सिद्धि
सिद्धि
“मां सिद्धि का क्या मतलब होता है”
“बेटा सिद्धि का मतलब प्राप्ति पूर्णता मतलब, मतलब सब को खुश करने का या किसी काम को करने में महारत हासिल करना”
“अच्छा तभी आपका नाम सिद्धि है”
मां हँसती है, सिद्धि कहते हैं मुझे नाम का भी कर्म पर प्रभाव पड़ता है। पहले जानबूझकर भगवान के नाम पर बच्चों के नाम रखे जाते थे ताकि अप्रत्यक्ष रूप से ईश्वर को हर वक्त याद करें। मगर वास्तविक जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। ईश्वर भी ऐसे ही परीक्षा लेकर मुझे बहुत मजबूत बना दिया इसलिए अब किसी भी तरह की परीक्षा से डर नहीं लगता।
बचपन मे पढ़ने की इच्छा बहुत थी मगर 12 वीं तक की परीक्षा दे पाई। आगे की पढ़ाई नहीं कर पाई, मां चाहती तो थी मगर पैसों की कमी के कारण हामी नहीं भर पाई। जब मैं चार साल कि थी तो पापा हमें छोड़ कर चले गए। दो बडे़ भाई थे। परिवार में चाचा चाची थे, जिन्होंने हमें सहारा दिया। मां ने सिलाई करके कुछ कमाया तो कभी दूसरों के सामने मदद के लिए गई। घर परिवार के बाकी रिश्तेदारों की भी स्थिति सामान्य थी। चाहते हुए भी हमारी ज्यादा मदद नहीं कर पाते थे क्योंकि उनका अपना भी परिवार था। मां की कमाई से घर का खर्च ही निकल पाता था।
कभी-कभी लगता था भगवान ने हमें ही गरीब क्यों बनाया? आसपास रहने वाले संपन्न व सुखी थे। मां कि तरह दिन रात किसी की मां को काम करते नहीं देखा था। मगर हमें ऐसे क्यो? यह प्रश्न बार-बार परेशान करता था।
लगता था खुब सारे पैसे आ जाए मां भी कभी आराम करे। कुछ करूं, मगर क्या करूं? एक दिन मां ने कहा “तुम सिलाई सीखो, जाओ”” मैं शहर की सबसे बड़ी सिलाई क्लास गई। उस समय हमारी हैसियत इतनी नहीं थी। मां ने कुछ लोगों से मदद मांगी मगर किसी ने 100 किसी ने 200 किसी ने 500 दिए जमा करके मेरा नाम मां लिखा कर आ गई।
मेरा मन नहीं किया। मैं 2 दिन गई फिर नही गई। मां के पूछने पर कहा छुट्टी है। जो सहेली मेरे साथ जाती थी वह घर आकर कहने लगी तुम 2 दिन से क्यों नहीं चल रही हो और मेरा झूठ पकड़ा गया। मां मुझे बार-बार कहती है तुम्हें जाना पड़ेगा। कभी मुझे इमोशनली ब्लैकमेल करना शुरू किया तो कभी मोटिवेट करती। आखिर में जाने लगी।
3 महीने में काफी कुछ सिख लिया ओर लोगों के सामने कॉन्फिडेंस के साथ बात करने लगी। डेसिग सेंस थोड़ा सुधर गया। कुछ लोग मेरी इस बात की तारीफ करते थे। मां के काम में मदद करने लगी।
बहुत दिल से सिलाई का काम पसंद नहीं करती थी लगा एक दिन गुरु के पास जाकर बता दूं वही मुझे रास्ता बताएंगे।
गुरु के पास गई मैं कुछ कहती उसके पहले ही गुरु ने कहा तो अब सीख गई हो सिखाओ।
मैं जो कहना चाहती थी वह भूल ही गई। गुरु की आज्ञा है सोच कर उसी बात पर अमल करने का मन बना लिया। पहुंची तो लड़की घर पर बैठी थी, पड़ोस में रहती थी। वह भी हमारी तरह मां के कहने पर आई थी।
उसने कहा मै इतनी फीस नहीं दे सकती तो मुझे आप सिखा दो और मुझे भी उस पर दया आ गई। मैंने सोचा इसे मैं फ्री मैं ही सिखाती हूं यह मेरी पहली स्टूडेंट है।
मैंने कहा “ठीक है तुम आ जाओ कल से “
कुछ दिनों तक सीखने के बाद वह अपनी कजन बहन को भी लाने लगी। फिर एक से दो, दो से चार और ऐसे करके मेरे पास 20 से 25 लोग सिलाई सीखने आने लगे। लोगों का मुझ पर विश्वास बढ़ता गया और मेरा काम भी अच्छा होने लगा। मेरी कमाई अच्छी थी घर के हालात काफी सुधर गए। मैं भाइयों से ज्यादा कमाती थी। मैंने उन भाइयों की शादी कराई, मकान में कुछ काम करवाया, कई जिम्मेदारियां निभाई, बहुत संघर्ष के बाद हालात सुधरे।
मगर ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था इतने संघर्ष के बाद लगा शादी के बाद शायद सुख मिलेगा। मेरी सगाई हुई दिल मे कई अरमान थे एक खुशी और मेरी शादी हुई मगर मै फिर शुन्य मे पहुंच गई।
सब कुछ अलग था इतना कि मैं अपनी किस्मत पर हर वक्त रोती थी। मगर हालात बदलना चाहती थी। ससुर बीमार रहते थे जिसकी वजह से सास हमेशा परेशान रहती थी। बड़ी रूढ़िवादी विचारधाराओं के थे।
पति ने जो कुछ शादी से पहले कहा हकीकत के धरातल में रेत के महल की तरह था। मेरा कोमल मन बचपन से कठोर बन चुका था। विरोधी स्वभाव की हो गई। गलत न करना चाहती थी ना सहना। जिसके चलते सबसे रिश्ते बिगड़ते गए। पति ने साथ नहीं दिया। सास ससुर ने घर से निकाल दिया मायके के हालात ऐसे ना थे कि मैं वापस हमेशा के लिए जाऊं।
मैं घंटों स्टेशन में बैठी रही। ना फोन, ना खाना, अनजान शहर कोई नहीं था अपना, फैसला लेना था। या तो स्वीकार करूं या हालात बदलने के लिए डट के खड़ी रहूँ। मेरी पहली लड़ाई मानो खुद से थी। मैं पति के पास वापस जाना भी चाहती थी और नहीं भी, कुछ घंटो बाद मुझे ढूंढते हुए पति स्टेशन पहुंच गए।
मैं चाहती तो नहीं थी मगर स्वीकार करने के अलावा उस समय कोई रास्ता ना था। मैंने बहुत खुद को समझाया और मैं वापस गई। कुछ महीने बाद में प्रेग्नेंट हो गई। जीवन की एक नई शुरुआत हो चुकी थी। कुछ हालात ऐसे थे कि हर कोई विरोधी था। फिर भी पति के व्यवहार व काम में कुछ तो परिवर्तन नजर आया, जिसके कारण मेरा साथ रहा। बाकी लोग वैसे ही छोटी-छोटी बातों में नाराज होते थे। घूंघट प्रथा, रात को ना निकलना, हर वक्त औरतों को ऐसा नहीं करना चाहिए और उसको वैसा नहीं करना चाहिए जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था उसे अनसुना करने लगी।
पति ने खुद का काम शुरू किया और मैंने सिलाई क्लास। धीरे धीरे हालात बदलने लगे। हम खुश थे मगर घर के बड़े नहीं। लगा सबके लिए कुछ करूं और मैं अपनी नफरत भूल कर सब को स्वीकार करने लगी। काफी समय लगता है लोगों को स्वीकार करने में।
काफी कुछ बदलना था। बस मन मे दिन रात सपने व पैसे कमाने की ललक थी। कई बार तो मैं खाना भूल जाती हूं। रात रात भर काम करती हूं। बिटिया छोटी है मगर अभी से भी जिम्मेदार हो गई है। खाना परोस कर कहती मां कुछ खा लो। मुझे कभी उन्हें कुछ सिखाना या डांटना ही नहीं पड़ा। बेटियां हीरे की तरह होती हैं अनमोल।
हम दोनों की मेहनत रंग लाई हमने खुद का मकान लिया। ऊपर नीचे, नीचे सास-ससुर और ऊपर हम रहते थे ससुर जी का खोया हुआ आत्म सम्मान वापस आया क्योंकि कहीं ना कहीं उनके मन में यह बात थी कि वे अपने ससुराल में रहते हैं और अब मां भी बहुत खुश थी अपने घर में।
कभी कभी लगता है हम मायके में कम और ससुराल में ज्यादा जीवन व्यतीत करते हैं और वह सासु मां भी मां बन जाती है एक समय के बाद, कुछ ऐसा ही होता है।
पति अक्सर मुझे डांटते हैं जितना कमाती हो उतना खर्च करती हो। मेरी सास को कभी खुलकर शॉपिंग करते नहीं देखा पहले वो रेट देखती हैं फिर चीजें उठाती हैं। उन्हें बहुत शौक है कपड़े का मगर वह पैसों की वजह से खुलकर नहीं कर पाती। अब मैं उन्हें वह सब देना चाहती हूं जिससे उन्हें खुशी मिले। अपनी कमाई का आधे से ज्यादा हिस्सा मैं मां को देती हूं ताकि वह अच्छे से खर्च करें उन्हें डिजाइनर कपड़े बना कर देती हूं उनकी खुशी देखते ही बनती है।
सच में परिवार को अगर आप सम्मान, समय और प्यार दे तो जीवन सार्थक है। क्यों हमें शांति और सुख की तलाश में कहीं जाना नहीं पड़ता? आज कई लड़कियों को सिलाई सिखाती हूं बहुत कुछ बदल गया है। मेरी तरह कई लड़कियां होंगी, कोई फीस नहीं देती तो मैं कभी नही कहती कई ऐसे बच्चे हैं जो सीखते हैं मगर फीस नहीं देते, मुझे खुशी होती है कम से कम कमा कर खा लेंगे।
शॉपिंग के लिए इंदौर गई थी। ट्रेन में कुछ महिलाएं भोपाल से चढ़ी जो मेरे आजू-बाजू ही बैठी थी। लगभग उनका पूरा ग्रुप था उस बोगी में। उनकी बातों कुछ कुछ प्रोफेशनल लग रही थी। आत्मविश्वास से भरी हुई।
वह रात देर तक बात करती रही उन्हें जानने की इच्छा हो रही थी। यह कहां से आई है। क्यों आई है। कहां जा रही है। बड़े सवाल थे मेरे मन में मैंने सोचा सुबह बात कर लूंगी उनसे। मेरा सफर खत्म होने को था आखिर मैंने पूछ लिया “आप सब कहां जा रही है? क्यों जा रही है? कहां से आ रही है? बड़ी खुशी से सब जवाब मिले भारतीय सिंधु सभा नाम की संस्था से जुड़ी थी जो समाज के लिए काम करती है। उनकी बातें उनकी सेवा पूजा के बारे में सुनकर बहुत अच्छा लगा।
कभी कभी लगता है कुछ लोगों तक सीमित होकर ही जीवन खत्म हो जाता है। क्यों ना एक सामाजिक संस्थाओं से जुड़कर कुछ करूं और आज मुझे एक माध्यम भी मिल गया।
मेरे दोस्त यूं ही बन जाते हैं निस्वार्थ, अनजाने सफर में कितना अच्छा लगता है ना अकेले सफर करना, एक नई उर्जा आ जाती है मेरे मन में खूबसूरत प्रकृति, विभिन्न लोगों की भाषा, संस्कृति, खानपान अलग होता है। मगर इंटरेस्टिंग होता है।
आजकल गुरु के सदेंश मोबाइल में ही सुनती हूं, अप्लाई करना बाकी है कभी-कभी करती हूं आज का मैसेज था। लगता है जाने अनजाने भी किसी का दिल न दुखाऊ मानवीय स्वभाव है कभी कभी गुस्सा आ जाता है। बच्चियों को सिखाते सिखाते कभी गुस्सा करती हूं। मैं चाहती हूं मैं जिस भी बच्चियों को सिखाऊँ आगे जाकर दूसरों को सिखाएं। 6 महीने की क्लास नहीं मेरे जीवन का अनुभव में उन्हें देती हूं। छोटी-छोटी गलतियां उन्हें बता दूं ताकि वह ना करें।
मुझे लेट लतीफे पसंद नहीं। मैं आधे घंटे से बाहर खड़ी हूं मगर पतिदेव अभी तक नहीं पहुंचे। जीवन में यही सिद्धि तो हासिल करनी है कि परिस्थितियां कैसी भी हो गुस्सा नहीं करूं। स्वीकार करूं तभी वास्तव में मेरा नाम सार्थक होगा।
