सिंडी दई
सिंडी दई
छोटानागपुर क्षेत्र में स्थित रोहतासगढ़ में बसने से पहले उरांव जाति कहां थी इसके विषय में इतिहास खामोश है।वैसे उरांव जाति भारतवर्ष में रहने वाली प्राचीनतम आदिम द्रविड़ जाति का ही एक अंग और अंश मानी जाती है।उनकी बोलचाल,भाषा और संस्कृति भी छोटानागपुर में बसने वाली अन्य आदिम जातियों मुंडा, हो, खड़िया और संथाल आदि अन्य जातियों से काफी भिन्न है। इनकी भाषा दक्षिण भारत में बसे हुए द्रविड़ परिवारों से काफी मिलती जुलती है।
यह करीब तेरहवीं या चौदहवीं सदी की बात है जब तुर्क दिल्ली की सल्तनत पर अपना कब्जा जमा चुके थे और उनकी फ़ौजें देश के अनेक हिस्सों पर विजय हासिल कर चुकी थीं,और रोहतासगढ़ के इलाकों से गुजर रही थीं तब उन्हें मुखबिरों से जानकारी मिली कि घने जंगलों के बीच स्थित दुर्गम पहाड़ों पर किसी जंगली कबीले का किला है जहां वे काफी सालों से राज कर रहे हैं।उन के बारे में यह मालूम हुआ कि वे बहुत वैभवपूर्ण जीवन बिता रहे थे और चीजों की खरीद फ़रोख्त तक के लिए भी बेशकीमती पत्थरों का उपयोग करते थे।बेशकीमती धनदौलत की कहानियों ने उन्हें उस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाने को ललचाया।
इस काम के लिए फ़ौज ने सरहुल का समय चुना,जब लोग रात दिन संगीत ,नृत्य और चावल से बनी हड़िया एक प्रकार की मदिरा पीकर धुत्त हों और फ़ौज से लड़ने की हालत मे न रहें।
रोहतासगढ़ का आदिम समाज समतावादी समाज था ,जिसमें स्त्री और पुरूष में भेद भाव नहीं था, बल्कि बराबरी थी। स्त्रियां पुरूषों की तरह युद्ध कौशल में पारंगत थीं।जब उन्होंने फ़ौज के आने की खबर सुनी और सभी पुरूषों को नशे में धुत्त पाया ,तो अपना धैर्य नहीं खोया बल्कि फौज का डट कर सामना करने के लिए रणनीति बनाने लगीं।इसका उन्हें पर्याप्त ज्ञान और अभ्यास भी था क्योंकि बचपन से ही लड़कों की तरह उन्हें भी युद्धकला का प्रशिक्षण दिया जाता था, ताकि वक्त पड़ने पर वे भी अपने समाज की रक्षा करने के लिए युद्ध लड़ सकें।
सभी स्त्रियों ने मर्दाना वेषभूषा धारण की और जवाबी कार्यवाही के लिए तैयार हो गई।ऐसे में सिनगी दई नामक स्त्री ने नेतृत्व की कमान संभाली।उसने स्त्रियों को कई रक्षा पंक्तियां में बांट दिया।कुछ को पहाड़ के ऊपर पत्थरों के बने परकोटे के पीछे मोर्चा संभालाने और ऊपर की ओर आती फ़ौज पर बड़े- बड़े पत्थरों की वर्षा करना था तो कुछ को तीर, धनुष,भाले और बरछों से परकोटे के बीचोबीच बने मुख्य दरवाजे से निकलकर टेढ़ी -मेढ़ी पगडंडियों से नीचे उतरकर वापस भागती फ़ौज पर आगे बढ़कर तीरों की वर्षा करनी थी।
पहाड़ से नीचे उतरती हुई सेना को इस प्रकार के प्रतिरोध की आशंका बिल्कुल भी नहीं थी।अचानक हुए हमले से उनमें खलबली मच गई और उनके पैर उखड़ गए। स्त्री सेना ने तीन बार फ़ौज को पहाड़ से नीचे सोन नदी के पार खदेड़ दिया।
दुश्मन को खदेडने के बाद स्त्रियां नदी में उतरकर अपने चेहरे धो रही थीं तभी किसी कहारिन ने नदी के दूसरे छोर से उन्हें देख लिया कि वे पुरूषों के भेष में स्त्रियां हैं।
वह कहारिन सीधे तुर्कों के खेमे में पहुंची और उस भेद के बारे में बताया।सेनापति फ़ौज के साथ नए जोश से भर दोबारा कूच के लिए त्तैयार हो गया।स्त्रियों को फ़ौज के दोबारा हमला करने की खबर मिली।वे जानती थीं कि इस बार उनसे जीत पाना बहुत मुश्किल होगा।उन्होंने तुर्क फ़ौज द्वारा अपनी कौम को कत्लेआम से बचाने के लिए अपने पुरखों की जमीन को हमेशा के लिए छोड़ देने का निर्णय लिया। रात के अंधेरे में नशें मे धुत्त आदमियों को जैसे- तैसे संभालती और वहां मौजूद सभी बच्चों, बूढ़ों और स्त्रियों को लेकर घने जंगलो में खो गईं।
जब दूसरे दिन तुर्कों ने किले पर हमला किया तो यह देख कर वे हैरान रह गए कि आखिर उन लोगों को ज़मीन निगल गई या आसमान।उन लोगों द्वारा छूट गए बेशकीमती पत्थर इधर -उधर पड़े मिले।तुर्कों को वह जगह काफ़ी भा गई,उन्होंने वहां घेराबंदी करके किले बनवाए ,जिनके खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं।
जब उरांव रोहतागढ से निकले तो वे कई दलों में बंटकर जंगलों और पहाड़ों को पार करके दक्षिण दिशा में पहुंचे और जिस जगह जाकर बसे उसे वर्तमान समय में सरगुजा के नाम से जाना जाता है। कुछ उस से भी आगे निकल गए और जहां पर बसे उसे आज जसपुर के नाम से पुकारा जाता है।ये दोनों इलाके छ्त्तीसगढ़ जिले के अंतर्गत आते है। कुछ उनसे भी आगे निकल गए और उड़ीसा राज्य में स्थित राजगंगपुर और सुंदरगढ़ जिले तक जा पहुंचे।ज्यादातर वे जो पूर्व दिशा में निकले वे जंगल ,पहाड़ पार कर गढ़वा होते हुए पलामू के जंगलो को पार करके पिठुरिया में जिस जगह पहुंचे उसे सुतियांबे के नाम से जानते हैं जहां मुंडा जाति राज करती थी। उरांव लोगों ने उनसे शरण मांगी।वहां के राजा ने कुछ शर्तों के बदले पिठुरिया से सिमडेगा तक के पश्चिमी हिस्से में उन्हें बसने की इजाजत दे दी।यह स्थान घने जंगलो से आच्छादित था।उरांव आदिवासियों ने कड़ी मेहनत कर के उसे रहने योग्य बनाया।पथरीली धरती को भरपूर लहलहाते फसलों से परिपूर्ण खेतों मे परिवर्तित किया।
आज भी सिनगी दई के नेतृत्व में हुए रोहतासगढ़ के हमले में तीन बार अपनी जीत को दर्शाने के लिए कई उरांव स्त्रियां अपने माथे में तीन खड़ी लकीर का गोदना गुदवाती हैं।सिनगी दई नेअपनी जान पर खेलकर तुर्की फ़ौज का मुकाबला किया और अपनी जाति की रक्षा की।उनके अदम्य साहस और अदभुत सूझ-बूझ के किस्से उरांव समाज में आज भी प्रचलित हैं।आज भी गर्व के साथ राजकुमारी सिनगी दई को याद किया जाता है। उस विजय के यादगार के तौर पर स्त्रियां बारह साल मे एक बार पुरूषों का भेष धरकर तीर, धनुष तलवार और कुल्हाड़ी लेकर सरहुल त्यौहार के दौरान जानवरों के शिकार के लिए निकलती हैं, जिसे जनी शिकार या मुक्का सेन्द्रा कहा जाता है।
विश्व के इतिहास में ऐसे उदाहरण विरले ही मिलेंगे जहां स्त्रियों ने अपने बलबूते हमलावरों का मुकाबला किया और अपनी जाति का संहार होने से बचा लिया हो।इनका जिक्र इतिहास के पन्नों में बेशक न मिले पर इनकी बहादुरी और शौर्य के किस्से आज भी लोकमानस में, गाथाओं-मिथकों,जनश्रुतियों एव किंवदंतियों में सुरक्षित और संरक्षित हैं।
