना हो।"

जगतपाल ने गुनगुने दूध के दो चार घूंट भरे। 

"तू क्या चाहती है कि नदिया भी तेरी तरह मन मार कर जिंदगी गुजार दे।"

"ना जी...वो क्यों मन मारेगी ?"

"क्यों ? जो लोग इतनी पीढ़ियों से नहीं बदले तुझे लगता है कि कुछ सालों में बदल जाएंगे। इतने कि नदिया को तेरी तरह मन ना मारना पड़े।"

सरिता चुप हो गई। वह भी जानती थी कि जगतपाल सही कह रहा है।

"तू सपना देखती है कि नदिया को खूब पढ़ाएगी। पर सिर्फ सोचने से तो सपने पूरे नहीं होते। हाथ पाँव मारने पड़ते हैं।"

सरिता अक्सर कहती थी कि मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। पर अधिक पढ़ ना सकी। पर जब नदिया पैदा हुई तो उसने जगतपाल से कहा कि हम इसे खूब पढ़ाएंगे। पर अभी जगतपाल ने जो कहा उसे सुन कर वह परेशान हो गई। सचमुच उसकी नानी हो, उसकी माँ हो या वह खुद समाज तो वैसा ही है अब तक। फिर नदिया के लिए क्या बदल जाएगा। जगतपाल उसके मन की बात समझ रहा था। 

"सरिता कुछ अपने आप नहीं बदलता। बदलने के लिए कोशिश करनी पड़ती है। तू माँ होने के नाते नदिया को थपकी देकर सुला दे यही बहुत नहीं है। जो लड़ाई मैंने शुरू की है वो सिर्फ तेरे लिए नहीं है। वो नदिया और इस गाँव की और लड़कियों के लिए है। इसलिए तू हथियार मत डाल। हिम्मत करके लड़। जब अपने लिए लड़ेगी तभी कल अपनी बेटी के लिए लड़ पाएगी।"

जगतपाल ने सरिता का हाथ पकड़ कर कहा। "बोल इस लड़ाई में तू सिपाही बनेगी या नहीं।"

सरिता ने भी पूरे विश्वास के साथ कहा। "मैं लड़ूंगी। अपने लिए। अपनी नदिया के लिए।"


सरिता के लड़ाई के लिए तैयार हो जाने से जगतपाल का अशांत मन एक उत्साह से भर गया। वह हारेगा नहीं। लड़ेगा। वह एक सिपाही है। ऐसे कैसे छोड़ देगा जंग। हिम्मत तो उसने तब भी नहीं हारी थी जब आतंकियों से मुठभेड़ करते समय वह घायल हो गया था। पाँव में कई फ्रैक्चर हो गए थे। पाँव ठीक से काम नहीं करता था। वह फौज से रिटायर हो गया। 

चलने फिरने के लिए उसे सपोर्ट वाली छड़ी की ज़रूरत पड़ती थी। पर वह निराश नहीं हुआ। गाँव आकर अपने पिता की ज़मीन पर खेती कराने लगा। लोग कहते थे कि खेती में मुनाफा नहीं है। इसलिए पैसा कमाने के लिए गाँव के नौजवान शहर चले जाते हैं।

जगतपाल के भीतर के सिपाही ने भागने की जगह इस चुनौती का सामना करने की ठानी। वह पढ़ा लिखा था। उसने इस विषय में पढ़ना शुरू किया। इंटरनेट पर तथा अन्य साधनों के माध्यम से ऐसी तकनीकों के बारे में जानकारी जुटाई जो खेती में सगायक हों। उन फसलों के बारे में पता किया जिनसे अधिक मुनाफा मिल सके। 

अपनी मेहनत व लगन से उसने साबित कर दिया कि अगर कोशिश करो तो चीज़ें बदल सकती हैं। उसकी इन कोशिशों का लाभ उसके तथा आसपास के अन्य गाँव के लोगों को भी हुआ। हर तरफ उसकी चर्चा होने लगी। लेकिन इन सबके बीच एक बात की कसक उसके मन में थी। वह देश की सेवा के इरादे से फौज में भर्ती हुआ था। पर उसके घायल होने के कारण समय से पहले फौज छोड़नी पड़ी। वह देश की पूरी सेवा नहीं कर सका इस बात का उसे बहुत मलाल था। जगतपाल को जब भी अपने काम से अवकाश मिलता था वह किताबें पढ़ता था। जब भी उसका शहर जाना होता था तो वह कोई ना कोई किताब ज़रूर ले आता था। किताबों से मिले ज्ञान को वह गाँव वालों के बीच बांटता था। सब उसकी काबिलियत की खूब तारीफ करते थे।

वर्तमान में जो उसके और गाँव वालों के बीच मतभेद का कारण था उसकी शुरुआत भी किताबों से ही हुई। जगतपाल की पुश्तैनी हवेली में बहुत सी जगह थी। उसके पिता गाँव के सरपंच थे। जगतपाल ने हवेली के एक कमरे को ही पुस्तकालय में बदल दिया था। वहाँ की साफ सफाई की ज़िम्मेदारी सरिता पर थी।

एक दिन जब जगतपाल कहीं से लौटा तो सीधा पुस्तकालय में चला गया। वहाँ उसने देखा कि सरिता एक किताब को गोद में रख कर थोड़ा थोड़ा पढ़ने का प्रयास कर रही थी। जगतपाल ने उसे टोका नहीं। वह चुपचाप इस प्रयास को देखता रहा। कुछ देर बाद सरिता की नज़र उस पर पड़ी तो वह हड़बड़ा गई। किताब बंद करते हुए बोली।

"सफाई करने आई थी।" "तुझे किताब पढ़ना अच्छा लगता है।"

सरिता ने धीरे से हाँ में सर हिला दिया।

"तो पढ़ा कर। संकोच की क्या बात है। इतनी किताबें हैं यहाँ।"

"तुम तो बड़ी कठिन किताबें पढ़ते हो। मैं तो जैसे तैसे अक्षर जोड़ कर थोड़ा बहुत पढ़ लेती हूँ।"

"तुम तो पढ़ी हो ना।"

"हमारे में लड़कियों को चिट्ठी पत्री बांचने लायक ही पढ़ाते हैं। मेरे बापू ने भी उतना ही पढ़ाया था।"

सरिता अपने काम में लग गई। पर जगतपाल के मन में इस बात ने कंकड़ी मार दी थी। कई दिनों तक जगतपाल इस बारे में सोचता रहा। उसे सरिता की अक्षर जोड़ जोड़ कर पढ़ने की कोशिश याद आती थी। उसका किताबों की तरफ हसरत से ताकना उसके दिल को छू जाता था। 

एक रात उसने सरिता से कहा। "तुझे पढ़ने की बहुत चाह है ना ?"

"हाँ है तो....पर औरत की चाह की क्या कीमत।"

"क्यों नहीं है ?" "कौन सोचता है कि औरत क्या चाहती है। उसके लिए तो बस नियम हैं।"

जगतपाल को लगा कि सरिता ठीक ही तो कह रही है। दूसरों को क्या कहे ? खुद उसने कब सरिता का मन टटोला है। सारे गाँव में ज्ञान बांटता है। पर सरिता की ज्ञान की प्यास को महसूस नहीं कर पाया। 

बस जगतपाल ने ठान लिया कि वह सरिता की पढ़ने की इच्छा को पूरा करेगा। वह शहर से सरिता के लिए कुछ किताबें ले आया। रोज़ नियम से रात में वह सरिता को पढ़ाता था। 

सरिता में सीखने की ललक वैसे ही थी जैसे कि भूखा खाने को लेकर लालची होता है। कुछ ही दिनों में सरिता ठीक तरह से हिंदी बोलना सीख चुकी थी। थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी भी जानती थी। गणित के सवाल भी हल कर लेती थी।

वह जगतपाल के पुस्तकालय से किताबें लेकर पढ़ती थी। अखबार पढ़ती थी। इस तरह से उसके सामान्य ज्ञान में वृद्धि होने लगी।

सरिता की ज्ञान के लिए इस भूख को देख कर जगतपाल ने तय किया कि वह उसे आगे पढ़ाएगा। ज्ञान तो वह ऐसे भी अर्जित कर रही है। पर अब वह उसे सर्टिफिकेट भी दिलाएगा। उसने स्थानीय बोर्ड के दसवीं के पाठ्यक्रम के बारे में पता किया। सरिता को पढ़ाई के लिए किताबें लाकर दीं। उससे कहा कि मन लगा कर पढ़े। 

लेकिन जगतपाल यह भूल गया था कि समाज इन बदलावों के लिए तैयार नहीं है। सबसे पहले विरोध का स्वर उसके घर से उठा। 

जगतपाल के पिता सरपंच धरमपाल ने फरमान सुना दिया। "देख जगत मैं सरपंच हूँ। मैं अपने घर में ये कुचाली ना होने दूँगा।"

"पर बापू इसमें कुचाली की क्या बात है ?"

"लगता है फौज में लगी चोट का असर तेरे दिमाग पर पड़ गया है।"

जगतपाल को यह बात अच्छी नहीं लगा। "मैं अपनी लुगाई को पढ़ा कर कोई गलत काम तो नहीं कर रहा।"

धरमपाल ने तंज करते हुए कहा। "ना...ना....मेडल पाने वाला काम कर रहा है तू। बेवकूफ़ यह समझ नहीं आता कि लुगाई घर गृहस्थी संभाले है। पढ़ने की क्या जरूरत है उसे। देख मुझे बहस नहीं करनी। ये मेरा फैसला है।" कह कर धरमपाल पैर पटकते चले गए। 

जगतपाल ने भी ठान लिया कि अब तो सरिता दसवीं पास करके ही रहेगी। उसने समय पर प्राइवेट फार्म भरवा दिया। रोज़ खुद सरिता की पढ़ाई पर ध्यान देता था। वह ज़रा भी लापरवाही करती तो डांट लगा देता। 

सरिता परीक्षा के लिए पूरी तरह तैयार थी। पर बात गाँव भर में फैल गई। गाँव वालों ने पंचायत बैठाई। सब मिल कर जगतपाल को समझाना चाहते थे कि वह जो कर रहा है वह गलत है। अगर वह अपनी औरत को पढ़ाएगा तो गाँव दूसरी औरतों पर बुरा असर पड़ेगा। वो सब भी परंपरा ताक पर रख कर नंगे सर घूमेंगी। समाज रसातल में चला जाएगा।

जगतपाल ने भी बिना किसी डर अपनी दलीलें रखीं। पर समाज रूपी अजगर करवट लेने को तैयार नहीं था।

पर जगतपाल समझ गया था कि समझाने की जगह करके दिखाना ही सही है। वह खाट पर लेटा इसी विचार में खोया था। लेकिन डर था कि क्या सरिता इस लड़ाई में साथ देगी। पर वह उसकी सोच से अधिक बहादुर निकली। थोड़ा सा समझाने से मान गई।

सरिता ने सारे इम्तिहान दिए। दसवीं की परीक्षा अच्छे नंबरों से पास कर ली। यह महज एक आरंभ था। ना सिर्फ उसके लिए बल्कि गाँव की अन्य औरतों के लिए भी।

यह रास्ता प्रशस्त कर रही थी आगे आने वाली लड़कियों के लिए।


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